चारधाम परियोजना में अपनाए संवेदनशील हिमालय के अनुकूल हो
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
चारधाम ऑलवेदर रोड परियोजना के निर्माण का रास्ता सुप्रीम कोर्ट पर साफ होने के बाद इसके नफा-नुकसान को लेकर भी आकलन शुरू हो गया है। एक तरफ जहां इस परियोजना के सामने सड़कों की चौड़ाई को लेकर आई अड़चन के दूर होने के बाद काम में तेजी आने और परियोजना के समय से पूरा होने की बात कही जा रही है। वहीं इस तेजी में पर्यावरण को होने वाले नुकसान पर भी गहरी चिंता जताई जा रही है। करीब 12 हजार करोड़ रुपये की 889 किमी लंबी ऑलवेदर रोड परियोजना के कामों में अब तेजी आएगी। सुप्रीम कोर्ट की रोक हट जाने के बाद अब ऑलवेदर परियोजना का बचे कार्यों के पूरा होने का रास्ता साफ हो गया है। धार्मिक पर्यटन और सामरिक लिहाज से महत्वपूर्ण यह परियोजना अब समय से पूरी हो पाएगी। बताया जा रहा है कि 2024 के चुनाव से पहले सरकार इस परियोजना को पूरा कर लेना चाहती है। वहीं पर्यावरणविदों की चिंता भी इसी बात को लेकर है कि जल्दबाजी में किए गए निर्माण की कीमत कहीं पर्यावरण को न चुकानी पड़ी। चारधाम परियोजना की हाई पावर कमेटी के सदस्य का कहना है कि हमें ऐसे निर्माण पर ध्यान देना होगा, जो जलवायु परिवर्तन को लेकर संवेदनशील हिमालय के अनुकूल हो। यह स्पष्ट रुप से अब तक देखने में आया है कि चारधाम परियोजना में अपनाए मानकों ने हिमालयी घाटियों और पहाड़ी ढालों को जर्जर और कमजोर बनाया है। कई भूस्खलन जोन पैदा कर दिए हैं। जो आने वाले कई वर्षों तक मुसीबत का सबब बने रहेंगे। पर्यावरणविद् का कहना है कि पूरे विश्व में हिमालय ही सिर्फ पहाड़ नहीं है। यूरोप और विश्व के तमाम देशों में पहाड़ों में सड़कें बनाई जाती हैं। हम सड़कों के निर्माण के विरोधी नहीं हैं। सड़कें विकास का पथ अग्रसर करती हैं, लेकिन इनके निर्माण में दिखाई देने वाली तेजी डराती है। जो पर्यावरण और पूरे पारिस्थितिक तंत्र को चीरते हुए आगे बढ़ती है।डॉ पर्यावरणविद् ने कहा कि विदेशों में निर्माण अवधि से अधिक शोध पर समय दिया जाता है। पर्यावरण के साथ पारिस्थितिकी का भी पूरा ध्यान रखा जाता है। जबकि हमारे यहां निर्माण पर अधिक ध्यान दिया जाता है। यहीं से समस्या का जन्म होता है। ऑलवेदर रोड के निर्माण में भी यही हुआ है। भविष्य की समस्याओं पर ध्यान न देकर निर्माण की गति पर ध्यान ज्यादा दिया जा रहा है। जिससे भूस्खलन और तमाम दूसरी समस्याएं पैदा हो रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने नई कमेटी बनाई है, उम्मीद है कि यह पुरानी कमेटी की अनुशंसा के साथ निर्माण कार्यों पर नजर रखेगी और उसी दिशा में काम आगे बढ़ेगा। ताकि सड़के रूप में विकास का रास्ता भी तैयार हो और हमारा पर्यावरण भी बचा रहे। भूगर्भशास्त्री का कहना है कि हिमालय सबसे नया पर्वत होने के साथ ही सबसे कमजोर भी है। इस इलाके में निर्माण को लेकर काफी संवेदनशीलता बरतनी चाहिए। यहां भूस्खलन के ज्यादातर हादसे सड़कों के साथ ही होते हैं।