उत्तराखंड में समन्वित स्वास्थ्य नीति से मजबूत होगा बुनियादी ढांचा!
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करना हमेशा से एक बड़ी चुनौती रही है। प्रदेश के सीमांत जिलों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना और चिकित्सकों को पहुंचाने में प्रदेश में आई सभी सरकारों के माथे पर बल पड़े रहे। हालांकि, बीते पांच सालों में स्वास्थ्य सेवाओं में काफी सुधार देखने को मिला है। इसका एक बड़ा कारण कोरोना संक्रमण से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर इंतजाम किया जाना है। इसका एक बड़ा असर यह हुआ है कि आज प्रदेश के हर जिला अस्पताल में आक्सीजन जेनरेशन प्लांट लगे हुए हैं। अब काफी हद तक चिकित्सकों की कमी भी दूर हो चुकी है। इस समय प्रदेश में 2260 चिकित्सक तैनात हैं। पहले यह संख्या 1100 थी। हालांकि, प्रदेश में अभी भी विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी बनी हुई है और हेली एंबुलेंस सेवा का इंतजार किया जा रहा है। राज्य गठन के बाद से ही प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाएं दुरुस्त करने के प्रयास किए गए। इसमें काम तो हुआ लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाएं पटरी पर नहीं आ पाईं। प्रदेश में आई सरकारों के सामने चिकित्सकों को पहाड़ पर चढ़ाना चुनौती बना रहा। स्थिति यह है कि राज्य गठन के 21 साल बाद भी इलाज के लिए मरीज मैदानी जिलों के अस्पतालों में आते हैं।ऐसा नहीं है कि पिछली सरकारों ने पर्वतीय जिलों में चिकित्सक अथवा संसाधन बढ़ाने के प्रयास नहीं किए लेकिन यहां कोई चिकित्सक टिकता नहीं था। इसका कारण यहां की भौगोलिक स्थिति और संसाधनों का अभाव भी रहा, जिसमें नए चिकित्सक स्वयं को नहीं ढाल पा रहे थे। सरकारें भी इन्हें यहां रोकने में सफल नहीं हो पा रही थीं। इसके लिए सरकार ने मेडिकल कालेज में बांड आधारित शिक्षा व्यवस्था शुरू की मगर इसका भी बहुत अधिक फायदा नहीं मिला। सरकारी योजना के जरिये कम शुल्क पर शिक्षा प्राप्त करने और डिग्री लेने के बाद कई चिकित्सक बांड की शर्तों का उल्लंघन कर निकल गए। इससे सरकार को खासा झटका लगा। इस समस्या के समाधान के लिए कुछ वर्ष पहले सरकार ने डाक्टरों के वेतन में वृद्धि, निवास समेत अन्य सुविधाएं बढ़ाकर इनकी तैनाती की। इसके साथ ही पर्वतीय क्षेत्रों में मेडिकल कालेज खोले जा रहे हैं ताकि मेडिकल कालेजों के अस्पतालों के जरिये स्थानीय जनता को लाभ दिया जा सके। हालांकि अभी भी पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाया जाना है। राज्य में भाजपा सरकार के दौरान तीन नए मेडिकल कालेज को मंजूरी दी गई। इनमें रुद्रपुर, हरिद्वार और पिथौरागढ़ मेडिकल कालेज शामिल हैं। इसके साथ ही ऊधमसिंह नगर में एम्स के सेटेलाइट केंद्र का शिलान्यास प्रधानमंत्री ने किया है। इसी सत्र से अल्मोड़ा मेडिकल कालेज का भी संचालन शुरू हो गया है। इसकी स्वीकृत कांग्रेस शासनकाल में हुई थी। प्रदेश की मौजूदा भाजपा सरकार में पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मोड पर अस्पतालों का संचालन शुरू किया है। विश्व बैंक की सहायता से जिला अस्पताल बौराड़ी, जिला अस्पताल पौड़ी, संयुक्त अस्पताल रामनगर, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पाबौ, सामुदायिक केंद्र बेलेश्वर, देवप्रयाग, घंडियाल, भिकियासैंण और बीरोंखाल को पीपीपी मोड पर संचालित किया जा रहा है। कांग्रेस शासन काल में पीपीपी मोड पर अस्पताल शुरू करने की योजना नहीं बनाई गई थी। प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं में अभी और सुधार किए जाने की जरूरत है। कोविड काल में अस्पताल और उपकरण बढ़ाए गए हैं लेकिन इसके साथ ही चिकित्सक, विशेषज्ञ और लाजिस्टिक सिस्टम मजबूत करने की आवश्यकता है। स्वास्थ्य सेवाओं को ग्राम स्तर तक बढ़ाने की भी जरूरत है। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों को लेकर राज्य की जनता आए दिन सड़कों पर रहती है। पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं। लेकिन जब भी सरकार की इच्छा शक्ति हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है। कैग की रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि सभी हिमालयी राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं की सबसे बुरी हालत उत्तराखंड में है. उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत इतनी खराब है कि मरीजों का दम अस्पताल पहुंचने से पहले ही टूट जाता है. उत्तराखंड का स्वास्थ्य बजट 2018-19 में 188 करोड़ था, 2019-20 में घटाकर मात्र 97 करोड़ कर दिया गया, प्रत्येक आदमी के स्वास्थ्य पर एक साल में मात्र 5.25 पैसे खर्च किए जा रहे हैं. मरीजों को अस्पताल लाने के लिए एंबुलेंस तक उपलब्ध नहीं है. आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। रिपोर्ट ने बताया था कि केन्द्र सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जो मानक तय किए हैं, राज्य में वे भी लागू नहीं हैं। भवन, डॉक्टर, पैरा मेडिकल स्टाफ- सबकी बड़ी कमी है। ‘कैग’ टीम ने 2019-20 में जिला चिकित्सालयों में विशेषज्ञता, डायग्नोस्टिक सुविधाओं, ओपीडी, प्रसूति सेवाओं, रेडियोलॉजी, आपातकालीन सेवाओं आदि की पड़ताल की थी। जब इन संस्थागत सेवाओं का हाल ही बेहाल है तो प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों का क्या हाल होगा और सुदूर गांवों की जनता की स्वास्थ्य जरूरतों की ओर कौन देखता होगा? सांप के काटे के इलाज या चोट लग जाने पर टांके लगवाने के लिए भी जनता को दस से पच्चीस तीस किलोमीटर तक जाना पड़ता है। उत्तराखंड राज्य बने 21 साल हो गए।चंद शहरों- कस्बों को छोड़ दें तो राज्य के हिस्से उजड़ना ही आया है। सैकड़ों गांव भुतहा, यानी निर्जन हो गए हैं। सैकड़ों गांव ऐसे हैं जहां चंद परिवार, कहीं तो दो-चार जन ही बचे हैं। गांवों से पलायन का एक बड़ा कारण स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर संकट है। रोजी-रोटी के लिए होने वाला अस्थायी प्रवास स्थायी पलायन में इसीलिए बदलता जा रहा है। प्रवास के बावजूद जो परिवार अपने गांव आते हैं या बाहरी लोग जो यहां साफ-सुथरी हवा के लिए जमीनें खरीद कर आशियाने बना रहे हैं, वे भी इस तथ्य से भयभीत रहते हैं कि सामान्य इलाज भी उपलब्ध नहीं है।