लोकायुक्त पर आठ साल से उत्तराखंड में ढुलमुल रुख
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में 2002 में पहली निर्वाचित सरकार बनने के साथ ही लोकायुक्त का गठन हुआ. पांच साल तक यानि 2008 तक राज्य के पहले लोकायुक्त की जिम्मेदारी जस्टिस एचएसए रजा ने संभाली. उनके रिटायरमेंट के बाद जस्टिस राज्य के दूसरे लोकायुक्त नियुक्त हुए. उनका कार्यकाल वर्ष 2013 तक रहा. साल 2013 में भाजपा सरकार के दौरान तत्कालीन सीएम ने जब दोबारा सीएम की कुर्सी संभाली तो उन्होंने स्टेट में पावरफुल लोकायुक्त की एक्सरसाइज की. राष्ट्रपति से भी इसे मंजूरी मिल गई थी लेकिन बीच चुनाव हो गए और चुनाव के बाद कांग्रेस सत्ता में आई. कांग्रेस की बहुगुणा सरकार और फिर हरीश रावत सरकार ने कुछ संशोधन के साथ इसे आगे बढ़ाने का प्रयास किया, लेकिन लोकायुक्त को लेकर सफलता नहीं मिल पाई. लोकायुक्त को लेकर कई बार राजभवन से भी फाइल लौटाई गई. ऐसे में तब से लेकर अब तक राज्य में करीब सात साल से नए लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो पाई है.साल 2017 में सरकार के चुनावी मैनिफेस्टो में इस बात का जिक्र था कि सत्ता में आते ही 100 दिन के भीतर लोकायुक्त नियुक्त कर दिया जाएगा लेकिन सत्ता में आते ही बीजेपी ने इसे विधानसभा में पेश भी किया. विपक्ष ने भी इसको अपना समर्थन दिया, लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से सत्ता पक्ष ने इसे प्रवर समिति को भेज दिया. सूत्रों की मानें तो प्रवर समिति भी लोकायुक्त पर अपनी रिपोर्ट महीनों पहले सौंप चुकी है लेकिन ये रिपोर्ट कहां डंप पड़ी है, इसकी जानकारी नहीं है.लोकायुक्त के नाम पर बिना काम के खर्च हो रहे करोड़ों रुपयों के लिए कांग्रेस-बीजेपी सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही है.कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष का कहना है कि बीजेपी ने जनता से वायदा खिलाफी की है. जब सरकार लोकायुक्त बिल सदन में लाई तो कांग्रेस ने इसका समर्थन किया, फिर ऐसा कौन सा कारण था कि सरकार ने खुद ही इसे प्रवर समिति को भेज दिया और अब तो प्रवर समिति अपनी रिपोर्ट भी दे चुकी है. फिर क्यों नहीं लोकायुक्त की नियुक्ति की जा रही है या फिर सरकार लोकायुक्त कार्यालय को ही समाप्त करे, बिना काम धन की बरबादी क्येां की जा रही है राज्य में लोकायुक्त अधिनियम वर्ष 2011 में पारित किया गया था। तत्कालीन भाजपा सरकार के सीएम मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी (रि) इस एक्ट को लाए थे। खंडूड़ी का लोकायुक्त काफी अधिकार संपन्न और सख्त था। वर्ष 2012 में प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के बाद कांग्रेस की सरकार बनी। इस बीच राष्ट्रपति भवन से एक्ट का मसौदा मंजूर होकर आ गया। इसे सरकार को 180 दिन में लागू करना था। कांग्रेस ने खंडूड़ी के एक्ट में परिवर्तन करते हुए नया एक्ट तैयार किया। इससे एक्ट का लोकायुक्त ठंडे बस्ते में चला गया और विपक्ष भी पांच साल तक अपना एक्ट लागू न कर पाई। भले ही उत्तराखंड में लोकायुक्त का गठन आठ साल से अधर में हैं। लेकिन लोकायुक्त के दफ्तर के रखरखाव पर हर साल करोड़ों रुपये का खर्च बादस्तूर जारी है। 