लोकतंत्र का उत्सव चुनाव बढ़ी मतदाताओं की जिम्मेदारी

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लोकतंत्र का उत्सव चुनाव बढ़ी मतदाताओं की जिम्मेदारी

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

लोकतंत्र का उत्सव अपने चरम पर है। राजनीतिक कार्यकर्ता से लेकर निर्वाचन मशीनरी तक एक -एक मतदाता तक पहुंच बनाने के प्रयास में हैं। इसी के साथ अपने- अपने जिले के सबसे दुर्गम में बसे मतदाताओं के दर पर भी चुनाव दस्तक दे रहा है। हिन्दुस्तान टीम ने इन सबसे दूरस्थ गांवों का जायजा लिया। यहां के लोगों में मतदान का उत्साह तो है, लेकिन 75 साल के लोकतंत्र में भी पिछड़े ही रहने का मलाल भी है। इन दुर्गम के लोकतांत्रिक पड़ावों में विकास की किरण किस हद तक पहुंची है, लोकतंत्र के उत्सव को लेकर लोगों में कितना उत्साह है, कैसे चल रही हैं निर्वाचन मशीनरी की तैयारियां धारचूला विधानसभा में नामिक मतदान केंद्र की सड़क से दूरी 22 किमी की है। 2400 मीटर की ऊंचाई पर स्थित नामिक कुमांऊ मंडल का सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित केंद्र भी है। यहां ईवीएम मशीन पहुंचाने के लिए भी प्रशासन को घोड़ों का सहारा लेना होगा। कर्मचारियों को भी लगातार 12 घंटे से अधिक पैदल चलना होगा। नामिक गांव में 900 की आबादी है।इसबार यहां 425 मतदाता पंजीकृत हैं, पिछली बार यहां 258 मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। गांव में स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर एक एएनएम सेंटर है, लेकिन नियमित एएनएम की नियुक्ति न होने से बच्चों के टीकाकरण के लिए भी ग्रामीणों को 22 किमी दूर तेजम या फिर मुनस्यारी की दौड़ लगानी पड़ती है। नामिक को उरेड़ा ने बिजली से जोड़ तो दिया है, लेकिन  तकनीकी खराबी के कारण बिजली आपूर्ति ज्यादातर बाधित रहती है। छात्र-छात्राओं को इंटर की पढ़ाई के लिए 26 किमी की दौड़ बिर्थी तक लगानी पड़ती है।  चुनाव की तिथियां तय कर देने के साथ ही देश लोकतंत्र का उत्सव मनाने की दिशा में बढ़ चला है। पिछले आम चुनाव में मतदान के नौ चरणों के मुकाबले इस बार सात चरण घोषित होने से यह तो स्पष्ट होता है कि निर्वाचन आयोग पहले के मुकाबले कुछ और समर्थ हुआ है, लेकिन उसकी कोशिश यही होनी चाहिए कि चुनाव की प्रक्रिया कम से कम लंबी हो। आज के इस तकनीकी युग में अपेक्षाकृत छोटी चुनाव प्रक्रिया के लक्ष्य को हासिल करना कठिन नहीं होना चाहिए। निर्वाचन प्रक्रिया न केवल यथासंभव छोटी होनी चाहिए, बल्कि वह राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों के छल-कपट से मुक्त भी होनी चाहिए। यह सही है कि पहले की तुलना में आज की चुनाव प्रक्रिया कहीं अधिक साफ-सुथरी और भरोसेमंद है, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि वह बेहद खर्चीली होने के साथ ही धनबल से भी दुष्प्रभावित होने लगी है।विडंबना यह है कि चुनाव लड़ने वाले इस आशय का शपथपत्र देकर छुट्टी पा लेते हैं कि उन्होंने तय सीमा के अंदर ही धन खर्च किया। यह विडंबना तब है जब हर राजनीतिक  दल ऐसी किसी जरूरत पर ध्यान ही नहीं देते। यह अच्छा नहीं हुआ कि बीते पांच साल में न तो कोई ठोस राजनीतिक सुधार किया गया और न ही चुनावी सुधार। उत्तराखंड विधानसभा का चुनाव अब मतदान की ओर बढ़ रहा है। 14 फरवरी को सभी दल व निर्दल प्रत्याशियों की किस्मत ईवीएम में कैद हो जाएगी। भाग्य का फैसला दस मार्च को होगा। इस बार प्रदेश की 70 सीटों पर कुल 632 उम्मीदवार मैदान में हैं। खास बात यह है कि राज्य गठन के बाद से हुए हर चुनाव में उम्मीदवारों की संख्या घटी है। बसपा और उक्रांद अब पहले जैसी स्थिति में नहीं है। निर्दलीयों में भी वह दम नहीं दिखता। 