सीएम बदल गए लेकिन नशाखोरी के खिलाफ नहीं उठाया कोई ठोस कदम

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सीएम बदल गए लेकिन नशाखोरी के खिलाफ नहीं उठाया कोई ठोस कदम

 डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड को जन आन्दोलनों की धरती भी कहा जा सकता है, उत्तराखंड के लोग अपने जल-जंगल, जमीन और बुनियादी हक-हकूकों के लिये और उनकी रक्षा के लिये हमेशा से ही जागरुक रहे हैं। चाहे 1921 का कुली बेगार आन्दोलन, 1930 का तिलाड़ी आन्दोलन हो या 1974 का चिपको आन्दोलन, या 1984 का नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव का समय नजदीक आ गया और नेता चुनावी नशे में हैं। जनप्रतिनिधि युवाओं को नशे के दलदल में देख रहे हैं मगर बेफिक्र हैं। इधर, सरकार का पांच साल का कार्यकाल पूरा होने को है। तीन सीएम बदल गए लेकिन नशाखोरी के खिलाफ ठोस कुछ भी नहीं दिखा। शराब, गांजा, चरस, स्मैक, हेरोइन आदि घातक नशे का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। इसमें झुग्गी-झोपडिय़ों से लेकर पाश कालोनियों तक के बच्चे शामिल हैं। मानकों को धता बताते हुए शहरों में खुले नशामुक्ति केंद्र इसकी तस्दीक करते हैं। बेसुध सिस्टम के पास इनके आंकड़े तक नहीं। देहरादून में डीएम ने एसओपी तो बना ली, लेकिन बाकी जिलों में व्यवस्था बेहोश है। लोग यही कह रहे हैं कि अपना उत्तराखंड भी अब उड़ता पंजाब की तरह हो गया। अब सीएम ने हर जिले में नशामुक्ति केंद्र खोलने की घोषणा की है। जबकि तीन साल से डा. सुशीला तिवारी अस्पताल में नशामुक्ति केंद्र खोलने की फाइल गायब में है। सरकारी सिस्टम को हर कोई कोस रहा है। कोसने वालों में वो लोग भी शामिल हैं, जो खुद अव्यवस्था के लिए जिम्मेदार हैं। बात करते हैं राजकीय मेडिकल कालेज अल्मोड़ा की। जिसके जिम्मे अब बेस अस्पताल भी है। इससे पर्वतीय क्षेत्र के लोगों की उम्मीदें तब और बढ़ गई थी, जब हल्द्वानी से 25 वरिष्ठ डाक्टरों का तबादला अल्मोड़ा किया गया। कालेज प्रशासन ने जैसे-तैसे डाक्टरों की संख्या 47 कर दी थी। फिर भी मेडिकल कालेज को न ही नेशनल मेडिकल कमीशन से एमबीबीएस पाठ्यक्रम के लिए मान्यता मिली और न ही वहां पर बेहतर इलाज मिल पा रहा है। यह घोर विडंबना है। तीन दिन पहले सांस की बीमारी के इलाज के लिए स्वजन पांच साल के बच्चे को बेस अस्पताल ले गए थे, लेकिन उसे हल्द्वानी सुशीला तिवारी अस्पताल ही रेफर कर दिया। जब यही करना था तो कालेज व अस्पताल बनने का क्या लाभ? चुनाव जीतना है। इसके लिए कुछ भी करना पड़े, करेंगे। अन्य राजनीतिक दलों के साथ भाजपा ने भी यही रणनीति अपना ली है। विपक्षी दलों ने भी सपने दिखाने हैं, ताकि जनता अपने पक्ष में आए। सरकार को जनहित के निर्णय लेने हैं, जिससे कि एंटी इनकंबेंसी का माहौल न बने। इसी के साथ ही सरकार ने पांच साल से स्वास्थ्य बीमा को लेकर परेशान आंदोलनरत कर्मचारियों व पेंशनरों को लाभ देने की कोशिश है। सेंट्रल गवर्नमेंट हेल्थ स्कीम व एम्स की दरों में इलाज की सुविधा के आदेश कर दिए हैं। इससे राज्य के ढाई लाख कर्मचारियों