पहाड़ सी चुनौतियां, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पलायन
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पहाड़ी परिस्थिति के अनुरूप सरकार से पहाड़ के विकास की नीति बनाने की मांग की गई। एक राज्य के हिस्से में 20 वर्ष का समय क्या वाकई में वयस्क और परिपक्व होने का पर्याप्त समय है! विकास के पंचवर्षीय वादों पर वोट लुटा देने वाले नागरिक समाज के लिए 20 वर्ष के क्या मायने हैं. इन वर्षों में उन सपनों का क्या हुआ जिनके लिए संघर्ष किया गया था. इन 20 वर्षों में साल-दर-साल पोस्टर से तस्वीर, दीवार से पट्टी ही बदली या जनता की तक़दीर भी बदली है! पृथक और पहाड़ी राज्य का वह सपना इन 20 वर्षों में पूरा हुआ या वर्ष-दर-वर्ष धूमिल होता चला गया! ये सारे प्रश्न, शंकाएं उस राज्य को लेकर हैं जिसका आज स्थापना दिवस है. वह राज्य उत्तराखंड है.अलग उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर कई वर्षों तक चले आंदोलन के बाद 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड को 27वें राज्य के रूप में स्वीकृति मिली वह भी अथक संघर्ष और बलिदान के बाद. पहाड़ के लोगों की आकांक्षाओं व सपनों का यह राज्य राजनीतिक दृष्टि से बदलावकारी तो रहा लेकिन जन उम्मीदों पर बहुत खरा नहीं उतरा.हांफते हुए जवानी की दहलीज तक पहुंचा यह राज्य 20 वर्षों में 11 मुख्यमंत्रियों को देख चुका है. यहां सदन में पहुंचा हर नेता एक ही दौड़ में होता है, वह दौड़ होती है- मुख्यमंत्री की कुर्सी की दौड़. वैसे भी देश के किसी अन्य राज्य को 20 वर्षों में11 मुख्यमंत्री देखने का सौभाग्य तो नहीं ही मिला होगा. इस मामले में उत्तराखंड और वहां की जनता स्वयं पर गर्व कर सकती है. वैसे भी जब नेताओं की दीठ दिल्ली और पीठ पहाड़ की तरफ होगी तो राजधानी पहाड़ों में कैसे हो सकती है. हर सरकार जब विपक्ष में होती है तभी राजधानी का सवाल उठाती है. यह सवाल 20 वर्षों के बाद भी सवाल ही है. बेरोजगारी, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य और प्राकृतिक संसाधनों को लेकर सरकारों की नीतियों पर किए गए सवाल भी 20 वर्षों में गाढ़े ही हुए हैं. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (के आंकड़ों के मुताबिक, उत्तराखंड में बेरोजगारी दर 22.3% है. पलायन का एक बड़ा कारण भी बेरोजगारी ही है.
इन 20 वर्षों में राज्य के सैकड़ों गांवों खाली हो चुके हैं. पृथक राज्य बनने के बाद तकरीबन 32 लाख लोग पलायन कर चुके हैं. सरकारी पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के 1702 गांव भुतहा हो चुके हैं. मतलब एकदम खाली हो चुके हैं और तक़रीबन 1000 गांव ऐसे हैं जहां 100 से कम लोग बचे हैं.पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 50% लोग रोजगार के कारण, 15% शिक्षा के चलते और 8% लचर स्वास्थ्य सुविधा की वजह से पलायन करने को मजबूर हुए. शिक्षा का हाल यह है कि कई गांवों में तो 20- 20 किलोमीटर तक कोई स्कूल ही नहीं है. कहीं स्कूल है तो शिक्षक नहीं हैं. पिछले वर्षों में सरकार ने कई सारे स्कूल बंद भी किए.शिक्षा की स्थिति आज भी 20 वर्ष पुरानी जैसी ही है. चिकित्सा सुविधाओं के मामले में तो राज्य का हाल ही खस्ता है. एक तरफ जहां 30 से 40 किलोमीटर तक कोई सरकारी हॉस्पिटल नहीं है तो वहीं सुविधा के लिहाज से तहसील तक में बने सरकारी हॉस्पिटल में अल्ट्रासाउंड की मशीन और अन्य जांच के उपकरण तक नहीं हैं. अल्मोड़ा जिले के ही 83 गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है.आज भी इलाज के लिए दिल्ली ही आना पड़ता है. प्राकृतिक संसाधनों की लूट के मामले में तो इस राज्य का कोई मुकाबला है ही नहीं. सरकारी तंत्र और भू-माफिया के गठजोड़ ने पूरे पहाड़ को फोड़ डाला है.सड़कों की माया में लाखों पेड़ काट डाले गए हैं. खनन माफियाओं ने नदियों को खत्म कर दिया है. यह सब 20वर्षों की अदला-बदली की सरकारों की देन ही है. यह 20 वर्षों की वह तस्वीर है जो स्थापना दिवस की चकाचौंध में कहीं नजर नहीं आएगी. वहां नजर आएगी तो बस फाइलों में दर्ज विकास की इबारतें जो कभी जनता तक पहुंच ही नहीं पाई. उत्तराखंड में विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान देने वाले पांच लोगों को इस बार नौ नवंबर (राज्य स्थापना दिवस) पर उत्तराखंड गौरव पुरस्कार देकर सम्मानित किया जाएगा। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के मुताबिक नौ नवंबर को आयोजित होने वाले राज्य स्थापना दिवस समारोह को गरिमा के साथ आयोजित करने के निर्देश दिए गए हैं। उत्तर प्रदेश से पृथक पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के लिए सालों तक यहां के लोगों ने आंदोलन किया। जिसमें शहीदों के बलिदान और राज्य आंदोलनकारियों के प्रयास से 9 नवंबर 2000 को पृथक उत्तराखंड राज्य बना। हालांकि तब राज्य का नाम उत्तरांचल रखा गया था। जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसका आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों को लेकर राज्य की जनता आए दिन सड़कों पर रहती है। पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं। लेकिन जब भी सरकार की इच्छा शक्ति हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है। आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है।