दुर्लभ-जड़ी बूटियों का भंडार होने के बाद भी भेषज प्रदेश नहीं बन सका उत्तराखंड

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दुर्लभजड़ी बूटियों का भंडार होने के बाद भी भेषज प्रदेश नहीं बन सका उत्तराखंड

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड

रतनजोत बोरेजिनेसी  पादप कुल का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण औषधीय पौधा है जिसको अनेक प्रकार की औषधियाँ बनाने तथा भोजन में मसाले के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जो खुद एक संकटग्रस्त पौधा है जिसको अनेक प्रकार की औषधियाँ बनाने तथा भोजन में मसाले के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जंगलों से इसके अत्यधिक खनन के कारण इसका अस्तित्व संकट में आ चुका है इसलिये सरकार ने जंगलों से इसके खनन पर रोक लगा दी है। रतनजोत के अलावा इसे कई अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे-हिमालयन आर्नेबिया, महारंगी, महारंगा, उल्टे भूतकेश, लालजड़ी, अंजनकेशी, रक्तदल और दामिनी बालछड़ आदि इसका सबसे प्रचलित उपयोग सब्जी की करी को लाल रंग प्रदान करने के लिये माना जाता है। इसकी जड़ से लाल रंग का पदार्थ प्राप्त होता है जिसका प्रयोग खाद्य पदार्थों को लाल रंग देने के लिये होता है, जैसे भारत के केरोगन जोश व्यंजन की करी का लाल रंग अक्सर इससे तैयार किया जाता है। इसके अलावा दवाइयों, तेलों, शराब, आदि में भी इसके लाल रंग का इस्तेमाल किया जाता है। कपड़े रंगने के लिये भी इसका प्रयोग किया जाता है। वास्तव में ‘रतनजोत’ नाम इस पौधे की जड़ से निकलने वाले रंग का है लेकिन कभी-कभी पूरे पौधे को भी इसी नाम से पुकारा जाता है। आधुनिक काल में के नामांकन वाला खाद्य रंग जिसे अल्कैनिन भी कहते हैं, इसी से बनता है। परम्परागत उपयोगों के अतिरिक्त बाजार में उपलब्ध अनेक औषधियों में भी एक अवयव के रूप में इसका उपयोग दर्दनिवारक, एंटीफंगल तथा घाव भरने के गुणों के लिये किया जाता है। आधुनिक वैज्ञानिक शोधों के अनुसार भी इसकी जड़ से प्राप्त तेल में घुलनशील लालरंग का पदार्थ जिसे ‘शिकोनिन’ के नाम से जाना जाता है, अनेक औषधीय गुण रखता है। इसके अन्य औषधीय गुणों में पेट के कीड़े निकालने, बुखार उतारने, गले की समस्या, दिल की बीमारी, उत्तेजक, शक्तिवर्धक, खाँसी-निवारक, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने, एंटी-कैंसर तथा एंटी-सेप्टिक गुण शामिल हैं। उत्तरखंड हिमालयी राज्य होने के कारण यहां दुर्लभ जड़ी बूटियों का भंडार है। यही देखते हुए प्रदेश को जड़ी-बूटी बहुल प्रदेश बनाने की योजना बनी। भेषज यानी जड़ी बूटियों के उत्पादन और विपणन के लिए कई संस्थाना भी खुले। पर दुर्भाग्य इसका फायदा उत्पादन करने वाले काश्तकारों को नहीं मिला। यही कारण रहा कि ग्रामीण इस काम को छोड़ रहे हैं।जड़ी बूटी के क्षेत्र में अविभाजित उत्तर प्रदेश में रहने के दौरान से उत्तराखंड राज्य बनने के 20 वर्षों के भीतर का इतिहास बड़ा रोचक है। प्रारंभ में हुए प्रयास जहां धरातल पर थे वहीं वर्तमान प्रयास मात्र कागजी हो चुके हैं। उप्र में रहने के दौरान वर्ष 1949 में पहाड़ के लिए जड़ी बूटी को लाभकारी बताते हुए अलग से जड़ी बूटी विकास योजना बनाई गई थी। इस योजना के तहत सीमांत में उच्च हिमालयी भू भाग वाले विकास खंडों को इसमें शामिल किया गया। प्रत्येक विकास खंड में दो से तीन कर्मचारी तैनात किए