24 दिसंबर 2013 से अब तक 13 करोड़ रुपये से अधिक की राशि लोकायुक्त कार्यालय के स्टॉफ के वेतन, रखरखाव आदि पर खर्च हो चुके हैं। यह खर्च अभी भी जारी है। साथ ही 1500 से ज्यादा मामले सुनवाई के लिए भी लंबित हैं।लोकायुक्त पर भाजपा का ढोंग सामने आ चुका है। वर्ष 2017 में लोकायुक्त को पारित कराने के लिए पूरा विपक्ष सहमत था। ऐसा पहली बार हुआ कि विपक्ष तो बिल के समर्थन में थी और सरकार खुद ही उसे प्रवर समिति को भेज रही थी।विपक्ष सत्ता में आने पर लोकायुक्त पर जनभावनाओं के अनुसार निर्णय करेगी। भ्रष्टाचार पर मंत्रियों से लेकर अफसरों तक की लगाम कसने को लोकायुक्त की नियुक्ति का सपना। नौ वर्ष पहले इसने मूर्त रूप लेना शुरू किया। वर्ष 2011 से वर्ष 2018 तक, इसमें तीन संशोधन किए गए, लेकिन लोकायुक्त व्यवस्था अब तक वजूद में नहीं आ पाई है। लोकायुक्त की नियुक्ति की शुरुआत वर्ष 2011 में भाजपा की तत्कालीन सरकार ने की।विधानसभा में उत्तराखंड लोकायुक्त अधिनियम पारित किया गया। सत्ता बदलते ही कांग्रेस सरकार ने इसमें संशोधन किया, जिसमें 180 दिन में लोकायुक्त के गठन के प्रविधान को खत्म कर दिया गया। भाजपा दोबारा सत्ता में आई, तो उसने अधिनियम में फिर संशोधन किया। भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस नीति के वादे के साथ आई सरकार के इस कदम से उम्मीद जगी कि जल्द लोकायुक्त अस्तित्व में आएगा। अफसोस, अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है। यह स्थिति तब है, जब विपक्ष भी इस पर अपनी सहमति दे चुका है। भ्रष्टाचार पर फंदा कसने का एक और कदम। भ्रष्ट व्यक्तियों द्वारा गलत तरीके से अर्जित की गई बेनामी संपत्ति को जब्त करने के लिए पूर्ववर्ती सरकार ने कानून बनाने का निर्णय लिया। तब कहा गया कि टूट के बाद दबाव डालने के लिए यह बात कही गई, लेकिन इस पर आगे कुछ हुआ नहीं। वर्ष 2019 में मौजूदा सरकार ने भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने के लिए इस कानून को वजूद में लाने की बात कही। कहा गया कि जब्त बेनामी संपत्ति का उपयोग स्कूल, अस्पताल व सामुदायिक भवन आदि बनाने के लिए किया जाएगा। केंद्र में वर्ष 2006 में बनाए गए बेनामी लेनदेन (निषेध) संशोधन अधिनियम के हिसाब से प्रदेश में भी कानून बनेगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार के रुख को देखते हुए उम्मीद भी बंधी। प्रदेश में लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर याचिकाकर्ता ने नैनीताल हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी, ताकि प्रदेश में हाईकोर्ट के आदेश पर लोकायुक्त की नियुक्ती हो सके और भ्रष्टाचार पर लगाम लग सके. याचिकाकर्ता का यह भी कहना है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए उनके पास हाईकोर्ट के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. अगर सरकार राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति कर देती तो उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ मामलों में लड़ने की मदद मिल सकेगी.अब इस घोषणा को एक वर्ष पूरा होने वाला है। अभी तक अधिनियम का खाका नहीं खींचा जा सका है तब इंतजार चल रहा है नई सरकार का इंतजार.