दैवीय आपदा नीति के मानकों में संशोधन
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील उत्तराखंड में आपदा प्रभावितों के विस्थापन एवं पुनर्वास के लिए नीति के मानकों में बदलाव की तैयारी है। इसके तहत दैवीय आपदा में घर क्षतिग्रस्त होने पर अनुदान राशि बढ़ाने, एक ही घर में रह रहे एक से ज्यादा परिवारों में सभी को क्षतिपूर्ति देने समेत अन्य कई प्रविधान प्रस्तावित किए गए हैं। सूत्रों के अनुसार विस्थापन एवं पुनर्वास नीति में बदलाव के मद्देनजर वित्त विभाग की राय ली जा रही है। फिर राजस्व और विधि विभाग से राय लेने के बाद प्रस्ताव कैबिनेट में लाया जाएगा।समूचा उत्तराखंड अतिवृष्टि, भूस्खलन, भूकंप, बाढ़ जैसी आपदाओं के लिहाज से संवेदनशील है। हर साल ही प्राकृतिक आपदाएं जनमानस के लिए परेशानी का सबब बनी हुई हैं। स्थिति ये है कि प्रदेशभर में आपदा की दृष्टि से संवेदनशील गांवों की संख्या 397 पहुंच गई है और प्रति वर्ष यह आंकड़ा बढ़ रहा है। उस पर आपदा प्रभावित गांवों के पुनर्वास की रफ्तार बेहद धीमी है। आंकड़ों पर ही गौर करें तो वर्ष 2012 से अब तक 44 गांवों के 1101 परिवारों का ही पुनर्वास हो पाया है। असल में आपदा प्रभावितों को राहत देने के मामले में विस्थापन एवं पुनर्वास नीति-2011 के कुछ मानक भी आड़े आ रहे हैं। मसलन, यदि किसी घर में एक से अधिक परिवार रह रहे हैं तो आपदा प्रभावित श्रेणी में आने पर एक ही परिवार को मुआवजा देने का प्रविधान है। नीति में यह भी उल्लेख है कि उन्हीं परिवारों को आपदा प्रभावितों में शामिल किया जाएगा, जिनका जिक्र वर्ष 2011 की जनगणना में है। जबकि, तब से अब तक परिवारों की संख्या काफी बढ़ गई है। इसके अलावा मानकों में अन्य खामियां भी है, जो विस्थापन एवं पुनर्वास की राह में रोड़ा अटका रहे हैं। इस सबको देखते हुए अब नीति के मानकों में बदलाव की कसरत शुरू की गई हैकुदरती आपदा से प्रभावित परिवारों को राहत की राह आसान हो गई है। सरकार ने पुनर्वास एवं विस्थापन नीति के मानकों में संशोधन किया है। नीति में परिवार की परिभाषा में बदलाव किया गया है। प्राकृतिक आपदा से प्रभावित उस परिवार को अलग इकाई माना जाएगा, जिसका परिवार रजिस्टर में नाम होने के साथ अलग राशन कार्ड है।कुदरती आपदा से प्रभावित परिवारों को राहत देने में पुरानी नीति में कई व्यावहारिक दुश्वारियां आ रही थीं। इसे दूर करने के लिए आयुक्त कुमाऊं मंडल की अध्यक्षता में समिति गठित की गई थी। समिति के सुझावों के आधार पर संशोधित नीति का शासनादेश जारी किया गया है। नई नीति में विस्थापित होने वाले परिवारों को यथासंभव अब उनकी पैतृक भूमि के आसपास ही बसाया जाएगा। इससे वे अपनी खेतीबाड़ी और परंपरागत व्यवसाय सुचारु रूप से कर सकेंगे। इसके अलावा पुनर्वास योजना बनाते समय प्रभावित परिवारों को विश्वास में लिया जाएगा। योजना के हर भाग में उनकी सहभागिता सुनिश्चित की जाएगी। विस्थापित होने वाले परिवारों की सूचनाएं दर्ज की जाएंगी। इसमें परिवारवार सूची, प्रभावित क्षेत्र में स्थायी रूप से निवास व व्यवसाय करने वाले प्रभावित परिवारों के मुखिया का नाम, प्रति परिवार सदस्य संख्या, स्थायी निवासी एवं व्यवसाय, जाति, आधार नंबर, भूमिहीन परिवारों की संख्या, वार्षिक आय और संपत्ति का ब्योरा दर्ज किया जाएगा। जिलाधिकारी की ओर से पुनर्वास के लिए चिह्नित परिवारों की सहमति या असहमति प्राप्त की जाएगी। लिखित सहमति वाले परिवारों के तुरंत पुनर्वास की कार्यवाही शुरू की जाएगी। नई नीति के तहत विस्थापन के लिए सुरक्षित वन भूमि ली जा सकेगी। इसके एवज में असुरक्षित भूमि वन विभाग को हस्तांतरित की जाएगी। विस्थापित किए गए परिवारों के मूल निवास स्थान को