गए। जंगलों से मिलने वाली जड़ी-बूटी के लिए ग्रेडिंग अफसर तैनात किए गए। उनको दुर्गम और जंगलों तक जाने के लिए घोड़ा, टेंट आदि की सुविधा उपलब्ध थी। जड़ी बूटी के क्षेत्र में प्रगति को देखते 10 वर्ष बाद 1959 में इसका विस्तार किया गया। इसका नाम जड़ी बूटी भेषज विकास योजना दिया गया। इसमें सीमांत के अलावा अन्य ब्लाकों को भी शामिल किया। विभाग में ड्रग इंस्पेक्टर का पद भी सृजित किया गया, लेकिन किसी की नियुक्ति नहीं हुई। वर्ष 1988 में उप्र सरकार पहाड़ में जड़ी बूटी उत्पादन के लिए एक कदम आगे बढ़ते हुए प्रमुख भेजष संघ उत्तर प्रदेश का पद सृजित किया। रानीखेत में इसका कार्यालय खोला गया। उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आने के बाद लगा संभावनाओं के नए द्वारा खुलेंगे। लेकिन हुआ इसके विपरीत। प्रमुख भेषज संघ कार्यालय रानीखेत से संबद्ध सभी पदों को सहकारिता विभाग में आवंटित कर दिए। भेषज उत्पादन बढ़ने के बजाए घटने लगा। 2007 में भेषज विकास इकाई और सहकारिता विभाग से इसे अलग से पुनर्गठन किया। बाद में जड़ी बूटी शोध संस्थान गोपेश्वर, संगध संस्थान जैसे संस्थाओं को भी इससे जोड़ा गया। जंगलों से जड़ी बूटी संग्रहण के लिए वन विभाग को जिम्मेदारी सौंपी गई। नई वन नीति बनी जो जड़ी बूटी उत्पादन के लिए घातक साबित हो चुकी है। पहले से ही चार विभागों के भंवर जाल में फंसी जड़ी बूटी के लिए अब दो अन्य इकाइयां जुड़ चुकी हैं। संजीवनी की खोज के लिए सरकार ने प्राविधान किया है। उधर आयुष भी इस क्षेत्र में कार्य करने लगा है। वन नीति लागू होने से पूर्व इससे जुड़े बताते हैं कि जब तक जड़ी बूटी का कार्य एक ही विभाग के पास था तब तक जंगलों से यह मिल जाती थी। अब वन विभाग से अनुमति मिलने में इतना लंबा समय लगता है कि तब तक जड़ी बूटी नष्ट हो जाती है। कनालीछीना के धुरौली गांव निवासी भी बताते हैं कि अब इस क्षेत्र में कार्य नहीं के बराबर रह चुका है। गंगोलीहाट के चमडुंगरी गांव निवासी और पिथौरागढ़ के निवासी नवीन पांडेय कहते हैं कि इस क्षेत्र में अब कुछ नहीं रहा। उच्च ह‌िमालयी क्षेत्र से रहस्यमयी ढंग से दुर्लभ जड़ी-बूटी का संसार गायब हो रहा है। ह‌िमालयी क्षेत्र में आ रहे इस बदलाव को देखकर वैज्ञान‌िक भी हैरान हैं। जलवायु परिवर्तन से माहौल में आए बदलाव का प्रभाव वनस्पतियों पर भी है। इसके अलावा मानव हस्तक्षेप से भी वासस्थलों के वातावरण में बदलाव आता है। दुर्लभ हिमालयी औषधीय वनस्पतियों के संरक्षण की अनूठी पहल के बीच जीबी पंत राष्ट्ररीय पर्यावरण शोध संस्थान में विकसित संग्रहालय ने शोधार्थियों के लिए अध्ययन के नए द्वार भी खोले हैं। अब इन औषधीय वनस्पतियों की पहचान करना आसान होगा। शोध छात्र पहले इसी संग्रहालय में उगाए गए पौधों का अध्ययन करेंगे। ताकि उच्च हिमालय में पहुंचने पर वह वनस्पतियों की सटीक पहचान कर सकें। चौतरफा चुनौतियों के बीच जंगली जानवरों के कहर से खेती छोड़ रहे किसानों के लिए यह संग्रहालय आर्थिकी का आधार भी बनेगा। वैज्ञानिकों के अनुसार पर्वतीय किसानों को संग्रहालय का समय समय पर भ्रमण करा उन्हें औषधीय खेती के जरिये खुशहाली लाने को प्रेरित किया जाए. धारचूला की चौदास घाटी में भी विलुप्त होती औषधीय वनस्पतियों का संग्रहालय तैयार कर रहे। बाल छड़ के अलावा लाल जड़ी भी कहा जाता है और इसका इस्तेमाल केवल बालों के लिए नहीं बल्कि बच्चों की मालिश के लिए भी किया जाता है।