स्कूली बच्चों की परिवहन सुविधा और सुरक्षा पर सरकार
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
प्रदेश में कई सरकारी स्कूलों में जरूरी सुविधाओं का अभाव बना है, इसके बावजूद इन स्कूलों के लिए जारी बजट तय समय पर खर्च नहीं हो पाया है। यह स्थिति तब है जबकि इन स्कूलों को निजी से बेहतर किए जाने के लगातार दावे किए जा रहे हैं। स्कूली बच्चों की परिवहन सुविधा और सुरक्षा पर वर्ष 2018 में सरकार को सौंपी गई राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग की रिपोर्ट फाइलों के घेर में ‘गुम’ हो गई। आयोग की रिपोर्ट में जिक्र किया गया था कि उत्तराखंड में 80 प्रतिशत निजी स्कूलों के वाहनों में बच्चों की सुरक्षा को ताक पर रखा जा रहा है।टिप्पणी की गई थी कि ये स्कूली वाहन न सिर्फ बच्चों की जान संकट में डाल रहे, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का भी उल्लंघन कर रहे। इस रिपोर्ट पर न कभी राज्य सरकार ने गौर किया और न ही परिवहन विभाग या प्रशासन ने। उत्तराखंड बाल अधिकार संरक्षण आयोग से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने प्रदेश में निजी स्कूलों के वाहनों में बच्चों की सुविधा और सुरक्षा से जुड़े बिंदुओं पर रिपोर्ट मांगी थी। जिस पर आयोग की टीम ने प्रदेश के सभी जिलों में निजी स्कूलों में निरीक्षण कर जांच की थी। लगभग सभी स्कूलों के वाहनों में बच्चों की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ सामने आया था।आयोग ने राज्य सरकार के साथ ही राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को अपनी रिपोर्ट भेजी थी। इसमें जिक्र था कि प्रदेश के निजी स्कूल बच्चों की सुरक्षा के प्रति गंभीर नहीं है, यह बेहद चिंता का विषय है। आयोग ने मुख्य सचिव को प्रदेश के निजी स्कूलों में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का सख्ती का पालन कराने के आदेश दिए थे, लेकिन यह रिपोर्ट शासन की फाइलों के ढेर से कभी बाहर ही नहीं निकली। सुप्रीम कोर्ट की गाइड-लाइन के अनुसार स्कूली वाहन में पांच से 12 साल तक के बच्चों को एक यात्री पर आधी सवारी माना जाता है। स्कूली वैन में आठ सीट होती हैं। एक सीट चालक की और सात बच्चों की। सात बच्चों का आधा यानी साढ़े तीन बच्चे (यानी चार)। कुल मिलाकर वैन में पांच से 12 साल तक के 11 बच्चे ले जाए जा सकते हैं। इसी तरह बस अगर 34 सीट की है तो उसमें पांच से 12 साल के 50 बच्चे ले जाए सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट की गाइड-लाइन में स्कूली वाहनों में पांच साल तक के बच्चों को मुफ्त ले जाने का प्रविधान है। तय नियम में स्पष्ट है कि ये बच्चे सीट की गिनती में नहीं आते।इसी नियम का फायदा उठाकर वाहन संचालक ओवरलोडिंग करते हैं एवं चेकिंग में पकड़े जाने पर आधे बच्चों की उम्र पांच साल से कम बताते हैं। इतना ही नहीं, कहीं भी पांच साल तक के बच्चों को मुफ्त लाने और ले जाने के नियम का अनुपालन नहीं किया जाता। आटो व विक्रम भी स्कूली बच्चों को ले जा सकते हैं, मगर इनमें दरवाजे होना जरूरी है। खिड़की पर राड या जाली लगानी होती है। साथ ही सीट की तय संख्या का पालन करना अनिवार्य है। जैसे आटो में तीन यात्री के बदले पांच से 12 साल के केवल पांच बच्चे सफर कर सकते हैं।वहीं, विक्रम में छह सवारी के बदले उपरोक्त उम्र के कुल नौ बच्चे ले जाए जा सकते हैं। इस दौरान शर्त यह है कि चालक के बगल में अगली सीट पर कोई नहीं बैठेगा। अगर इन मानकों को आटो-विक्रम पूरा नहीं कर रहे तो यात्रा के दौरान बच्चों के अभिभावकों का साथ होना जरूरी है। उत्तराखंड में भी स्कूली बच्चों की परिवहन सुविधा और सुरक्षा पर सवाल उठ रहे हैं। ऐसे हादसों से उत्तराखंड भी अछूता नहीं है। अभी हाल ही में फरवरी को विकासनगर में सड़क के किनारे निकली पेड़ की टहनी स्कूल बस में घुसने से दो बच्चों की मृत्यु हुई थी। देहरादून में महज 10 प्रतिशत स्कूल या कालेज ही ऐसे हैं, जिनके पास अपनी बसें हैं। जबकि 40 प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं, जो बुकिंग पर सिटी बस और निजी बस लेकर बच्चों को परिवहन सुविधा उपलब्ध कराते हैं। बाकी स्कूलों में बस की सुविधा नहीं है। निजी बस सुविधाओं वाले 40 प्रतिशत स्कूलों को मिलाकर 90 फीसद स्कूल प्रबंधन और इनसे जुड़े अभिभावकों के लिए हाईकोर्ट के आदेश पर सरकार ने एक अगस्त 2018 से यह व्यवस्था की थी कि बच्चे केवल नियमों का पालन कर रहे वाहनों में ही जाएंगे। मगर, अब फिर वही सबकुछ चल रहा जो पहले से चलता आ रहा है। फिटनेस व बीमे के बिना दौड़ रहे स्कूली वाहन न सिर्फ कानून तोड़ रहे बल्कि बच्चों की जान से सीधे खिलवाड़ भी कर रहे हैं। भगवान न करे अगर इन वाहन का हादसा हो जाए तो कानूनन इसमें मुआवजा मिलना भी मुनासिब नहीं। आरटीओ प्रवर्तन देहरादून के बिना पिछले दिनों भी स्कूली वाहन का चेकिंग अभियान चलाकर कार्रवाई की गई। परिवहन विभाग सजग है और नियम तोडऩे वालों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी।