उत्तराखंड जल संकट सार्थक जल संरक्षण नीति

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उत्तराखंड जल संकट सार्थक जल संरक्षण नीति

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड सरकार ने भी अपनी जल नीति घोषित की है। इसमें वर्षा जल संग्रहण के साथ-साथ पारंपरिक स्रोतों को बचाने का लक्ष्य रखा गया है। राज्य की जल नीति में भूमिगत जल के अलावा बारिश के पानी को संरक्षित करने की बात कही गयी है, परंतु अभी तक के हालातों और अनुभवों को देखते हुए नहीं लगता है कि सरकारी योजनाएं कभी जमीन पर भी साकार हो पाएंगी। राज्य की यह जल नीति यहां उपलब्ध सतही और भूमिगत जल के अलावा हर वर्ष बारिश के रूप में राज्य में गिरने वाले 79,957 मिलियन किलो लीटर पानी को संरक्षित करने की कवायद है। जल नीति में राज्य के 3,550 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले 917 हिमनदों के साथ ही नदियों और प्रवाह तंत्र को प्रदूषण मुक्त करने और लोगों को शुद्ध पेयजल और सीवरेज निकासी सुविधा उपलब्ध कराने का भी प्रावधान किया गया है। जल नीति का मसौदा कहता है कि राज्य में वर्ष के लगभग 100 दिन बारिश होती है और इस दौरान औसतन 1,945 मिमी पानी बरसता है, जबकि राज्य में प्रतिवर्ष आम लोगों, पशुओं, कृषि कार्यों और उद्योगों में कुल वर्षा जल का मात्र 3 प्रतिशत ही इस्तेमाल होता है। हर वर्ष वर्षा जल के रूप में राज्य को मिलने वाली जल राशि पहाड़ी ढलानों से बेकार बह जाती है, जबकि राज्य में कृषि योग्य लगभग 1.55 मिलियन हेक्टेयर भूमि में से मात्र 0.56 मिलियन हेक्टेयर भूमि की ही सिंचाई हो पाती है। राज्य में जल विद्युत क्षमता 27,039 मेगावाट आंकी गई है, जबकि फिलहाल 3,972 मेगावाट जल विद्युत का ही उत्पादन हो पा रहा है। राज्य की जल नीति जल भंडारों का अधिकतम संरक्षण और दोहन करने की ओर इशारा करती है।जल नीति के मसौदे के अनुसार राज्य में स्थित सभी हिमनदों की माॅनीटरिंग की जाएगी और इन्हें प्रदूषण से मुक्त रखने की दिशा में कार्य किया जाएगा। जल स्रोतों को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए कानूनों में जरूरी संशोधन किये जाएंगे। जल संसाधनों के नियोजन और जल संवर्द्धन पर ध्यान दिया जाएगा। कम भूजल वाले क्षेत्रों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग और अन्य उपायों से भूजल स्तर का बढ़ाने के प्रयास किये जाएंगे। जल विद्युत क्षमता का अधिक से अधिक दोहन किया जाएगा, लेकिन इसके पर्यावरणीय पक्षों का भी पूरा ध्यान रखा जाएगा।वर्ष 2025 तक राज्य में अनाज का उत्पादन 2.5 मिलियन टन तक ले जाने के लक्ष्य को पूरा करने के सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किया जाएगा। इसके साथ ही जल संसाधनों के आवंटन में पेयजल और घरेलू उपयोग को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की बात जल नीति में कही गई है। इसके बाद स्वच्छता, पशुधन, सिंचाई, जल विद्युत, वनीकरण, पर्यटन और कृषि आधारित उद्योगों को वरीयता के क्रम में पानी उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया है।