उत्तराखंड की प्रसिद्ध मणिकूट पर्वत की पौराणिक फलदायिनी परिक्रमा पद यात्रा।

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उत्तराखंड की प्रसिद्ध मणिकूट पर्वत की पौराणिक फलदायिनी परिक्रमा पद यात्रा।

हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।
उत्तराखण्ड में जिस तरह हर बारह साल में नंदा राज जात यात्रा और कैलाश मानसरोवर यात्रा होती है, उसी तरह जिला पौड़ी गढवाल के यमकेश्वर क्षेत्र में नीलकंठ महादेव का प्रसिद्व ऐतिहासिक मंदिर जो कि मणीकूट पर्वत पर स्थित है। मणिकूट पर्वत की पैदल परिक्रमा श्ऱद्धालुओं द्वारा हर वर्ष होली से पूर्व आने वाली एकादशी को की जाती है। यह यात्रा साल में दो बार होती है, सावन माह में भी स्थानीय लोग पद यात्रा कर मणिकूट पर्वत की पद यात्रा परिक्रमा के रूप में करते हैं। यह पद यात्रा 60 किलोमीटर लगभग है। इस यात्रा में 12 स्तम्भ द्वार हैं, जहॉ पर रूक कर श्ऱद्धालु पूजा अर्चना कर आगे बढते हैं। बताया जाता है कि इस यात्रा को पहले मौन रूप में करने एवं गंगा नदी को कही भी पार नहीं करने का प्रावधान है।

मणिकूट पर्वत यात्रा का धार्मिक एवं सांस्कृतिक पौराणिक महत्वः नीलकंठ और मणिकूट पर्वत के पौराणिक इतिहास के संबंध में लेखकों में मतभेद है। कुछ लोगों की मान्यता है कि नीलकंठ और मणिकूट पर्वत का वर्णन स्कन्द पुराण के केदारखण्ड में वर्णित हैं, लेकिन कुछ विद्ववत्जन कहते हैं कि इनमें कहीं भी मणिकूट में नीलकंठ महादेव और यमकेश्वर महादेव की कोई चर्चा नहीं हैं, अतः यह विषय खोज करने वालों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है। लेकिन कुछ विद्ववत जनों का मत है कि महादेव द्वारा प्रणीत ’योगिनी यंत्र’ के नौवे पटल में मणिकूट तथा नीलकंठ महादेव का वर्णन मिलता है। इस योगिनी यंत्र में भगवान शंकर व पार्वती के मध्यम संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शंकर से प्रश्न करती है और भगवान शंकर उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते हैं किः-
‘‘ततः प्रभाते देवेशि मणिकूटस्टस्थ चौत्तरे
वल्ल भाख्या नदी पुण्या सर्व पापमोचनी’’।।
अर्थात शिवशंकर पार्वती से कहते हैं कि प्रभात काल में मणिकूट के उत्तर की ओर सब पापों का नाश करने वाली बल्लभा नदी बहती है। बल्लभा नदी में माघ या फाल्गुन के महीने में एकादशी में स्नान करने से महापातक नष्ट होते हैं, और बल्लभा नदी में स्नान करने के उपरान्त नीलकंठ के दर्शन करने से सात जन्मों के पाप तक नष्ट हो जाते हैं। साथ ही मणिकूट पर्वत से तीन पवित्र नदियों के उद्गम होने का उल्लेख है। ये नदियां नंदिनी, पंकजा, और मधुमति नदी है।
वहीं स्थानीय मान्यता एवं जनश्रुति के अनुसार जब समुद्र मंथन के दौरान विष निकला तो तब देवताओं ने शिव से हलाहल ग्रहण कर सृष्टि के विनाश को रोकने की प्रार्थना की। शिवजी ने सृष्टि कल्याण के लिये विष धारण ग्रहण कर लिया। माता भवानी ने शिवजी के गले मे ही विष को आगे जाने से रोक दिया, जिस कारण शिवजी का गला नीला पड़ गया, इसी वजह से शिवजी का नाम नीलकंठ हो गया। विष ग्रहण करने के उपरांत विष ज्वाला को शांत करने के लिये भगवान भोलेनाथ ने मणिकूट पर्वत पर तपस्या करने लगे वही से दो किलोमीटर दूर पहाड़ी पर माँ भवानी ने भी शिवजी की विष ज्वाला शांति के लिये तपस्या की। यँहा पर माँ भुवनेश्वरी का मंदिर स्थित है। कुछ दूरी पर झिलमिल गुफा है, जँहा यात्री पैदल यात्रा करते है। भगवान भोलेनाथ के नीलकंठ रूप में विराजमान होने और माँ भवानी के सिद्धपीठ भुवनेश्वरी मंदिर होने से मणिकूट पर्वत पवित्र माना गया है। इसलिये इस पर्वत की सावन और माघ फाल्गुन में परिक्रमा करना भगवान भोलेनाथ की परिक्रमा करने के तुल्य माना जाता है।

