उत्तराखंड की सदियों पुरानी परंपरा भिटौली

0
510

उत्तराखंड की सदियों पुरानी परंपरा भिटौली

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराकण्ड की लोकसंस्कृति अपने आप में अनोखी और अद्भुत है कई त्योहार आते हैं उत्तराखण्ड में जो अपने साथ ढेर सारी खुशियां भी लाते हैं उन्हीं में से एक खुशियों का त्योहार है भिटोली  उत्तराखंड में हर साल चैत्र में मायके पक्ष से पिता या भाई अपनी बेटी, बहन के लिए भिटौली लेकर उसके ससुराल जाते हैं। पहाड़ी अंचल में आज बहन को चैत्र में भिटौली दी जाती है। सदियों से चली आ रही भिटौली परंपरा का महिलाओं को बेसब्री से इंतजार है।पहाड़ की महिलाओं को समर्पित यह परंपरा महिला के मायके से जुड़ी भावनाओं और संवेदनाओं को बयां करती है। पहाड़ की बदलते स्वरूप, दूरसंचार की उपलब्धता, आवागमन की बढ़ी सुविधाओं के बाद यह परंपरा प्रदेश के दोनों मंडलों के पहाड़ी क्षेत्रों में अभी भी पुराने रूप में जीवित है।आनलाइन भिटौली का रिवाज भी बढ़ने लगा है। भिटौली का मतलब भेंट करना है। उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों, पुराने समय में संसाधनों की कमी, व्यस्त जीवन शैली के कारण विवाहित महिला को वर्षों तक अपने मायके जाने का मौका नहीं मिल पाता था।ऐसे में चैत्र में मनाई जाने वाली भिटौली उन्हें अपने पिता, माता, भाई से मिलने का मौका देती है। भाई अपनी विवाहित बहन के ससुराल जाकर उपहार स्वरूप पकवान लेकर उसके ससुराल पहुंचता है। भाई बहन के इस अटूट प्रेम, मिलन भिटौली है। सदियों पुरानी यह परंपरा आधुनिक युग और भागदौड़ की जिंदगी में भी निभाई जा रही है। इसे चैत्र के पहले दिन फूलदेई से पूरे माहभर तक मनाया जाता है।पुराने समय में भिटौली देने जब भाई बहन के ससुराल जाता था तो बहुत से उपहार और विशेषकर पकवान लेकर जाता था और उसके बहन के घर पहुंचने पर उत्सव सा माहौल होता था।उसके लाए पकवान पूरे गांव में बांटे जाते थे। आजकल भिटौली एक औपचारिकता मात्र रह गई है। आजकल बेटियों और बहनों को भिटौली के रूप में मायके पक्ष से पैसे भेज दिए जाते हैं। पहाड़ी लोकगीतों के माध्यम से आसानी से जाना जा सकता है। स्व० गोपाल बाबू गोस्वामी जी के एक गीत की कुछ पंक्तियां इसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करती है: “ना बासा घुघुती चैत की, याद आ जैछे मैके मैत की।”चैत्र माह के दौरान पहाडों में सामान्यतः खेतीबाड़ी के कामों से भी लोगों को फुरसत रहती है, जिस कारण यह रिवाज अपने नाते-रिश्तेदारो से मिलने जुलने का और उनके हाल-चाल जानने का एक माध्यम बन जाता है।आधुनिकता की दौड़ में ये सब अब धीरे धीरे कम होता जा रहा है, पहले इनके प्रति जिस प्रकार से उत्साह एक ललक होती थी वो अब कम देखने को मिलती है। लेकिन बदलते सामाजिक परिवेश में इनका स्वरूप भी बदल गया है।आज जहां आदमी अत्यधिक व्यस्त है।वही दूर संचार के माध्यमों ने लोगों के बीच की दूरी को घटाया है।जहां पहले महीनों तक बेटियों से बातचीत नहीं हो पाती थी।या उनको देखना भी मुश्किल हो जाता था।आज स्मार्टफोन ,कंप्यूटर के जमाने में आप उनको आसानी से देख सकते हैं।या उनसे आसानी से बात कर सकते हैं वह भी जब चाहो तब।आज पहले की तरह ढेर सारे व्यंजन बनाकर ले जाते हुए लोग बहुत कम दिखाई देंगे।आजकल लोग मिठाई ,वस्त्र या बेटी को जरूरत का कोई उपहार देते हैं।और व्यस्तता के कारण भाई या मां-बाप बहन के घर नहीं जा पाते हैं।तो पैसे भेज देते हैं।आजकल पैसे भेजने के भी कई सारे तरीके हैं। जो बहुत आसान हैं।भिटौली देने के तरीके भले ही बदल गए हो।लेकिन परंपरा आज भी जैसी की तैसी बनी है।  आधुनिकता की चकाचैंध में यह परंपरा अब विलुप्त की ओर है। वर्षों से चैत्र में बहनों और बेटियों को भिटौली देने की परंपरा के पीछे जो सांस्कृतिक परंपरा जुड़ी थी वह लगभग समाप्त होते जा रही है। लेकिन गांव आज भी इन परंपराओं को संरक्षित किये हुये हैं। हर परंपरा हमें आपसी एकता, प्रेम भाव व सौहार्द का पाठ पढ़ाती है। विकास के लिए आधुनिकता भले ही आवश्यक है किन्तु हमें अपनी संस्कृति सभ्यता व परंपराओं को संरक्षित करने की भी नितांत आवश्यकता है।