उत्तराखंड में हर साल औसतन सुलग रहा 1978 हेक्टेयर वन क्षेत्र, 12 साल में हो चुकी हैं

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उत्तराखंड में हर साल औसतन सुलग रहा 1978 हेक्टेयर वन क्षेत्र, 12 साल में हो चुकी हैं

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड में मौसम भले ही अभी तक साथ दे रहा है, लेकिन वनों को आग से बचाने के दृष्टिकोण से संवेदनशील समय शुरू होने के साथ ही चिंता और चुनौती दोनों बढ़ गए हैं। 12 साल के आंकड़ों को देखें तो इस अवधि में जंगलों में आग की 13574 घटनाएं हुई हैं और हर साल औसतन 1978.25 हेक्टेयर वन क्षेत्र आग की चपेट में आ रहा है। यह सही है कि यहां वनों में आग सतह पर अधिक फैलती है। इससे बड़े पेड़ों को नुकसान भले ही कम पहुंचता हो, लेकिन छोटे पौधों के साथ ही नाना प्रकार की वनस्पतियों, जड़ी-बूटियों और पारिस्थितिकी में अहम योगदान देने वाले असंख्य कीट-पंतगों, सांप-बिच्छू जैसे छोटे जीवों की हानि हो रही है। विषम भूगोल और 71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाला उत्तराखंड देश के पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। राज्य से हर साल मिलने वाली तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक मूल्य की पर्यावरणीय सेवाओं में लगभग एक लाख करोड़ रुपये का योगदान अकेले वनों का है। ऐसे में वनों पर प्रतिवर्ष टूटने वाले आग रूपी संकट से सभी का चिंतित होना स्वाभाविक है। जंगलों की आग के दृष्टिकोण से तस्वीर को देखें तो प्रतिवर्ष ही वन संपदा को इससे भारी नुकसान पहुंच रहा है। अब इसे ग्लोबल वार्मिंग का असर कहें या कुछ और, लेकिन यह भी सच है कि यहां के जंगल कभी भी धधक जा रहे हैं। अमूमन, 15 फरवरी से मानसून के आने तक की अवधि के दौरान तापमान बढ़ने पर जंगल अधिक सुलगते हैं। इसीलिए इस कालखंड को फायर सीजन (अग्निकाल) कहा जाता है। वर्ष 2020 में यह धारणा टूटी है। तब अक्टूबर से जंगलों के धधकने का क्रम शुरू हुआ और पिछले वर्ष मानसून के बरसने तक जारी रहा था। इसे देखते हुए सरकार ने फायर सीजन की अवधि को वर्षभर कर दिया था। तब अक्टूबर से हुई आग की घटनाओं को वर्ष 2021 में शामिल किया गया। इस बार सर्दियों से ही ठीक-ठाक बारिश व बर्फबारी हो रही है। ऐसे में जंगलों की आग के दृष्टिकोण से सुकून जरूर है, लेकिन आने वाले दिनों में पारे के उछाल भरने पर यह चुनौती सिर पर खड़ी है। ऐसे में वन विभाग के अधिकारियों के माथों पर चिंता की लकीरें उभरना स्वाभाविक है। उत्तराखंड का पिछले वर्षों का अनुभव बताता है कि आम लोगों की भागीदारी के बिना जंगलों को आग से बचाना संभव नहीं है। जंगलों में पहले भी आग लगती रही है। आग लगने पर आसपास के गांवों के लोग भारी संख्या में आग बुझाने पहुंचते थे। वे पेड़ों की हरी टहनियों के झाड़ू बनाकर आग बुझाते थे। यह एक सामाजिक कार्य माना जाता था और हर समर्थ परिवार का इसमें शामिल होना आवश्यक होता था। जंगलों की आग बुझाने के इस सामूहिक प्रयास को ’झापा लगाना’ कहा जाता था।जब से राज्य के लोगों को जंगलों में हक-हकूकों से वंचित किया गया, जंगलों से सूखी लकड़ी और चारा पत्ती लाने तक की मनाही कर दी गई, तब से लोग जंगलों से दूर हो गये और साल दर साल ज्यादा जंगल आग की भेंट चढ़़ने लगे। राज्य सरकार ने  लोगों को फिर से जंगलों की सुरक्षा से जोड़ने के नये तरह के प्रयास शुरू किये हैं। इस कड़ी में मुख्यमंत्री ने राज्य में 10 हजार वन प्रहरी भर्ती करने की घोषणा की है। इनमें 5 हजार महिलाएं होंगी कहा जाता था राज्य वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि ऐसी योजना पिछले कुछ सालों से विभाग के पास है। पिछले मुख्यमंत्री ने भी इसकी घोषणा की थी, लेकिन प्रक्रिया घोषणा से आगे नहीं बढ़ी। अब तक यह भी तय नहीं किया गया है कि ये भर्तियां सीजन के लिए की जाएंगी या हमेशा के लिए। वन प्रहरियों को मासिक वेतन दिया जाएगा या फिर केवल उस दिन की मजदूरी मिलेगी, जिस तक काम करेंगे। वेतन अथवा मजदूरी कितनी मिलेगी, यह भी अब तक तय नहीं है। पत्रकार रमेश पहाड़ी जंगलों की आग पर नजदीक से नजर रखने वाले लोगों में शामिल हैं। वे कहते हैं कि वन प्रहरियों के भर्ती तो हो जाएगी। लेकिन, लोगों के मन जंगलों की आग बुझाने की हिम्मत और जज्बा पैदा करने के लिए जंगलों के प्रति अपनत्व की भावना होनी जरूरी है। ऐसा तब तक संभव नहीं जब तक कि जंगलों पर आम लोगों के हक-हकूक उन्हें वापस नहीं दिये जाते। वे राज्य में जंगलों के विस्तार और हर साल लगने वाली आग की घटनाओं की तुलना में 10 हजार वन प्रहरियों को बहुत कम मानते हैं। ताजा मामला हरिद्वार जिले से सामने आया है. यहां गुरुवार शाम को मनसा देवी की पहाड़ी पर अचानक आग लग गई. आग धीरे-धीरे विकराल हो रही है. इस आग की चपेट में राजाजी नेशनल पार्क का बड़ा हिस्सा जल रहा है. मनसा देवी की पहाड़ी में लगी आग को बुझाने के लिए वन विभाग और राजाजी टाइगर रिजर्व प्रशासन की टीमें लगी हुई हैं. लेकिन अभीतक टीम को कामयाबी मिली है. ठंड कम होने के साथ ही वनों में आग का खतरा बढ़ने लगता है, जिसके चलते वन विभाग हर साल 15 फरवरी से 15 जून तक की समयावधि को फायर सीजन मानता है. फायर सीजन में सबसे ज्यादा आग पर्वतीय इलाकों के जंगलों में लगती है.