राज्य की जल नीति में यह भी प्रावधान किया गया है कि पानी की अधिकता वाले क्षेत्रों से पानी की कमी वाले क्षेत्रों में विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से पानी पहुंचाने पर विचार किया जाएगा, लेकिन परियोजना बनाते समय मानव जीवन, व्यवसाय, पर्यावरण और ईको सिस्टम पर पड़ने वाले प्रभाव का किसी स्वतंत्र संस्था के माध्यम से आकलन करवाया जाएगा। वर्षा जल व अपशिष्ट पानी का फिर से इस्तेमाल करने की दिशा में काम किया जाएगा और योजनाओं की माॅनीटरिंग के लिए सिस्टम बनाया जाएगा। परियोजनाओं के आर्थिक मूल्यांकन में पर्वतीय क्षेत्रों की तीव्र ढलानों, मिट्टी के बहाव, लोगों के परम्परागत अधिकारों, और आदिवासी तथा अन्य वंचित समाज के लोगों पर के हितों को भी ध्यान में रखा जाएगा। इसके अलावा नई परियोजनाएं बनाने के बजाए पहले से चल रही योजनाओं को अधिक कुशलता के साथ संचालित करने को प्राथमिकता देने की बात कही गई है।जल नीति में यह भी प्रावधान किया गया है कि पेयजल आपूर्ति के लिए अधिकृत संस्था को विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार पेयजल उपलब्ध कराने के लिए जिम्मेदार बनाया जाएगा। सार्वजनिक भागीदारी के माध्यम से वर्षा जल संरक्षण की दिशा में काम किया जाएगा। पानी की कमी वाले क्षेत्रों में वर्षा जल, सतही जल और भूजल के इस्तेमाल के वैकल्पिक तरीकों पर काम होगा। राज्य में जल संसाधन प्रबंधन और नियामक आयोग का गठन किया जाएगा।इस आयोग का गठन होने तक ‘उत्तर प्रदेश जल संभरण एवं सीवर व्यवस्था अधिनियम-1975’ के तहत जलापूर्ति और सीवर व्यवस्था का कार्य उत्तराखंड जल संस्थान द्वारा किया जाएगा। जलापूर्ति लाइन पर सीधे मोटर पंप लगाने को इस नीति में दंडनीय अपराध माना गया है और इसके लिए भारी जुर्माना तय किया गया है। मंदिरों, मेलों और अन्य सार्वजनिक व भीड़-भाड़ वाले स्थानों पर वाटर एटीएम की व्यवस्था करने का प्रावधान किया गया है।जल नीति में जल विद्युत उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने के साथ ही लगभग लुप्त हो चुकी परम्परागत पन चक्कियों (घराट) को पुनर्जीवित करने का भी प्रावधान किया गया है। इसके लिए ग्राम पंचायतों, निजी संस्थाओं, गैर सरकारी संगठनों, सरकारी संस्थाओं और बैंकों को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है। मसौदे में यह भी कहा गया है कि जल स्रोतों पर अतिक्रमण करने और पानी के प्रवाह का रास्ता बदलने की किसी भी हालत में अनुमति नहीं दी जाएगी। नहरों, नदियों आदि में कपड़े धोने को हतोत्साहित किया जाएगा। जल स्रोतों के आसपास प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ ‘उत्तराखंड जल प्रबंधन और नियामक अधिनियम-2013’ के तहत सख्त कार्रवाई की जाएगी।यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि राज्य में करीब 2.6 लाख प्राकृतिक जलस्रोत हैं। जलवायु परिवर्तन और अन्य कारणों से करीब 12 हजार स्रोत सूख गए हैं। राज्य में लगभग 90 प्रतिशत जलापूर्ति भी इन्हीं स्रोतों से होती है। 16,973 गांवों में से 594 गांव पेयजल के लिए प्राकृतिक जलस्रोतों पर ही निर्भर हैं। करीब 50 प्रतिशत शहरी क्षेत्र किसी न किसी रूप में जल संकट से जूझ रहा है। नीति आयोग की ओर से जारी वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स-2018 में जल प्रबंधन के मामले में राज्य का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। नीति आयोग के अनुसार राज्य की कोई जल नीति न होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की भारी कमी है और राज्य में वाटर डाटा सेंटर भी नहीं है। प्रधानमंत्री भी आज ‘आत्मनिर्भर’ होने की बात करते हैं। यदि पर्वतीय उत्तराखंड को ‘आत्मनिर्भर’ बनाना है तो उसके लिए सबसे पहला प्रयास जल का संचय कर हर ग्रामीण परिवार तक जल की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। तभी इस ग्रामीण प्रदेश का समेकित विकास संभव है।