फांसी के फंदे पर झूलने वाला क्रांतिकारी खुदीराम बोस

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फांसी के फंदे पर झूलने वाला क्रांतिकारी खुदीराम बोस

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास कुर्बानियों का इतिहास है.देश की आजादी के लिए शहीद होने वालों में खुदीराम बोस का नाम अद्वितीय है. खुदीराम बोस का जन्म बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में  3 दिसंबर 1889 को हुआ था.खुदीराम बोस का जन्म कई बहनों के जन्म के बाद हुआ था.इसलिए परिवार में उनको बहुत प्यार मिलता था.लेकिन बहुत कम उम्र में ही अनके सिर से पिता त्रैलोक्य नाथ बोस और मां का साया उठ गया.माता-पिता के निधन के बाद उनकी बड़ी बहन ने मां-पिता की भूमिका निभाई और खुदीराम का लालन-पालन किया था.खुदीराम ने अपनी स्कूली जिंदगी में ही राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था.तब वे प्रतिरोध जुलूसों में शामिल होकर ब्रिटिश सत्ता के साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे, अपने उत्साह से सबको चकित कर देते थे.आजादी के प्रति उनकी दीवानगी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उन्होंने नौंवीं कक्षा की पढ़ाई भी बीच में ही छोड़ दी और अंग्रेजों के खिलाफ मैदान में कूद पड़े.फांसी के फंदे को चूमने के समय खुदीराम बोस की उम्र महज 18 वर्ष कुछ माह थी. जिस उम्र में बच्चे पढ़ते और खेलते-कूदने में लगे रहते हैं उस उम्र में खुदीराम बोस की आंखों में आजादी का सपना पल रहा था.देश की जनता पर अंग्रेजों के काले कानून के नीचे पिस रहे थे तो ब्रिटिश अधिकारी जनता पर बेइंतहा जुल्म ढा रहे थे. ऐसे ही एक ब्रिटिश अधिकारी किंग्सफोर्ड था.जो कलकत्ता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट था।खुदीराम बोस ने डर को कभी अपने पास फटकने नहीं दिया, 28 फरवरी 1906 को वे सोनार बांग्ला नाम का एक इश्तिहार बांटते हुए पकड़े गए.लेकिन उसके बाद वह पुलिस को चकमा देकर भाग निकले.16 मई 1906 को पुलिस ने उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया. लेकिन इस बार उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया. इसके पीछे वजह शायद यह रही होगी कि इतनी कम उम्र का बच्चा किसी बहकावे में आकर ऐसा कर रहा होगा.लेकिन यह ब्रिटिश पुलिस के आकलन की चूक थी.अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ उनका जुनून बढ़ता गया और 6 दिसंबर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर आंदोलनकारियों के जिस छोटे से समूह ने बम विस्फोट की घटना को अंजाम दिया, उसमें खुदीराम प्रमुख थे।खुदीराम और प्रफुल्ल, दोनों ने किंग्सफोर्ड की दिनचर्या और गतिविधियों से संबंधित सूचना एकत्र करना शुरू किया.इस क्रम में खुदीराम किंग्सफोर्ड की कोठी के आर-पास घूमने लगे.लेकिन सीआईडी अधिकारियों को उनके ऊपर शक नहीं हुआ.एक दिन वे किंग्सफोर्ड की कोठी के पास ही पर्चा बांटते हुए पकड़े गये लेकिन अधिकारियों ने उन्हें डांट कर भगा दिया. कुछ दिनों में ही योजना को अंजाम देने के लिए उनके पास पुख्ता सूचना उपलब्ध हो गये. खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को पता चल गया था कि किंग्सफोर्ड रोज शाम को क्लब में जाता है.क्रांतिकारियों ने कोठी की बजाय क्लब में आने-जाने के समय किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम फेंकने का निर्णय किया. उस योजना के मुताबिक दोनों ने किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम से हमला भी किया. लेकिन संयोग से क्रांतिकारियों ने किंग्सफोर्ड की बग्घी की बजाय दूसरे बग्घी पर हमला कर बैठे. इस हमले में दो अंग्रेज महिलाएं मारी गईं.खुदीराम और प्रफुल्ल हमले को सफल मान कर वहां से भाग निकले.लेकिन जब बाद में उन्हें पता चला कि उनके हमले में किंग्सफोर्ड नहीं, दो महिलाएं मारी गईं, तो दोनों को इसका बहुत अफसोस हुआ.लेकिन फिर भी उन्हें भागना था और वे बचते-बढ़ते चले जा रहे थे.प्यास लगने पर एक दुकान वाले से खुदीराम बोस ने पानी मांगा, जहां मौजूद पुलिस को उनपर शक हुआ और खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया गया.लेकिन प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली. उनकी निडरता, वीरता और शहादत ने उनको इतना लोकप्रिय कर दिया कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे और बंगाल के राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों के लिये वह और अनुकरणीय हो गए। उनकी फांसी के बाद विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया और कई दिन तक स्कूल-कालेज बन्द रहे। इन दिनों नौजवानों में एक ऐसी धोती का प्रचलन हो चला था जिसकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।इनके वीरता को अमर करने के लिए गीत लिखे गए और इनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ। खुदीराम बोस के सम्मान में भावपूर्ण गीतों की रचना हुई जो बंगाल में लोक गीत के रूप में प्रचलित हुए।