मणिकूट पर्वत के बारे में कहा जाता है कि भगवान राम ने भी अपने इष्ट शिवजी के दर्शन करने हेतु मणिकूट पर्वत की परिक्रमा की थी।

मणिकूट पर्वत की परिक्रमा पहले लोग सुविधानुसार किसी भी द्वार से आरम्भ कर देते थे। जिस द्वार से यात्रा करते थे समापन भी उसी द्वार पर होता था। यात्रा मौन होती है, और श्रद्धालु उपवास लेकर इस यात्रा को करते हैं। मणिकूट पर्वत के इस यात्रा को पहले दो दिन में पैदल की जाती थी। यह परिक्रमा यात्रा लगभग 60 किलोमीटर है। पूर्व में जब परिक्रमा यात्रा होती थी तो पांडव गुफा से विंध्यवासिनी तक पहले दिन की यात्रा होती थी, विंध्यवासिनी मंदिर में दर्शन के बाद यात्रा को विराम देते थे, अगले दिन यँहा से सुबह यात्रा शुभारंभ होती थी।

वर्तमान में घटूगाढ़ स्थित आत्म कुटीर के संचालक राही बाबा इस यात्रा का पहला द्वार पांडव गुफा को निर्धारित कर यँहा से यात्रा प्रस्थान करने का स्थान निर्धारित कर दिया है, ताकि यात्रा का सफल और नियमानुसार एक ही स्थल से प्रारम्भ हो सके। परिक्रमा यात्रा के दौरान 12 स्तम्भो या द्वार की पूजा की जाती है। 12 पौराणिक द्वार इस प्रकार से है।

1:- पांडव गुफा: लक्ष्मणझूला एवं स्वर्गाश्रम के निकट प्राकृतिक रूप से बनी यह गंगा नदी के तट पर स्थित हनुमान जी की तपस्थली और पांडवों की भी तपस्थली के रूप में प्रसिद्घ है। श्रद्धालु होली से पूर्व आने वाली शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन स्नान आदि से निवृत्र होकर यँहा से पूजा अर्चना करने के बाद परिक्रमा पद यात्रा आरम्भ करते है।

2- गरुड़चट्टी- परिक्रमा पद यात्रा का दूसरा द्वार गरुड़ चट्टी है, यँहा पर मान्यता है कि यह स्थान गरुड़ भगवान का गरुड़ पुराण का शुभारंभ माना जाता है, साथ ही इसे वृहस्पति गुरुत्व प्रदान क्षेत्र के साथ साथ साधना के लिये उपयुक्त माना गया है। यँहा पर श्रद्धालुओं द्वारा गरुड़ एवं भगवान विष्णु की पूजा की जाती है।

3- फूलचट्टी- गंगा और हेवल नदी के संगम के साथ साथ मोक्षद्वार और मणिकूट जलधारा के लिये प्रसिद्ध स्थल पर पूजा अर्चना करने के बाद परिक्रमा यात्रा आगे बढ़ती है।

4- कालीकुण्ड:- माँ भुवनेश्वरी औरननीलकंठ के चरणों को धोकर निकलने वाली पवित्र बल्लभा नदी काली कुंड में आकर झरने के रूप में मिलती है, इस काली कुंड में दीप जलाकर पूजा अर्चना करने के बाद पद परिक्रमा यात्रा आगे बढ़ती है।

5-पीपलकोटि- लक्ष्मणझूला काण्डी रोड़ पर नीलकंठ की ओर जाने वाली सड़क पर स्थित पीपलकोटि में यात्रा काम पांचवां पड़ाव माना गया है। इस स्थल को भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी जी की विश्राम स्थली माना जाता है, यँहा पर भगवान विष्णु औऱ माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है।

