पहाड़ों से पलायन बड़ा मुद्दा, लेकिन सुध लेने मुद्दों से सब दूर?

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पहाड़ों से पलायन बड़ा मुद्दा, लेकिन सुध लेने मुद्दों से सब दूर?
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड की 70 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव सिर पर हैं. दो दशक पूर्व राज्य बनने के बाद अब चार महीने बाद यहां के मतदाता पांचवीं बार नई सरकार के लिए वोट डालेंगे. लेकिन जब भी राजनीतिक पार्टियां चुनाव में वोट मांगने जाती हैं तब न तो कोई पर्यावरण की बात करता है और न ही पहाड़ों में हर साल होने वाली आपदाओं से बचाव के लिए कोई चिंता उनकी बातों, भाषणों या घोषणा पत्र में झलकती है.दूसरी ओर मौसमी बदलाव, भयावह आपदाएं और पर्वतीय जनजीवन पर प्रकृति के रौद्र रूप का सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव साल दर साल तीव्र हो रहा है.वास्तव में पहाड़ों में जनता की दुख-तकलीफों को दूर करने के सियासी एजेंडा में पर्यावरण और विकास के सवाल हमेशा से ही विरोधाभासी रहे हैं इसलिए कि राजनीतिक दलों को लगता है कि पर्यावरण बचाने की बातें करेंगे तो विकास के लिए तरसते लोग वोट नहीं देंगे. दरअसल, सत्ता में बने रहने के लिए वोट की राजनीति का सबसे अहम रोल हो गया है. पैसा, हैसियत और बाहुबल के बूते सत्ता तक पहुंचने की जद्दोजहद में पर्यावरण संरक्षण और हिमालय को आपदाओं से बचाने जैसी गंभीर बहस में न तो राजनीतिक लोग और सरकारें पड़ना चाहती हैं और न ही नौकरशाही का इस तरह के मामलों से कोई सरोकार दिखता है.आपदाओं और प्राकृतिक हादसों की इस जद्दोजहद में साधन संपन्न और मैदानी क्षेत्रों में ज़मीन और मकान खरीदने और बनाने की हैसियत वाले लोग ही खुद को सुरक्षित करने की जुगत में सफल हो रहे हैं. इसके उलट साधनहीन, बेबस, बेरोज़गार लोग सुदूर गांवों में जीवन बसर करने को अभिशप्त हैं.बहरहाल इन प्राकृतिक आपदाओं पर दिन तक बहस और खबरें कुछ टीवी चैनलों और अखबारों के पन्नों तक सीमित रहती हैं. और उसके बाद वक्त बीतते ही इन सारी विभीषिकाओं को हमेशा के लिए भुला दिया जाता है. उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग हुए 21 साल हो गए। राज्य विधानसभा का यह पांचवां चुनाव कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों के बीच लड़ा जा रहा है। इसलिए ज्यादातर मौकों पर प्रत्याशियों और जनता के बीच मौजूदगी वर्चुअल ही होगी। एक तरह से भाजपा और कांग्रेस के लिए यह सही मौका कहा जा सकता है। जनता के बीच जाकर संवाद की उनके पास कोई खास वजह इसलिए भी नहीं है, क्योंकि अधिकतर इलाकों में जनता के मुद्दे वही हैं जो वर्षों पहले थे। राज्य में बारी-बारी से दो-दो बार सत्ता में रह चुकी भाजपा और कांग्रेस के प्रचार में जनता के वे मुद्दे नहीं हैं, जिनसे वे रोजाना जूझते हैं।उत्तराखंड में सत्तारूढ़ भाजपा अपने चुनाव प्रचार में डबल इंजन सरकार के विकास कार्यों को सामने ला रही है। प्रचंड बहुमत वाली भाजपा सरकार में तीसरे मुख्यमंत्री हैं। वे केंद्र सरकार की योजनाओं और कार्यों का जिक्र करना नहीं भूलते। रेल और बिजली परियोजनाओं, राष्ट्रीय राजमार्गों, कोविड वैक्सीनेशन, चारधाम विकास परियोजना, सेवारत एवं पूर्व सैनिकों के कल्याण की केंद्रीय योजनाओं पर ज्यादा फोकस किया जा रहा है। इसके विपरीत उत्तराखंड के खासकर पर्वतीय जिलों के स्थानीय मुद्दों, जो पलायन, रोजगार, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन, यातायात, कृषि से जुड़े हैं, पर कोई प्रभावी रोडमैप नहीं दिया जा रहा है। हर वर्ष आपदा से जूझने वाले उत्तराखंड के संवेदनशील गांवों में सुरक्षा प्रबंधन पर बात नहीं हो रही है। बेहतर मूलभूत सुविधाएं देने का था. सपना पहाड़ों पर रोजगार और स्वास्थ्य सुविधाएं देने का भी था. इस सपने को पाने के लिए भरसक प्रयास किए गए. तब जाकर आखिरकार साल 2000 में नए पहाड़ी राज्य के निर्माण हुआ. आज 21 सालों बाद भी उस सपने को पूरा करने के दावे हवा-हवाई होते दिखाई दे रहे हैं.