व पेंशनरों को लाभ मिलेगा। अब यह देखना है कि इस लाभ को दिलाने के लिए सरकार कम समय में निजी अस्पतालों से किस तरह का करार करती है। क्योंकि आयुष्मान योजना से अभी चंद अस्पताल ही जुड़े हैं। ये केंद्र सरकारी की निगरानी में चलेंगे। वर्तमान में हर जिले में बड़ी संख्या में नशा मुक्ति केंद्र तो खुले हुए हैं, लेकिन इनका नियंत्रण अभी किसी भी विभाग के पास नहीं हैं। मनमाने ढंग से खोले गए नशा मुक्ति केंद्रों में मारपीट, दुष्कर्म व नशे के साधनों की आपूर्ति जैसी घटनाएं बढ़ी हैं। वहीं, कई नशा मुक्ति केंद्र ऐसे हैं, जहां पर नशा छोड़ने के लिए आने वाले युवक-युवतियों के साथ गलत व्यवहार किया किया गया। जिसके कारण वह अपनी जान जोखिम में डालकर केंद्र से ही फरार होने को विवश हो गए।अधिकतर नशा मुक्ति केंद्र नियमों का पालन नहीं करते, लेकिन इसके बावजूद इन पर कोई भी विभाग शिकंजा नहीं कस पा रहा है। पुलिस, जिला प्रशासन, समाज कल्याण विभाग और स्वास्थ्य विभाग केंद्रों की जिम्मेदारी अब तक एक दूसरे पर डाल रहे हैं। अब मुख्यमंत्री की घोषणा के अनुरूप सरकारी स्तर पर देहरादून व हल्द्वानी में खोले जाने वाले नशा मुक्ति केंद्र पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में रहेंगे। इनके माध्यम से नशा मुक्ति केंद्रों की गाइडलाइन भी स्पष्ट हो पाएगी और निजी नशामुक्ति केंद्रों के लिए भी मानक नहीं तय पाएं है।  राज्य बनने के 20 साल बाद भी नशा मुक्ति केंद्रों को लेकर कोई नीति सरकार नहीं बना पाई है. इसके चलते कोई भी व्यक्ति नशा मुक्ति केंद्र खोल देता है और नशा छुड़ाने के नाम पर कारोबार शुरु कर देता है. समाज कल्याण विभाग के निदेशक विनोद गिरी खुद स्वीकार कर रहे हैं कि चार नशा मुक्ति केंद्रों के अलावा सब अवैध रूप से काम कर रहे हैं लेकिन इसके बावजूद हैरानी की बात ये है कि कार्रवाई के नाम पर समाज कल्याण का रिकॉर्ड शून्य है. नशा मुक्ति केंद्र को चलाने के लिए भारत सरकार के सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय से मान्यता ज़रूरी है. साथ ही राज्य के समाज कल्याण विभाग में रजिस्ट्रेशन होना चाहिए. उत्तराखंड में ऐसे सिर्फ़ चार नशा मुक्ति केंद्र हैं जो इन मानकों को पूरा करते हैं. इनमें एक हल्द्वानी, दो पिथौरागढ़ और एक हरिद्वार में हैं. इनके अलावा 15 से ज्यादा नशामुक्ति केंद्र राज्य में चल रहे हैं, जो पूरी तरह से अवैध हैं.नशा मुक्ति केंद्र तरह-तरह के नशे छुड़ाने का दावा करते हैं जिनमें शराब से लेकर स्मैक, चरस, गांजा, कोकीन, इंजेक्शन और दूसरी तरह के नशे शामिल हैं.नशा मुक्ति केंद्रों के लिए नीति बनाने का काम समाज कल्याण विभाग का है लेकिन इस विभाग के मंत्री से लेकर निदेशक तक सोए हुए हैं.नीति न होने की स्थिति में उत्तर-प्रदेश के दौर के बने आ रहे नियमों को आम तौर पर उत्तराखंड में भी लागू किया जाता है लेकिन सरकार उस नीति पर भी चलती नहीं दिख रही. हैरानी की बात है कि हल्द्वानी में बैठने वाले समाज कल्याण निदेशक ने अभी तक कोई भी कार्रवाई इन अवैध नशामुक्ति केंद्रों के खिलाफ नहीं की है.