वन ग्रामों के ग्रामीणों को आज तक मिला सिर्फ आश्वासन
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
रामनगर का प्राचीन नाम महाभारत काल के उत्तरी पंचार की राजधानी “अहचत्तु” था। रामनगर शहर की स्थापना 1856-1884 में “कमिश्नर एच रामसे” द्वारा की गई थी। ब्रिटिश शासन के दौरान रामनगर में कुछ चाय बागान थे लेकिन बाद में उन्हें बंद कर दिया गया था। इस क्षेत्र के निकटतम जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क का नाम शिकारी के संरक्षणवादी “एडवर्ड जेम्स जिम कॉर्बेट” के नाम पर रखा गया है | जिन्होंने जिम कॉर्बेट की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कॉर्बेट नेशनल पार्क भारत का सबसे पुराना राष्ट्रीय उद्यान है , जिसे 1936 में स्थापित किया गया था | जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क ने भारत और अन्य देशों के कई पर्यटकों को आकर्षित किया है। उत्तराखंड की रामनगर विधानसभा सीट देश भर में सुर्ख़ियों में रही. इस सीट से दिग्गज नारायण दत्त तिवारी सदन में पंहुचते रहे हैं. आजादी के बाद भी जंगलों करीब और जंगलों में बसे ग्रामीण उपेक्षित हैं। राजनीतिक दलों की अनदेखी की वजह से लोग आज भी समाज की मुख्य धारा से कोसो दूर हैं। सत्ता की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल होते आए वन ग्रामों के लोगों के समक्ष फिर से यह मुद्दा जोरशोर से उठेगा। इस बार भी राजनीतिक दल यहां के वांशिदों को आश्वासन की घुट्टी पिलाएंगे।रामनगर विधानसभा के अंतर्गत 24 वन ग्राम हैं। इन गांव में करीब 16 सौ वोटर हैं। यहां के ग्रामीण आज भी राजस्व ग्राम के दर्जे के लिए संघर्ष कर रहे हैं। राजस्व का दर्जा नहीं होने से उन्हें उनके गांव में बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा, इंटरनेट की सुविधा तक नहीं मिल पाती है। हर चुनाव में नेता उन्हें सुविधाएं दिलानेे का आश्वासन तो देते हैं। लेकिन सत्ता में आने पर गांव में सुविधाएं देने के लिए कोई सकारात्मक कार्रवाई होती नहीं दिखती है। वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में वन ग्रामों के बहिष्कार की चेतावनी के बाद संसदीय सीट से प्रत्याशी ने रामनगर के वन ग्रामों के लोगों को आश्वासन दिया था कि वे चुनाव जीतकर वन ग्रामों को राजस्व गांव का दर्जा दिलाएंगे। तीरथ सिंह रावत सांसद बनने के बाद उत्तराखंड के सीएम भी बन गए। तब भी वन ग्रामों में रहने वाले लोगों की समस्या का समाधान नहीं हुआ। इस बीच वन ग्रामों में रहने वाले ग्रामीणों ने जुलूस, धरना प्रदर्शन के जरिए मांग भी की, लेकिन स्थिति जस की तस है। 24 गांव के लोग सुविधाओं के अभाव में जीवन जी रहे हैं। सुविधा के नाम पर केवल दो चार गांव में बिजली जरूर मिली है। हर बार नेता राजस्व गांव का दर्जा देने का वायदा करते हैं। वोट लेने के बाद पूरे पांच साल कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं होती है। फिर ग्रामीणों को नेताओं व अधिकारियों के चक्कर काटने पड़ते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भी वन ग्रामों के लिए कार्रवाई करने की बात नेताओं ने कही थीजब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ तो यह माना जाता रहा कि अब नवोदित उत्तराखंड राज्य की राजनीतिक संस्कृति भी अलग होगी, लेकिन यह हुआ नहीं। आज भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश की ही राजनीतिक विरासत ढो रहा है। बस बाहुबल की राजनीतिक संस्कृति से काफी हद तक निजात मिली है, बाकी सारी तिकड़म की राजनीति वहां भी है और यहां भी। मतदाताओं के सामने खड़ी समस्याओं के समाधान से अधिक उनकी भावनाओं के दोहन की फिक्र रही है, लेकिन कुछ नहीं हुआ। वर्तमान सरकारें भी कई बार इस रोड को बनाने के बारे में बोल चुकी थी नतीजतन, मामला लटक गया है.।