उत्तराखंड में देश का पहला मॉस गार्डन
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में नैनीताल जिले के खुर्पाताल में भारत का पहला ‘मॉस गार्डन’ विकसित किया गया है। अधिकारियों ने शनिवार को यह जानकारी दी। मुख्य वन संरक्षक ने बताया कि इस गार्डन को उत्तराखंड वन विभाग की अनुसंधान सलाहकार समिति द्वारा सीएएमपीए योजना के तहत पिछले साल जुलाई में मंजूरी दी गई थी। उन्होंने बताया कि देश के पहले मॉस गार्डन का उद्घाटन प्रसिद्ध जल संरक्षण कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह ने किया। उन्होंने कहा कि मॉस एक तरह की काई होती है जो दीवारों और पेड़ों पर हरे रंग की दिखाई देती है। इसका औषधि में बहुतायत में इस्तेमाल होता है। राज्य वन विभाग की अनुसंधान इकाई के प्रमुख ने कहा कि उद्यान विकसित करने के पीछे मुख्य उद्देश्य ‘मॉस’ और अन्य ब्रायोफाइट्स की विभिन्न प्रजातियों का संरक्षण करना और पर्यावरण में इसके महत्व से लोगों को अवगत कराना है। मॉस गार्डन, खुर्पाताल में मॉस की लगभग 30 विभिन्न प्रजातियां और कुछ अन्य ब्रायोफाइट प्रजातियां हैं। उन्होंने बताया कि यहां पाई जाने वाली दो प्रकार की मॉस प्रजातियां यानी ह्योफिला इन्वोल्टा (सीमेंट मॉस) और प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ (आईयूसीएन) की लाल सूची में शामिल ब्राचिथेलेशियम बुकानानी फिगर है। उन्होंने कहा कि यहां 1.2 किलोमीटर के क्षेत्र में ‘मॉस’ की विभिन्न प्रजातियां हैं जलवायु परिवर्तन, खनन व निर्माण गतिविधियां बढऩे से मास की सैकड़ों प्रजातियों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। मास पृथ्वी पर अरबों साल पुरानी सबसे प्राचीन वनस्पति है, जो सीधे वायुमंडल से नमी सोखती है, जिससे मास या काई की परत जम जाती है तो भूमि पर भू कटाव रुक जाता है। यह नमी का संरक्षण करती है। यह विषाणुरोधी, जीवाणुरोधी, कवकरोधी होती है। काई से दवा बनाने का शोध कार्य चल रहा है। इससे चिडिय़ा घोंसला बनाती है। प्रथम विश्व युद्ध में आयरलैंड ने रूई के स्थान पर मास का उपयोग घायल सैनिकों के उपचार में किया था। दुनिया के अनेक देशों में ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत के रूप में इसका उत्पादन किया जा रहा है। जापान व पोलैंड में भी मास गार्डन बनाए गए हैं। भारत में यह पहला गार्डन है। मास या हरिता पौधों की दुनिया में ब्रायोफाइट््स की एक प्रजाति है। ब्रायोफाइट्स के तीन प्रकार होते हैं। सबसे पहला हिपैटिकऑप्सिडा, एंथोसैरोटॉप्सिडा, ब्रायोप्सिडा। मास ब्रायोप्सिडा के मेंबर होते हैं। इनकी 12 हजार प्रजातियां हैं। यह अपुष्पक पादप हैं। इनमें वास्तविक जड़ों का अभाव रहता है। मास मिट्टी का निर्माण करता है। वर्षा जल को रोकता है। भारत का पहला मास गार्डन (हरिता या काई का बगीचा) शोधार्थियों के ज्ञान अर्जन का प्रमुख केंद्र बनने के साथ ही प्रकृति प्रेमी पर्यटकों व स्कूली बच्चों के आकर्षण का केंद्र बन गया है। अनुसंधान के केंद्र की ओर से यहां मास ट्रेल भी बनाई गई है।नैनीताल से करीब छह किमी दूर कालाढूंगी मार्ग पर लिंगाधार में वन विभाग की अनुसंधान शाखा की ओर से 2019 में मास गार्डन तैयार किया गया था। इसका मकसद मास और अन्य ब्रायोफाइट्स की प्रजातियों के संरक्षण व पर्यावरण में इसके महत्व के बारे में बताना था। तब इस गार्डन में मास की एक दर्जन से अधिक प्रजातियां थीं। अब वन अनुसंधान शाखा के प्रयासों से इस गार्डन में 50 से अधिक प्रजातियों का संरक्षण किया जा रहा है। यहां मास की 28 और लीवरवट की पांच प्रजातियां संरक्षित की गई है। गार्डन में 1.2 किमी लंबी मास ट्रेल भी बनाई गई है, जिसमें इसकी तमाम प्रजातियों को प्रदर्शित करने के साथ ही इसमें उनसे संबंधित जानकारियां भी बताई गई हैं। गार्डन में एक सूचना केंद्र भी बनाया गया है, जिसमें प्रथम विश्व युद्ध की एक पेटिंग लगाई गई है। इस पेंटिंग में घायल सैनिकों के उपचार में मास का इस्तेमाल होते दिखाया गया है। सूचना केंद्र में मास के बने आभूषण विशेष आकर्षण के केंद्र हैं। जापान में इस प्रकार के आभूषण खासे लोकप्रिय हैं, सूचना केंद्र के लिए इसको अनुसंधान केंद्र की जेआरएफ स्कालर ने विकसित किया है। गार्डन में डायनासोर का माडल बनाकर मास के जुरासिक युग से ही पृथ्वी पर मौजूदगी की जानकारी दी गई है। इसके अतिरिक्त मास की प्रजातियों के जीवाणु एवं कीटाणुरोधी गुणों और वायु प्रदूषण की संकेतक प्रजाति के रूप में उनके उपयोग के भी माडल दर्शाए गए हैं। समाचार एएनआइ ने अपने ट्विटर अकाउंट पर ट्वीट किया था, जिसके बाद रूस, जर्मनी, स्वीडन, अमेरिका, अबुधाबी और क्वालालांपुर के प्रमुख मीडिया घरानों ने इसे पूरी कवरेज दी है। इससे पहले फिनलैंड की बायोएकेडमी ने भी जुलाई में वन अनुसंधान केंद्र द्वारा हल्द्वानी में विकसित किए गए बायो डायवर्सिटी पार्क की भी प्रशंसा की थी। विदेशी मीडिया में छाया नैनीताल का मास गार्डन,