उत्तराखंड के राज्य पशु पर खतरा मंडरा रहा शिकारियों का

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखण्ड राज्य में आने वाली पंचाचूली पर्वत श्रृंखला के बेस कैंप का इलाका कस्तूरी मृग के शिकार के लिए कुख्यात रहा है। शिकारी बेस कैंप के आसपास आग लगाकर इस निरीह जानवर को घेर कर उसे अपना शिकार बना लेते हैं। बेस कैंप काफी दुरुह क्षेत्र है। जंगली और खतरनाक रास्तों से होकर ही यहां पहुंचा जा सकता है। यहां पहुंचने के लिए करीब दो दिन का समय लगता है। यही जटिलता शिकारियों के लिए इस क्षेत्र को सेफ जोन बना देती है। पंचाचूली क्षेत्र के आसपास इन दिनों धुआं दिखाई दे रहा है। माना जा रहा है कि शीतकाल में जंगलों में शिकारी आग लगा रहे हैं। शिकारियों की सक्रियता की आशंका को लेकर वन विभाग भी सक्रिय हो गया है।उत्तराखंड के तीन पहाड़ी जिलों में वर्ष 2016 में वाइल्ड लाइफ फेडेरेशन ने इनकी गणना कराई थी। तब इनकी संख्या दो हजार के आसपास बताई गई थी। अगली गणना अब 2026 में कराई जाएगी। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ए चमोली और उत्तरकाशी के चीन से लगे इलाकों में ही कस्तूरा मृग की बसासत पाई जाती है। कस्तूरी मृग का शिकार उसकी नाभी में पाई जाने वाली कस्तूरी के लिए किया जाता है। केवल नर कस्तूरा में पाई जाने वाली एक ग्राम कस्तूरी की कीमत खुले बाजार में 25 से 30 हजार रुपये बताई जाती है। कस्तूरी का शिकार इसलिए होता है कि क्योंकि इससे मिलने वाली कस्तूरी की डिमांड देश.विदेश में जबरदस्त है। एक मृग में 10 से 12 ग्राम तक कस्तूरी मिलती है।कस्तूरी का उपयोग दमाए खांसीए श्वास संबंधी रोगए जोड़ों के रोगए बुखारए हृदय संबंधी रोगों के उपचार में बहुतायत में किया जाता है।उत्तराखंड ने इसे अपना राजकीय पशु बनाया है। पिथौरागढ़ के धरमघर में कस्तूरा मृग प्रजनन केंद्र भी बनाया गया है। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय के अधीन संचालित होने वाले इस केंद्र में इस समय कस्तूरा मृगों की संख्या 13 है। पिछले वर्ष यहां तीन कस्तूरा मृगों ने जन्म लिया है। उत्तराखण्ड राज्य में पाए जाने वाले कस्तूरी मृग प्रकृति के सुंदरतम जीवों में से एक हैंण् यह 2.5 हजार मीटर ऊंचे हिम शिखरों में पाया जाता हैण् इसका वैज्ञानिक नाम मास्कस कइसोगास्टर हैण् इसे ष्हिमालयन मस्क डिअरष् के नाम से भी जाना जाता हैण् कस्तूरी मृग अपने अप्रतिम सौन्दर्य के साथ.साथ अपनी नाभि में पायी जाने वाली कस्तूरी के लिए विश्व प्रसिद्ध हैण् यह खुशबूदार कस्तूरी केवल नर मृग में पायी जाती है जो इसके पेट के निचले हिस्से में एक थैली में मौजूद होती हैण् एक नर मृग की थैली में लगभग 30 से 50 ग्राम तक कस्तूरी पाई जाती हैण् इस कस्तूरी का उपयोग औषधि के रूप में दमाए मिर्गीए निमोनिया आदि की दवाएं बनाने में होता हैण् कस्तूरी से बनने वाला इत्र अपनी मदहोश कर देने वाली खुशबू के लिए प्रसिद्ध हैण्कस्तूरी मृग का रंग भूरा होता हैण् इस भूरी त्वचा पर रंगीन धब्बे होते हैंण् इस मृग के सींग नहीं होतेण् नर की बिना बालों वाली पूंछ भी होती हैण् इसके पिछले पैर अगले पैरों की तुलना में लम्बे होते हैंण् इसके जबड़े में दो दांत पीछे की और झुके होते हैंण् इन दांतों का उपयोग यह अपनी सुरक्षा और जड़ी.बूटी को खोदने में करताहैण्कस्तूरीमृग नामक पशु मृगों के कुल खुर वाले अंग्युलेटा की मॉस्कस मॉस्किफ़रस प्रजाति का जुगाली करने वाला स्तनपायी चौपाया हैण् प्रायरू हिमालय पर्वत के 2500 से 3600 मीटर तक की ऊँचाई पर तिब्बतए नेपालए भूटानए चीनए साइबेरियाए कोरिया इत्यादि के पहाड़ों में पाया जाता हैण् शारीरिक बनावट में यह बहुत छोटा होता हैण् नर मृग की नाममात्र की छोटी सी बालविहीन पूँछ हुआ करती हैण् मादा मृग की पूँछ पर घने बाल पाए जाते हैंण् कस्तूरीमृग उच्च हिमालयी पहाड़ी जंगलों की चट्टानों के दर्रों और गुफाओं में रहता हैण् यह अपने निवास स्थान को कड़क ठण्ड के मौसम में भी नहीं त्यागताण् चरने के लिए बहुत लम्बी दूरी तय करने के बाद भी यह लौटकर अपनी गुफा में ही आता हैण् हिमालयी घास.पातए फूलए जड़ेंए झाड़ियाँ और जड़ी.बूटियाँ ही इसका प्रमुख भोजन हैंण् ये एकांतवासी जीव हैंए ऋतुकाल के अलावा सामान्यतः समूह में रहना पसंद नहीं करतेण् कस्तूरी मृग की सूंघने की शक्ति बहुत तेज होती हैण् कस्तूरी मृग तेज गति से दौड़ने वाला जानवर हैए लेकिन दौड़ते समय 50 मीटर दौड़ने के बाद मुड़कर देखने की प्रवृत्ति ही इसके लिये जानलेवा बन जाती हैण् कस्तूरी मृग की प्रजाति संकट में हैण् कस्तूरी मृग के शरीर पर मौजूद कस्तूरी ही उसकी मौत का कारण बनी हुई हैण् पैसा कमाने की हवस में अँधा इंसान उसकी थैली में मौजूद कस्तूरी को निकालकर बेच डालने के लिए उसकी हत्या करने में जरा भी नहीं हिचकिचाताण् उत्तराखण्ड सरकार द्वारा इसके संरक्षण के लिए प्रयास किये जा रहे हैं! हिमालयी क्षेत्रों में हिमपात कम होते ही उत्तराखंड के राज्य पशु कस्तूरी मृग के जीवन पर खतरा शुरू हो गया है। यही वह समय है जब निचली घाटियों में इस दुर्लभ जानवर को शिकारी अपना शिकार बना लेते हैंण्
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।