6- हिंडोला- पीपलकोटि से यात्रा आगे बढ़ती है। दिउली बाजार के रूप में हिंडोला प्रसिद्ध है। हिंडोला नृसिंह देवता का प्रतीक माना जाता है। यँहा पर श्रद्धालुओं के द्वारा हिंडोला की पूजा करके यात्रा आगे बढ़ती है।

7-कुशशील/ संयारगढ़- दिउली से यात्रा आगे बढ़ती है, और स्यारगढ़ के पास कुशाशील जिसे कुष्मांडा देवी का विचरण क्षेत्र माना जाता है, यँहा पर माँ कूष्मांडा की पूजा अर्चना की जाती है। पहले यह निर्जन क्षेत्र था लेकिन वर्तमान में कुशाशील के स्थान पर स्यारगढ़ में आश्रम में पूजा अर्चना की जाती है।

8- विंध्यवासिनी- ताल और त्याड़ो नदी के संगम और खड़े चट्टान वाले पर्वत पर वास करने वाली प्रसिद्ध सिद्धपीठ विंध्यवासिनी परिक्रमा पद यात्रा का सातवां मुख्य पड़ाव माना जाता है। माता के दर्शन कर यँहा पर दो दिवसीय यात्रा का रात्रि पड़ाव था। कहा जाता है कि मणिकूट पर्वत की पूजा एकादशी से पूर्व इस पर्वत और यँहा पर क्षेत्रीय देवता की पूजा कर यात्रियो के लिये भोजन और बर्तनों की व्यवस्था करने के लिये आग्रह करते थे। अगले दिन यँहा पर श्रद्धालुओं के लिये स्वयं क्षेत्रीय देवताओं जिन्हें लोकपाल कहा जाता है के द्वारा भोजन और बर्तन उपलब्ध कराए जाते थे लेकिन बाद में लोगो ने झूठे बर्तन छोड़कर आगे निकल जाने के कारण बर्तन और भोजन लोकपालो द्वारा दिया जाना बंद हो गया।

अगले दिन सुबह नदी संगम पर स्नान करने के बाद पुनः विंध्यवासिनी मंदिर के दर्शन और पूजा के उपरांत यात्रा आगे बढ़ती है।

9- गोहरी- गोहरी के समीप नंदी द्वार के रूप में पूजा की जाती है। गोहरी को मोक्षद्वार के रूप में माना जाता है। इसको मणिकूट का गंगाततीय द्वार के साथ भोलेनाथ का प्रमुख गण नंदी का प्रमुख क्षेत्र माना जाता है ।

10- बैराज- शिवजी का प्रिय भक्त बीरभद्र के द्वार के रूप में यँहा पर पूजा की जाती है। इसलिये इसे वीरभद्र द्वार कहा जाता है।

11- गणेश द्वार- बैराज से आगे कुम्भी चौड़ के समीप इस स्थल को पूर्व में गणेश जी का तपःस्थली माना गया है। इसलिए यँहा पर गणेश द्वार के रूप में श्रद्धा भाव से पूजा की जाती है।

12- भैरव द्वार- तुरडी गाढ़ के पास नीलंकठ जाने वाले पैदल रास्ते पर भैरव द्वार के रूप में श्रद्धालुवो के द्वार यँहा पर भैरव की पूजा की जाती है। भैरव को यँहा का लोकपाल देवता के रूप में पूजा की जाती है। यह यात्रा का अंतिम द्वार है, इसके बाद यात्री प्रथम द्वार पांडव गुफा की ओर आगे बढ़ते है।

यात्रा के दौरान ढोल दमो के साथ यात्री की जाती है। पैदल यात्रा का मार्ग दुर्गम होने के कारण बहुत सालों तक बंद रही, लेकिन पुनः अब यह यात्रा शुरू हो गयी है। अब कुछ लोग वाहनों से यात्रा करते है, लेकिन यात्रा पैदल करना ज्यादा फलदायी और मनोकामना पूर्ण करने वाली मानी जाती है।

इस साल यह यात्रा 25 मार्च को होगी। आत्म कुटीर के संचालक राही बाबा ने कहा कि कोरोना को देखते हुए इस बार यात्रा संक्षेप में की जाएगी।

हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।