असुरक्षित घोषित करने के साथ ही भवनों व अन्य अवसंरचनाओं को गिरा दिया जाएगा। ताकि भविष्य में किसी प्रकार की दुर्घटना की आशंका न रहे। साथ ही चिह्नित असुरक्षित भूमि को नियमानुसार राजस्व या वन विभाग को हस्तांतरित कर दिया जाएगा। यदि संवेदनशील स्थल पर एक घर में एक से अधिक परिवार रहते हैं, उनका परिवार रजिस्टर में नाम अंकित होने के साथ ही राशन कार्ड अलग-अलग है, तो सभी परिवारों को अलग-अलग परिवार मानते हुए वित्तीय सहायता दी जाएगी। इसके अलावा यदि किसी घर में माता-पिता नहीं है, जबकि सिर्फ अवयस्क बच्चे रहते हैं तो उन बच्चों को भी परिवार मानते हुए सबसे बड़े बच्चे को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाएगी। यदि कोई परिवार पांच वर्षों से बाहर रहता है, उसने कहीं और मकान बना लिया है, तो ऐसे परिवार को वित्तीय सहायता नहीं मिलेगी। लेकिन जो परिवार गांव आते-जाते रहते हैं, उन पर यह नियम लागू नहीं होगा। नई पुनर्वास व विस्थापन नीति में कई अहम संशोधन किए गए हैं। अभी तक कई तरह की व्यावहारिक दिक्कतें सामने आ रही थीं, उन्हें दूर किया गया है। अब विस्थापन की स्थिति में यदि कोई व्यक्ति सरकार की ओर से मिलने वाली सहायता से पूर्व अपने संसाधनों से दूसरी जगह घर बना लेता या अपना व्यवसाय जोड़ लेता है, तो उसे बाद में भी सरकार की ओर से मिलने वाली अनुमन्य सहायता मिल सकेगी। नई नीति में इसी तरह के तमाम बदलाव किए गए हैं। इस संबंध में आयुक्त गढ़वाल, कुमाऊं व सभी जिलाधिकारियों को आदेश जारी कर दिए गए हैं। उत्तराखंड आपदा की दृष्टि से बेहद ही संवेदनशील है। यहां बाढ़, भूकंप, आंधी तूफान, आग लगने, बादल फटने, भूस्खलन, सूख जैसे प्राकृतिक आपदाएं हर वर्ष अपना तांडव मचाती आ रही हैं। इन आपदाओं के समय आमजन और सिस्टम चुपचाप विनाश को देखने के लिए विवश होता है। आपदा को लेकर न तो जन जागरूक बन पाया और न तंत्र जवाबदेह। आपदा में जनहानि के न्यूनीकरण, खोज बचाव, राहत बचाव के लिए आपदा प्रबंधन विभाग तो उत्तराखंड में गठित है, लेकिन इसका सुदृढ़ ढांचा अभी तक नहीं बन पाया है।राज्य के जनपदों में तैनात आपदा प्रबंधन के अधिकारियों की जवाबदेही भी सुनिश्चित नहीं की गई है। वह इसलिए कि राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग में एक भी स्थाई कर्मियों की नियुक्ति नहीं की गई है। जिलों में आपदा प्रबंधन अधिकारी से लेकर अन्य कर्मियों का 11-11 माह का अनुबंध होता है, जिनके जिम्मे आपदा प्रबंधन के अलावा अन्य विभागों से संबंधित कार्यों की भी कई जिम्मेदारी है। जिनको ये कर्मी बखूबी निभाते आ रहे हैं, लेकिन इन अधिकारियों और कर्मियों के मन में हमेशा यह संशय रहता है कि आपदा प्रबंधन विभाग से उन्हें कब हटा दें कुछ पता नहीं है। आपदा के दौरान विभागीय जबावदेही सुनिश्चित करने के लिए विभागीय ढांचे में स्थायी कार्मिकों की नियुक्ति, संविदा व आउट सोर्स तीन श्रेणी के कार्मिकों की व्यवस्था की बात कही है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि ऐसे कार्मिकों की भर्ती की जाए, जो अपने–अपने क्षेत्र में दक्ष हों।जरूरत पड़ी तो इसके लिए विभागीय नियमावली में संशोधन किया जाएगा। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी उत्तरकाशी में आपदा प्रबंधन क्षेत्र का दौरा करने के दौरान आपदा प्रबंधन के ढांचे को सुदृढ़ करने की बात कही है। इससे आपदा प्रबंधन विभाग में वर्षों से संविदा पर काम कर रहे कर्मियों को सुरक्षित भविष्य की उम्मीद है। कुदरती आपदा से प्रभावित परिवारों को राहत देने में पुरानी नीति में कई व्यावहारिक दुश्वारियां आ रही थीं। इसे दूर करने के लिए आयुक्त कुमाऊं मंडल की अध्यक्षता में समिति गठित की गई थी।