सड़क का वर्टिकल कर्व भी लैंडस्लाइड को न्योता देता है। इसलिए सड़कों के निर्माण के समय चट्टानों का कटान एक निश्चित ढलान के साथ होना चाहिए। ऐसे में भूस्खलन का खतरा कम रहता है। जहां पर कटाव किया जा रहा है, तुरंत उस कटाव को रिपेयर करने का काम शुरू हो जाना चाहिए। पहाड़ों में प्राकृतिक मानवीय गतिविधि और जलवायु परिवर्तन के कारण पिछले कुछ वर्षों में कई सारे भूस्खलन जोन विकसित हुए हैं। यह जोन विनाश का कारण बनते हैं। आखिर विकास कार्यों की कीमत इंसान को ही चुकानी पड़ती है। ऑल वेदर रोड के निर्माण को लेकर नफा-नुकसान की भी बातें हो रही हैं। आने वाले में परियोजना के डंपिंग जोन स्थानीय लोगों के लिए रोजगार का बेहतर जरिया बनेंगे। सरकार ने इन डंपिंग जोन को विकसित करने की पहले ही कवायद शुरू कर चुकी है। चिह्नित डंपिंग जोन में पर्यटन के लिहाज से विश्वस्तरीय सुविधाएं जुटाई जाएंगी, जिनमें होटल, रेस्टोरेंट्स, रेस्ट हाउस, पार्क, बागवानी, व्यू प्वाइंट इत्यादि विकसित किए जाएंगे। लोनिवि मंत्री की मानें तो इससे सैकड़ों स्थानीय युवाओं को रोजगार मिलेगा। कुल 889 किमी लंबी सड़क परियोजना में 350 डंपिंग जोन विकसित हुए हैं। जिनमें से फिलहाल 54 डंपिंग जोन को योजना विकसित करने के लिए उपयुक्त पाया गया है। इन डंपिंग जोन से 95 हजार दो सौ 44 वर्गमीटर भूमि करीब 125 बीघा विकसित हुई है। ऑलवेदर सड़क के निर्माण के समय से ही पर्यावरणविद इसमें नियमों की अनदेखी और निर्माण के तरीकों पर सवाल उठा रहे है। तमाम विरोधों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने पिछले वर्ष चारधाम प्रोजेक्ट से पर्यावरण और पारिस्थितिकी को हो रहे नुकसान की रिपोर्ट पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी थी। जिसमें पेड़ों के कटान से लेकर अव्यवस्थित तरीके चट्टानों के कटान, डंपिंग जोन और तमाम दूसरी अनियमितताओं पर सवाल उठाए गए थे। सुप्रीम कोर्ट की ओर से उत्तराखंड में निर्माणाधीन ऑलवेदर रोड में चौड़ाई के मानकों में दी गई छूट के विषय में पर्यावरण सचेतक सुरेश भाई का कहना है कि पूर्व में कोर्ट ने गंगोत्री क्षेत्र में सात मीटर चौड़ाई के मानक तय किए थे। जिन्हें अब 10 मीटर कर दिया गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इन मानकों का अक्षरश: पालन किया जाएगा। क्योंकि अभी तक सरकारें पर्यावरण को न्याय नहीं दे पाई हैं। सुरेश भाई का कहना है कि गंगोत्री क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील क्षेत्र है। वर्ष 2017 में उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के प्रतिनिधिमंडल ने जिसमें राधा बहन भी शामिल थीं, केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी से मिलकर सर्वे करने के बाद सड़क चौड़ीकरण के मुद्दे पर 24 पेज की अध्ययन रिपोर्ट सौंपी थी। उस दौरान सड़क की चौड़ाई गंगोत्री क्षेत्र में सात मीटर से अधिक न करने पर सहमती बनी थी।उन्होंने कहा कि मध्य हिमालय का यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। इस क्षेत्र में अब करीब सौ किमी लंबाई की सड़क का चौड़ीकरण किया जाना है। पूर्व में मानकों का पालन नहीं किया गया। कई जगह चौड़ीकरण के नाम पर 20 से 25 मीटर तक कटिंग की गई है। क्षेत्र में सुप्रीम कोर्ट और एनजीटी के मानकों की जमकर धज्जियां उड़ाई गई हैं। सड़क का सर्वे करने पर स्पष्ट रूप से ठेकेदारी की मनमानी दिखाई देती है। इस मामले में कमेटी ने नियोजित विकास और पर्यावरण को बचाने वाली रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। अब हमें शंका है कि इस रिपोर्ट के पहलुओं को नजरअंदाज न कर