च्यूरा : जड़ से लेकर पत्ती तक गुणकारी है, जीआइ टैग मिलने से बढ़ा महत्व
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
कुमाऊं के पर्वतीय जिलों खासतौर पर चम्पावत जिले में कल्पवृक्ष के नाम से प्रसिद्ध औषधीय गुणों से भरपूर च्यूरा का पेड़ (बटर ट्री) जड़ से लेकर पत्ती तक लाभदायक है। इसकी औषधीय, धार्मिक एवं बहुपयोगी महत्ता को समझते हुए करीब सवा साल से वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआइ) इस रिसर्च कर रहा है। जिला प्रशासन भी बजौन में इसकी नर्सरी तैयार कर रहा है। जिससे इसका उत्पादन बढ़ाया जा सके। च्यूरा से बनने वाले आयल को भौगोलिक संकेतांक (जीआइ टैग) मिलने से इसकी उपयोगिता और महत्व दोनों और बढ़ गया है।इंडियन बटर ट्री के नाम से जाना जाने वाला च्यूरा काली, सरयू, पूर्वी रामगंगा और गोरी गंगा नदी घाटियों में बहुतायत में पाया जाता है। इसका फल बेहद मीठा होता है। च्यूरा का वनस्पतिक नाम ‘डिप्लोनेमा बुटीरैशिया है। समुद्र तल से तीन हजार फीट की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में इसके पेड़ 12 से 21 मीटर तक लंबे होते हैं। पहाड़ के घाटी वाले क्षेत्रों में इसके फूल खिलने पर शहद का काफी उत्पादन होता है। चम्पावत वन प्रभाग के उप प्रभागीय वनाधिकारी ने बताया कि एफआरआइ की ओर से छीड़ा बीट में एफआरआइ ने प्रयोगशाला और नर्सरी तैयार की है। यहां अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर और चम्पावत जिले में उगने वाले च्यूरा प्रजाति के पौधे रोपे गए हैं।च्यूरा का उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार व जिला प्रशासन की ठोस पहल का अभी इंतजार है। इसके महत्व को देखते हुए काश्तकारों को भी उत्पादन से जोड़ा जा सकता है। अभी तक जनपद में स्थानीय ग्रामीण ही इसकी फल, पत्ती व बीजों का उपयोग अपने लिए करते हैं। च्यूरा आयल का व्यावसायिक उत्पादन भी न के बराबर है। 15 साल में पेड़ फल देने योग्य बनता है।चम्पावत के पोथ, गंगसीर, स्वाला, बडोली, मझेड़ा, च्यूरानी, सिंगदा, अमोड़ी, साल, सल्ली, आमखेत, बगोड़ी, चल्थी, अमौन, सेरा, बंडा, खेत, दियूरी, नगरूघाट, पंचेश्वर, खाईकोट, रीठा, मछियाड़, साल, खटोली, कजिनापुनौला, पदमपुर, थुवामौनी, सेरा, सिन्याड़ी आदि में च्यूरा के दो-चार पेड़ है। एक साथ च्यूरा के पेड़ कम ही जगहों पर हैं।च्यूरा में पर्याप्त औषधीय गुण हैं। इसके तेल की मालिश गठिया रोग के लिए कारगर है। एलर्जी दूर करने की भी यह अचूक दवा है। इसके दाने को सुखाने के बाद पीसकर घी बनाया जाता है। इस घी को भोजन में उपयोग किया जाता है। साथ ही फटे होंठ और त्वचा के सूखेपन को दूर करता है। इसके फलों की गुठली से ही वनस्पति घी और तेल बनता है। इसमें वसा की मात्रा काफी अधिक होने से इससे साबुन भी बनने लगा है। इसकी खली जानवरों के लिए सबसे अधिक पौष्टिक मानी जाती है। पत्ती व खली आदि को जलाकर इसके धुएं से मच्छर भगाए जाते हैं। च्यूरा के पेड़ की लकड़ी नाव बनाने में प्रयुक्त होती है। गृह प्रवेश से लेकर अन्य मांगलिक कार्यों में च्यूरा के पत्तों की माला बनाकर मकान के चारों तरफ लगाई जाती है।चम्पावत के मुख्य विकास अधिकारी ने बताया कि सरकार की पहल पर च्यूरा का उत्पादन बढ़ाने के लिए बजौन में नर्सरी तैयार की जा रही है। वन विभाग द्वारा च्यूरा की विभिन्न प्रजातियां लगाकर रिसर्च की जा रही है। जिस भी प्रजाति की ग्रोथ अच्छी होगी उसे विस्तार दिया जाएगा। उत्पादन बढ़ेगा तो इससे बनने वाले उत्पादों को बाजार उपलब्ध कराने के लिए प्रयास किए जाएंगे। च्यूरा आयल निकालने की इकाई भी खोलने की कवायद की जाएगी।च्यूरा के बीज से घी और साबुन तैयार करने के लिए प्रसंस्करण यूनिट स्थापित की जा रही है। चिया संस्था के तकनीकी सहयोग से यूनिट में उपकरण लगाने का शुरू हो गया है। साबुन की कीमत 80 रुपये जबकि घी की कीमत लगभग 200 रुपये प्रति किलो होगी। खाने, पूजा के उपयोग और दीया जलाने के लिए इस वनस्पति घी की ब्रांडिंग अलग-अलग की जाएगी।पहाड़ के घाटी वाले क्षेत्रों में इसके जब फूल खिलते हैं तब शहद का काफी उत्पादन होता है। इसकी पत्तियां चारे व भोजन पत्तल के अलावा धार्मिक अनुष्ठानों में उपयोग में लाई जाती है। च्यूरे की खली मोमबत्ती, वेसलीन और कीटनाशक बनाने के काम आती है। यहां के उत्पादों को वैश्विक पहचान मिल रही है। वोकल फार लोकल और स्थानीय उत्पाद के प्रचार-प्रसार में जीआइ टैग महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं