उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का आधा कार्यकाल बीता
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
भले ही पंचायतों के सशक्तीकरण के लाख दावे करें, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही हैं। हाल यह है कि कुमाऊं के पर्वतीय जिलों में 70 ग्राम पंचायतें ऐसी हैं जहां अभी तक प्रधान के चुनाव नहीं हो पाए। जबकि त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का आधा कार्यकाल बीत गया है। बिना प्रधानों के यह ग्राम पंचायतें विकास की दौड़ में पिछड़ती जा रही हैं।महात्मा गांधी ने कहा था भारत की आत्मा गांवों में बसती है और गांवों को पंचायतें मजबूत करती है। इसीलिए दो अक्टूबर 1959 के दिन ही पंचायत राज व्यवस्था लागू की गई थी। इसके बाद से पंचायतों का सशक्त करने का दौर चला। 2010 में राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस की घोषणा हुई। उद्देश्य था कि गांवों में बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर देना, उनको विकास की मुख्यधारा से जोडऩा। लेकिन पर्वतीय जिलों की प्रधान विहीन ग्राम पंचायतें हकीकत खुद बयां कर रही हैं।ग्रामीण क्षेत्रों में गांव की बागडोर ग्राम प्रधान के हाथ होती है। गांव के विकास से लेकर लोगों की समस्या के समाधान के लिए ग्राम सभाओं में प्रधानों का चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। पहाड़ों की भौगोलिक स्थिति में ग्राम सभाओं के विकास और ग्रामीणों की समस्याओं के लिए प्रधान की महत्ता मैदानी क्षेत्रों से अधिक मानी जाती है विधानसभा सत्र के अंतिम दिन राज्य की त्रिस्तरीय पंचायतों में प्रशासकों का कार्यकाल छह माह से अधिक बढ़ाने संबंधी वह विधेयक भी पुनर्विचार के लिए सदन के पटल पर रखा गया, जिसे राजभवन ने विधानसभा को लौटाया था। अगले सत्र में इस पर चर्चा होगी।हरिद्वार जिले में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव समय पर न होने के कारण सरकार ने पंचायतों का कार्यकाल खत्म होने के बाद गत वर्ष 29 मार्च को ग्राम पंचायतों, 16 मई को जिला पंचायत और 10 जून को क्षेत्र पंचायतों में प्रशासक नियुक्त कर दिए थे। पंचायतीराज अधिनियम के अनुसार कार्यकाल खत्म होने से 15 दिन पहले तक चुनाव न होने की स्थिति में पंचायतों में छह माह तक प्रशासक बैठाए जा सकते हैं। जब प्रशासक कार्यकाल में भी चुनाव नहीं हो पाए तो सरकार ने अध्यादेश जारी कर प्रशासकों का कार्यकाल छह माह आगे बढ़ा दिया।साथ ही गत वर्ष दिसंबर में हुए चौथी विधानसभा के अंतिम सत्र में सरकार ने अध्यादेश को पंचायतीराज द्वितीय संशोधन विधेयक के रूप में पेश कर पारित कराया। यह विधेयक मंजूरी के लिए राजभवन भेजा गया, जिसे राज्यपाल ने पुनर्विचार के लिए लौटा दिया था। प्रधान विहीन ग्राम सभाओं में विकास कार्य लटके हुए हैं। हर काम के लिए ग्रामीणों को ब्लाक मुख्यालय के चक्कर काटने पड़ रहे हैं। प्रधानों के बगैर ग्राम सभाओं की जिम्मेदारी सहायक विकास अधिकारी को प्रशासक के रूप में सौंपी गई है। खुली बैठक, बजट आदि की समस्याओं से भी ग्रामीणों का विकास हो पाना संभव नहीं है।