दिया जाए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की ओर से बनाई गई नई कमेटी कामों पर नजर रखेगी और पुरानी कमेटी की सिफारिशों को लागू कराने का काम करेगी। पर्यावरण सचेतक ने बताया कि वर्ष 2018 में सीडीएस जनरल बिपिन रावत गंगोत्री धाम की यात्रा पर आए थे। उस दौरान उन्होंने भी माना था कि सुरक्षा के लिहाज से पर्यावरण से छेड़छाड़ कर सड़क चौड़ीकरण की जरूरत नहीं है। गंगोत्री क्षेत्र के पर्यावरण को बचाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। चारधाम परियोजना हाई पावर कमेटी के सदस्य का कहना है कि न्यायालय ने रक्षा मंत्रालय की याचिका में उठाई गई मांग को स्वीकार कर लिया। न्यायालय ने सड़क के मानक को 5.5 मीटर से बढ़ाकर 10 मीटर चौड़ा करने का निर्णय दिया है। इस लिहाज से परियोजना पुन: अपने मूल स्वरूप में बहाल हो जाएगी। जिसके चलते सभी पर्यावरणीय समस्याओं ने जन्म लिया था। इतिहासकार और पर्यावरणविद का कहना है कि चारधाम राजमार्ग केवल भू-राजनीतिक कारणों से ही नहीं, बल्कि सामरिक दृष्टि से भी देश के लिए बेहद अहम है कि देश की आजादी से पहले अंग्रेजों ने न केवल इसका महत्व समझा बल्कि इस क्षेत्र को खासी तवज्जो भी दी थी 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस क्षेत्र के महत्व को अच्छी तरह से समझ लिया था। ब्रिटिश शासन से पहले भारतीय शासक भी सीमावर्ती गांवों के महत्व को खूब समझते थे। उन्होंने बताया कि यही कारण था कि तब तत्कालीन शासकों ने बदरीनाथ मंदिर की एक शाखा पश्चिमी तिब्बत क्षेत्र थोलिंग मठ में भी स्थापित की थी। बदरीनाथ के प्राचीन रिकॉर्ड भी इस बाद की पुष्टि करते हैं।तब रूस साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इसी रास्ते भारत में दाखिल होना चाहता था लेकिन उससे पहले ही वर्ष 1854 में यूरोप में क्रीमिया का युद्ध लड़ा गया जो दो साल तक चला और इसमें इंग्लैंड, तुर्की और फ्रांस ने मिलकर रूस को हरा दिया। प्रो. रावत ने बताया कि तब रूस के भारत में प्रवेश के लिए काला सागर और भूमध्य सागर से होकर जाने वाले परंपरागत मार्गों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इसके चलते रूस लिपुलेख के रास्ते भारत में दाखिल होना चाहता था। इस कारण ब्रिटेन ने इस क्षेत्र के साथ-साथ समूचे उत्तराखंड को विशेष महत्व दिया था वर्ष 1947 में देश आजाद हुआ लेकिन उसके बाद भी तत्कालीन सरकारों ने चारधाम यात्रा मार्ग को तवज्जो नहीं दी। ऑलवेदर रोड परियोजना में हाईवे की चौड़ाई 10 मीटर का सुझाव सही है, लेकिन इस कार्य में हिमालय की संस्कृति व पर्यावरण पर ध्यान रखने की जरूरत है। सड़क चौड़ाई के लिए कटान के दौरान जितना नुकसान होगा, उसकी भरपाई साथ-साथ होनी चाहिए। उन्होंने विकास कार्यों की रूपरेखा 50 वर्ष पहले व 50 वर्ष बाद के हालातों के अध्ययन पर आधार पर बनाने की बात कही है। उत्तराखंड वन विभाग के ब्रॉड एंबेसडर व पर्यावरणविद् का कहना है कि ऑलवेदर रोड परियोजना में हाईवे का मानकों के तहत चौड़ीकरण होना चाहिए। इसके लिए शासन स्तर पर नीति बनाई जाए कि सड़क की चौड़ाई के लिए होने वाले कटान, जिसमें मिट्टी, चट्टान, पेड़-पौधे शामिल हैं, की भरपाई भी साथ-साथ की जाए। कटान से निकलने वाली मिट्टी को गाड़-गदेरों में फेंकने के बजाय उसे चिह्नित स्थानों पर डंप किया जाए।