2017 में निर्दलीय जीतकर आने वाले दो विधायक अब भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। अब तक हुए चार चुनाव में मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही नजर आया है। इसलिए भी चुनावी मैदान में उतरने वालों की संख्या कम होती जा रही है। 2002, 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव में तीन-तीन निर्दलीय जीतकर आए। 2017 में सिर्फ दो को ही सफलता मिली। बसपा और क्षेत्रीय दल उक्रांद की बात करें तो पहले तीन चुनाव में इन्हें भी जीत मिली थी। 2002 में बसपा को सात, 2007 में आठ और 2012 में तीन सीट मिली। 2017 में खाता भी नहीं खुला। वहीं उक्रांद को 2002 में चार, 2007 में तीन और 2012 में एक सीट मिली थी। 2017 में वह भी खाली हाथ रहा। वहीं, हर चुनाव में निर्दलीय भी दम दिखाने को मैदान में उतरते रहे हैं। मगर मतदाताओं का रुझान समझ आने के बाद इनकी संख्या भी कम होती गई। यही वजह है कि 2002 में निर्दलीय मिलाकर कुल 927, 2007 में 806, 2012 में 848, 2017 में 637 और 2022 में 632 उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में उतरे हैं। 2002, 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव में तीन-तीन निर्दलीय जीतकर आए। 2017 में सिर्फ दो को ही सफलता मिली। बसपा और क्षेत्रीय दल उक्रांद की बात करें तो पहले तीन चुनाव में इन्हें भी जीत मिली थी। 2002 में बसपा को सात, 2007 में आठ और 2012 में तीन सीट मिली। 2017 में खाता भी नहीं खुला। वहीं उक्रांद को 2002 में चार, 2007 में तीन और 2012 में एक सीट मिली थी। 2017 में वह भी खाली हाथ रहा। वहीं, हर चुनाव में निर्दलीय भी दम दिखाने को मैदान में उतरते रहे हैं। मगर मतदाताओं का रुझान समझ आने के बाद इनकी संख्या भी कम होती गई। यही वजह है कि 2002 में निर्दलीय मिलाकर कुल 927, 2007 में 806, 2012 में 848, 2017 में 637 और 2022 में 632 उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में उतरे हैं। इस बार उत्तराखंड में नई पार्टी के तौर पर आप भी जोर-शोर से मैदान में उतरी है। अब परिणाम के बाद ही पार्टी की जमीनी स्थिति का पता चलेगा। आम चुनाव को भले ही लोकतंत्र के उत्सव की संज्ञा दी जाती हो, लेकिन सच यह है कि इस उत्सव में राजनीतिक बैर भाव अपने चरम तक पहुंचता दिखता है। कई बार परस्पर विरोधी राजनीतिक दल-एक दूसरे के प्रति शत्रुवत व्यवहार करते हैं। वे न केवल अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति अशालीन-अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करते हैं, बल्कि उन्हें बदनाम करने और नीचा दिखाने के लिए झूठ और कपट का सहारा भी लेते हैं। इसका कोई औचित्य नहीं कि आम चुनाव के मौके पर राजनीतिक विमर्श रसातल में चला जाए।दुर्भाग्य से राजनीतिक दलों से यह उम्मीद कम ही है कि वे राजनीतिक शुचिता और लोकतांत्रिक मर्यादा का ध्यान रखते हुए चुनाव लड़ेंगे। ऐसे में मतदाताओं की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे अपने मताधिकार का इस्तेमाल सोच-समझकर करें। अपने देश में यह एक बीमारी सी है कि बाकी समय तो हम सब जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद को कोसते हैं, लेकिन वोट देते समय जाति-मजहब को ही महत्व दे देते हैं। जात-पांत के आधार पर राजनीति इसीलिए होती है, क्योंकि एक तबका इसी आधार पर वोट देता है। यह भी किसी से छिपा नहीं कि कई बार राष्ट्रहित के मसलों से अधिक महत्व संकीर्ण स्वार्थ को दे दिया जाता है। चूंकि आम चुनाव देश के भविष्य के साथ राजनीति की भी दशा-दिशा तय करते हैं इसलिए आम मतदाता का इस भाव से लैस होना जरूरी है कि वह वोट के जरिये एक महती काम करने जा रहा है।