परिवारवाद को बढ़ावा देने में आगे राष्ट्रीय दल

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परिवारवाद को बढ़ावा देने में आगे राष्ट्रीय दल

 डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

विश्व के लोकतंत्रिक इतिहास में भारत ऐसा देश है, जहां परिवारवाद की जड़ें गहरी धंसी हुई हैं। यहां एक ही परिवार के कई व्यक्ति लंबे समय से प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय राजनीति की धुरी रहे हैं। आजादी के तुरंत बाद शुरू हुई वंशवाद की यह अलोकतानात्रिक परंपरा अब काफी मजबूत हो चुकी है। राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ राज्य और स्थानीय स्तर पर इसकी जड़े इतनी जम चुकी हैं। देश का प्रजातंत्र पर परिवारतंत्र भारी नजर आने लगा है। ऐसे में परिवारतंत्र को कितना लोकतांत्रिक कहा जा सकता है, यह सवाल दिनों दिन बढ़ता जा रहा है जब भी परिवारवाद का मुद्दा उठता है तो सबसे ज्यादा निशाने पर सोनिया गांधी और उनका परिवार होता है। ऐसा इसलिए भी होता है कि उनके और उनके बेटे राहुल पर परिवारवाद का ठप्पा लगाना सबसे आसान है। हालांकि, देश के कुछ प्रबुद्ध नेता भी मानते हैं कि अब परिवारवाद कोई मुद्दा नहीं है। जनता बुद्धिमान है, अपना वोट देकर पार्लियामेन्ट में भेजती है। कल को मेरा बेटा या पोता चुनाव लड़ना चाहेगा तो कौन रोक सकता है, यह जनतंत्र है। इसके विरोध में सवाल यह भी उठता है कि आखिर क्यों प्रणव मुखर्जी या अर्जुन सिंह या फिर शरद पवार जैसों की अनदेखी कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया? इसका जवाब एक और प्रश्न है कि आखिर क्यों लालू यादव ने राबड़ी देवी को और मुलायम सिंह यादव ने आजम खान और शिवपाल यादव के घोर विरोध के बावजूद नौसिखिए अखिलेश यादव को सीएम बनवाया? केवल इसलिए ही न परिवार सत्ता पर काबिज रहे। फिर चाहे वह तात्कालिक रूप से ही क्यों न हो।एक परिवार-एक टिकट, पिता के बाद बेटे को मौका नहीं, महिलाओं की बढ़ती भागीदारी, युवाओं को राजनीति में मौका जैसे राजनीतिक दलों के दावे हवाई जुमले बनकर रह गए। दोनों दलों के प्रत्याशियों की सूचियां जारी हो चुकी हैं। भाजपा ने आठ और कांग्रेस ने पांच महिलाओं को टिकट दिए। युवा मुख्यमंत्री की अगुवाई में चुनाव लड़ने जा रही भाजपा ने भाजयुमो के एक भी नेता पर भरोसा नहीं जताया जबकि कांग्रेस ने युवा कांग्रेस के दो नेताओं को टिकट दिया है। परिवारवाद के मोह में दोनों ही राजनीतिक दल फंसे नजर आ रहे हैं।भारतीय जनता पार्टी इस बार युवा मुख्यमंत्री की अगुवाई में युवा सरकार के दावे के साथ चुनाव मैदान में ताल ठोक चुकी है।  सीटों पर प्रत्याशी घोषित हो चुके हैं। इन प्रत्याशियों में भारतीय जनता युवा मोर्चा के नेताओं पर केंद्रीय नेतृत्व ने भरोसा नहीं जताया। एक भी भाजयुमो नेता को भाजपा ने टिकट नहीं दिया है, जबकि सूबे के मुख्यमंत्री खुद युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष जैसी अहम जिम्मेदारी से आगे बढ़े हैं।महिलाओं के नजरिए से देखें तो कांग्रेस के मुकाबले भाजपा का स्कोर बेहतर रहा है। भाजपा ने आठ महिलाओं को मैदान में उतारा है।भाजपा परिवार में ही राजनीतिक विरासत संभालने की पंरपरा से पीछा नहीं छुड़ा पाई है।परिवारवाद के मामले में कांग्रेस न तो को एक परिवार-एक टिकट के सिद्धांत का पालन कर पाई और न ही परिवारवाद से छुटकारा हासिल कर पाई। मामूली वेतन वाली नौकरी के लिए पहाड़ के अपने गांव को छोड़कर महानगर की ओर जाते युवा। जंगली जानवरों की मुश्किल के चलते खेत बंजर छोड़ते किसान। घर से खेत और खेत से जंगल के फेरे लगाती महिला। पहाड़ के अस्पताल से मैदान के अस्पताल को भागते मरीज। सीमा पर चौड़ी होती सड़कों के बीच गांव की सड़कों के लिए आंदोलन करते ग्रामीण। ज़रा सी बारिश में ढहते पहाड़ और आपदा से दरकते गांवों के बीच पहाड़ के जल-जंगल-ज़मीन का मुद्दा। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के इन सवालों पर इस विधानसभा चुनाव में और उत्तराखंड की राजनीति में लंबी चुप्पी ही सुनाई देती है। पिछले 5 वर्षों में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों उत्तरकाशी, मसूरी, सतपुली में हिंदू-मुस्लिम समुदाय के बीच तनाव की खबरें आईं।मुख्यमंत्री ने पर्वतीय क्षेत्रों में जनसांख्यिकीय बदलाव को लेकर ज़िला प्रशासनों से रिपोर्ट तलब की।रुड़की में हिंदूवादी संगठन के सदस्यों ने चर्च पर हमला किया।हरिद्वार में दिसंबर 2021 में धर्म संसद के नाम पर साधु-संतों की हेट स्पीच सोशल मीडिया पर ख़ूब सुनी गई।देवभूमि और सैन्य प्रदेश के रूप में पहचान रखने वाले उत्तराखंड के लोगों में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की भावना है। जिसका राजनीति लाभ चुनाव में वोटों में तब्दील होता है।भाजपा ने सैन्य धाम बनाने के लिए शहीदों के आंगन की मिट्टी जुटाने की राजनीतिक यात्रा की।दिसंबर में देहरादून आए राहुल गांधी की जनसभा में स्वर्गीय जनरल बिपिन रावत के पोस्टर प्रमुखता से लगाए गए। पूर्व सैनिकों और शहीद सैनिकों के परिजनों को सम्मानित किया गया। बढ़ी महंगाई ने जनता को त्रस्त किया है। नौकरियां न मिलने और भर्ती परीक्षाएं न होने से युवाओं की सरकार के प्रति निराशा झलकती है  राज्य गठन के बाद से ही जल, जंगल और जमीन का दोहन राजनैतिक स्वार्थों के लिए किया गया है। जमीन पर बाहरी लोगों को साजिश के तहत अधिकार दिया जा रहा है, जिससे उत्तराखंड का मूल निवासी अपनी जमीन से महरूम होने की कगार पर आ रहा है। उक्रांद के कार्यकारी केंद्रीय अध्यक्ष ने को संबोधित करते हुए कहा कि राष्ट्रीय दलों ने धनबल के आधार पर पर्वतीय प्रदेश की राजनीति को दूषित करने का काम किया है। यहां अब चुनाव में स्थानीय मुद्दों के बजाय बाहुबल और धनबल को तरजीह दी जा रही है। आरोप लगाया कि जो चुनाव के दौरान पैसा और शराब बांट रहा है, वही दल सत्ता में आ रहा है। कहा कि दोनों ही राजनैतिक दलों ने बारी-बारी से उत्तराखंड के जल, जंगल, जमीन का दोहन अपने फायदे के लिए किया है। राज्य गठन के दो दशक बाद भी बेरोजगारी, पलायन और मूलभूत सुविधाओं के अभाव के लिए दोनों ही राष्ट्रीय दल दोषी हैं। राज्य आंदोलन के गर्भ से निकले उत्तराखंड क्रांति दल ने प्रदेश की राजनीति में तमाम उतार चढ़ाव देखे हैं। राज्य गठन से पहले एक समय ऐसा भी था तब उक्रांद नेताओं के एक आह्वान पर हजारों उत्तराखंडी सड़कों पर आ खड़े होते थे। राज्य गठन के बाद उक्रांद को इसका फायदा भी मिला। यही कारण भी रहा कि पहले चुनाव में दल के चार प्रत्याशी विधायक के रूप में चुन कर विधानसभा तक पहुंचे।पर्वतीय क्षेत्रों में पार्टी का मत प्रतिशत भी खासा अच्छा रहा। इस कारण उक्रांद को राजनीतिक दल के रूप में मान्यता भी मिली। इसके बाद स्थिति यह बनी कि दल के नेता सत्ता से नजदीकी छोड़ नहीं पाए। इससे दल लगातार गर्त में जाता रहा। तब से कई बार बिखरने के बाद दल ने अब फिर एका की राह पकड़ी है। इस समय दल के सामने सबसे बड़ी चुनौती जनता के बीच खुद को स्थापित करने की है। इस बार उक्रांद के तेवर कुछ बदले हुए भी नजर आ रहे हैं।दल की कमान संभालने के बाद किसी ने किसी बहाने सरकार को निशाने पर रखे हुए हैं। अब 25 जुलाई को पार्टी के स्थापना दिवस पर दल विभिन्न जनमुद्दों पर सरकार के खिलाफ बिगुल फूंकने की तैयारी कर रहा है। फिलहाल दल ने उत्तर प्रदेश के साथ परिसंपत्ति बंटवारे, शराब विरोधी आंदोलन में महिलाओं पर लगे मुकदमों को वापस लेने, किसानों की आत्महत्या, पंचेश्वर बांध व आंदोलनरत बेरोजगार संगठनों की मांगों के समर्थन में प्रदेशव्यापी आंदोलन चलाने की तैयारी की है।इसके लिए बकायदा पदाधिकारियों को जिम्मेदारी तक दी गई है। अब दल के सामने चुनौती इस आंदोलन को सफल बनाने की है ताकि वह फिर से खुद को स्थापित कर सके।