रूड़की रिपोटर रफन एहमद
सहसंपादक अमित मंगोलिया
नीम हकीम, खतर-ए-जान’ वाली कहावत से सभी वाकिफ हैं. रास्तों के किनारे जड़ी-बूटी की दुकानें खोले बैठे कई लोग इसी को चरितार्थ करते नजर आते हैं. राह से गुजरते ज्यादातर युवा इनके निशाने पर होते हैं. इनकी एक आवाज पर इनके करीब जाते ही इलाज के इच्छुक युवा इनकी बातों में उलझ जाते हैं.
रोग को शत प्रतिशत दूर करने की गारंटी के साथ ये लोग 50 से 100 रुपए वसूलते हैं. बताया गया है कि शहर में ऐसे जड़ी-बूटीवालों की संख्या करीब 200 है. इनमें से ज्यादातर निरक्षर हैं. पारंपरिक व्यवसाय के रूप में उन्होंने इसे अपना तो लिया है लेकिन कई ऐसे हैं जिन्हें जड़ी-बूटी का विशेष ज्ञान नहीं है. कई ‘सेक्स’ के नाम पर अपनी औषधि खपाते रहते हैं. इनमें स्वप्नदोष, शीघ्रपतन आदि दोष बताकर शिलाजीत, मदनमस्त, कामराज मोदक, अमर फल, बरफ फल, इश्क अम्बर, काली मुसली, सफेद मुसली के नाम पर बूटियां बेची जाती हैं.
हैरत की बात ये है कि असल में मदनमस्त व कामराज मोदक की 10 ग्राम की कीमत 300 रुपए और अमर फल व बरफ फल 600 रु. तोला में बिकते हैं लेकिन ये बूटी वाले मोलभाव करते हुए इन्हें 50 से 100 रु. में बेच देते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि जिन लोगों के हाथ यह जड़ी-बूटी लग रही है, क्या वह असली भी है? पुलिस व अन्न औषधि प्रशासन की आंखों के सामने यह ‘धंधा’ चल रहा है लेकिन ऐसे व्यवसायियों की औषधि की जांच होती हुई नजर नहीं आती. हालांकि ऐसे ‘नीम हकीम’ खुद को राजवैद्य के वंश का होने से बताने में कोई परहेज नहीं करते. साथ ही दावा करते हैं कि उनके पास हर मर्ज का इलाज है, चाहे वह चर्मरोग, मधुमेह हो या कैंसर.
जांच होना जरूरी: जड़ी-बूटी की जानकारी काफी कम लोगों को होती है. इसलिए रास्तों पर जड़ी-बूटी के नाम पर कुछ भी बिक सकता है. शासन को ऐसे हर व्यवसायी और उनकी बूटी की जांच करनी चाहिए. आखिरकार उनके ग्राहकों में ज्यादातर बालक व युवा होते हैं.