कोटद्वार’ को बसाने वाला बोक्शा समुदाय स्वयं बेघर होने के कगार पर पंहुचा

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कोटद्वार’ को बसाने वाला बोक्शा समुदाय स्वयं बेघर होने के कगार पर पंहुचा

कोटद्वार। ‘कोटद्वार’ को बसाने वाले स्वयं बेघर होने के कगार हैं। हम बात कर रहे हैं उस बोक्सा जनजाति की, जिसे कोटद्वार की बसागत का श्रेय जाता है। वक्त का पहिया घूमा और जिन बोक्सा को कोटद्वार का मालिक होना था, अपना अस्तित्व बचाने को जूझ रहे हैं। अशिक्षा ने इस जनजाति को समाप्ति के कगार पर ला दिया है।

आज भले ही ‘कोटद्वार’ उत्तराखंड के बड़े शहरों की फेहरिस्त में शामिल हो, लेकिन एक समय ऐसा भी था जब ‘कोटद्वार’ को ‘कालापानी’ की संज्ञा दी जाती थी। पूरे क्षेत्र में जानलेवा मलेरिया व हैजा का प्रकोप था। 17-वीं सदी के अंत में बोक्सा जनजाति ने कोटद्वार में बसागत शुरू की और विपरीत परिस्थितियों से लड़ते हुए उन्होंने स्वयं को न सिर्फ इस माहौल के काबिल बना दिया, बल्कि यहां खेती भी शुरू कर दी। बताते हैं कि अंग्रेजों ने बोक्सा जाति की माली हालत को देखते हुए इन्हें भूमि भी दी, लेकिन 1960 में हुए बंदोबस्त में इनकी इस भूमि पर अन्य लोगों ने अधिकार जमा दिया। आज हालात यह है कि क्षेत्र में बोक्सा जाति के लोग चंद गांवों तक सिमट कर रह गए हैं और इनके समक्ष स्वयं का अस्तित्व बचाने का संकट खड़ा हो गया है।

बोक्साओं को यह नाम अंग्रेजों का दिया हुआ है। बोक्सा जनजाति मूलत: खानाबदोश जाति थी, जो जंगलों में जीवन व्यतीत किया करती थी। हिमाचल से रायवाला तक बोक्साओं को ‘मेहर’ कहा जाता है, जबकि कुमाऊं सीमा से तराई-भाबर में इन्हें ‘बोक्सा’ और रामनगर से पीलीभीत तक इन्हें ‘थारू’ कहा जाता है। यह बात और है कि थारू व मेहर की अपेक्षा वर्तमान में बोक्सा ही सर्वाधिक पिछड़े हुए हैं।

आज भी कायम है नमक-लोटा

बोक्सा जनजाति में ‘नमक-लोटा’ परंपरा है, जिसके तहत भरी पंचायत के मध्य में पानी से भरा लोटा रख दिया जाता है और बोक्सा जाति के लोग इस पानी से भरे लोटे में एक-एक चुटकी नमक डाल शपथ लेते हैं। उनका मानना है कि यदि वे शपथ पूर्ण नहीं करेंगे तो उनका शरीर पानी में नमक के समान घुल जाएगा।

यह है वर्तमान स्थिति

वर्तमान में बोक्सा जनजाति बेहद मुश्किल दौर से गुजर रही है। वर्तमान में बोक्‍सा की 1500 की आबादी है। इस जनजाति के कई बच्चे आज भी शिक्षा के नाम पर महज खानापूर्ति ही करते नजर आते हैं। शिक्षित न होने के कारण इन्हें सरकारी योजनाओं का भी पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है। यूं तो कानूनन बोक्साओं की भूमि की खरीद-फरोख्त पर सरकार ने रोक लगा रखी थी। बावजूद इसके क्षेत्र में प्रापर्टी डीलर इनकी भूमि को विभिन्न प्रपंचों से लगातार बेच रहे हैं। बोक्सा जाति के बच्चों को शिक्षा देने के नाम पर कई संगठन सरकारी धन को लगातार हड़प रहे हैं, लेकिन बोक्सा जाति के बच्चे आज भी शिक्षा से कोसों दूर हैं। स्थिति यह है कि बोक्साओं के महज एक फीसद बच्चे ही महाविद्यालय का मुंह देख पाते हैं। करीब साठ फीसद बच्चों ने कभी स्कूल का मुंह देखा ही नहीं हैं।