जंगल के संरक्षण में बेपरवाही और मनमानी!

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जंगल के संरक्षण में बेपरवाही और मनमानी!

 

 डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड में बाघों के संरक्षण में उत्तराखंड का योगदान किसी से छिपा नहीं है। कार्बेट टाइगर रिजर्व तो बाघों की प्रमुख सैरगाह है। इसके साथ ही राजाजी टाइगर रिजर्व के एक हिस्से में बाघों का कुनबा फल-फूल रहा है, लेकिन धौलखंड-मोतीचूर के दूसरे हिस्से में वीरानी सा आलम है। हालांकि, धौलखंड-मोतीचूर क्षेत्र में कार्बेट से लाकर दो बाघ छोड़े गए हैं, जबकि एक बाघिन वहां पहले से ही है। बावजूद इसके, विभाग को इस पहल से जो उम्मीदें थीं, वे अभी परवान नहीं चढ़ पाई हैं। इसे देखते हुए अब कार्बेट से तीन और बाघ यहां लाए जाने हैं, जिसके लिए कसरत चल रही है। दो नर व एक मादा बाघ चिि‍ह्नत कर लिए गए हैं और ड्रोन से उनकी निगरानी की जा रही है। जल्द ही इन्हें धौलखंड-मोतीचूर क्षेत्र में लाकर छोड़ा जाएगा। इससे यहां बाघों की दहाड़ तेजी से सुनाई देगी। साथ ही इनका कुनबा बढऩे की भी उम्मीद है।जो फिट है, जंगल में वही जीवित रह सकता है। वन्यजीवों के मामले में तो प्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्‍स राबर्ट डार्विन का सरवाइवल आफ द फिटेस्ट का यह सिद्धांत सटीक बैठता है, लेकिन यहां तो जंगल के रखवाले भी इसी राह पर चलते नजर आते हैं। जंगल और वहां रह रहे वन्यजीवों का संरक्षण करना रखवालों का दायित्व है, लेकिन इसका ये अर्थ कतई नहीं कि वे जो चाहे करें।यदि वे ही नियम-कायदों के साथ ही पर्यावरण, वन्यजीवों आदि की अनदेखी करने लगेंगे तो फिर। यह समझना होगा कि जंगल किसी एक का नहीं, सबका है। इसके संरक्षण में बेपरवाही या मनमानी भारी पड़ सकती है। इस पर गौर किया गया होता तो जंगलों में अतिक्रमण, अवैध निर्माण, शिकार व पेड़ कटान के मामले सुर्खियां न बनते। ऐसे में सवाल तो उठेंगे ही। रखवालों को चाहिए कि वे जंगलराज की परिपाटी को त्यागकर नियमों के दायरे में रहकर कार्य करें। जैवविविधता के मामले में धनी 71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाले उत्तराखंड की वन्यजीव विविधता बेजोड़ है। भौगोलिक विषमताओं के बावजूद यहां के जंगलों में वन्यजीवों का अच्छा-खासा संसार बसता है तो पङ्क्षरदों की देशभर में पाई जाने वाली आधी से अधिक प्रजातियां यहां चिह्नित हैं। तितलियों और मौथ की वन क्षेत्रों में बड़ी तादाद है, जो समृद्ध जैवविविधता को दर्शाती है। इन सबको यदि प्रकृति से छेड़छाड़ किए बगैर ईको टूरिज्म से जोड़ दिया जाए तो इससे रोजगार के अवसर भी सृजित होंगे। शीतकाल को ही लें तो विंटर टूरिज्म के लिए यहां परिस्थितियां मुफीद हैं। इसे देखते हुए पूर्व में शीतकाल में बर्ड वाचिंग कैंप, स्नो लेपर्ड टूर जैसे आयोजनों की योजना बनी, मगर ये ठीक से धरातल पर नहीं उतर पाईं। हालांकि, गत वर्ष कोरोना का संकट भी था, मगर इस बार परिस्थितियां अनुकूल हैं। ऐसे में विंटर टूरिज्म को लेकर गंभीरता से कदम उठाने की दरकार है। उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हिम तेंदुओं (स्नो लेपर्ड) की अच्छी-खासी संख्या है। वहां लगे कैमरा ट्रैप में अक्सर कैद होने वाली तस्वीरें इसकी तस्दीक करती हैं। बावजूद इसके अभी तक ये जानकारी नहीं है कि यहां हिम तेंदुओं की वास्तविक संख्या है कितनी। पूर्व में सिक्योर हिमालय परियोजना के तहत हिम तेंदुओं की गणना का निश्चय किया गया। इसका प्रोटोकाल भी तैयार हुआ और फिर टीमों ने हिम तेंदुआ संभावित स्थल भी चिह्नित किए, लेकिन गणना का कार्य शुरू होने में इंतजार है। पिछले साल से कोराना संकट इस राह में बाधक बना हुआ है तो अब शीतकाल में उच्च हिमालयी क्षेत्रों में होने वाली बर्फबारी। यही नहीं, वन विभाग ने भी प्रदेश में होने वाली बाघ गणना के साथ ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हिम तेंदुओं का आकलन कराने का निश्चय किया है। अब देखने वाली बात ये होगी कि आखिर यह पहल कब परवान चढ़ती है। उत्तराखंड को जन आन्दोलनों की धरती भी कहा जा सकता है, उत्तराखंड के लोग अपने जल-जंगल, जमीन और बुनियादी हक-हकूकों के लिये और उनकी रक्षा के लिये हमेशा से ही जागरुक रहे हैं।