गर्मी के साथ उत्तराखंड में बढ़ीं दावानल की घटनाएं
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में फायर सीजन के शुरुआत यानी 15 फरवरी के बाद डेढ़ महीने तक वन विभाग को ज्यादा चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन अप्रैल शुरू होते ही पारा चढऩे लगा, जिस वजह से जंगलों में बची नमी भी खत्म हो गई। ऐसे में अप्रैल के पहले नौ दिन ही जंगल और अफसरों पर भारी पड़ गए।15 फरवरी से 31 मार्च तक उत्तराखंड के जंगलों में 138 बार आग लगी। लेकिन एक अप्रैल से नौ अप्रैल तक आग लगने की 160 घटनाएं हो चुकी हैं। प्रदेश में आग की घटनाओं का कुल आंकड़ा 298 पहुंच चुका है। इस आग की चपेट में 355.55 हेक्टेयर जंगल आ चुका है। अप्रैल के शुरुआत के साथ पारे में बढ़ोतरी होती गई। ऐसे में जंगलों को नुकसान ज्यादा हुआ। आगे हरियाली को बचाने के लिए महकमे को पूरी ताकत झोंकनी पड़ेगी, वरना स्थिति और बिगड़ेगी। वहीं, फायर सीजन के पहले डेढ़ महीने में 182.52 हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुआ, जबकि अप्रैल के पहले नौ दिन में ही 173.03 हेक्टेयर जंगल जल गया। पर्यावरणीय क्षति का आंकलन अभी तक 12 लाख पार हो चुका है। गढ़वाल के जंगलों में अभी तक 149 बार आग लग चुकी है, जिसकी चपेट में 123.2 हेक्टेयर जंगल आया। वहीं, कुमाऊं में 129 घटनाएं हुईं, जिससे 199.1 हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुआ। कुमाऊं में वन पंचायत वाले जंगल में आग का दायरा बढऩे से यह आंकड़ा बढ़ा। वहीं, वन्यजीव संरक्षण वाले क्षेत्रों में 20 बार आग लगी। 33.25 हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुआ। मौसम विभाग के अनुमान के मुताबिक 13 अप्रैल को बागेश्वर और पिथौरागढ़ में हल्की बारिश की संभावना है। लेकिन उससे पहले गर्मी से कोई राहत नहीं मिलने वाली। 10 से 12 अप्रैल तक सभी जिलों में मौसम शुष्क रहेगा। इससे पहले अधिकतम तापमान में 4-6 डिग्री की बढ़ोतरी हो सकती है। इस स्थिति में जंगलों में आग लगने के मामले बढऩे के साथ उनका फैलाव होने की भी आशंका जताई गई है। लिहाजा, मौसम विभाग ने रविवार को भी जंगलों में आग के मद्देनजर अलर्ट जारी किया है। हर साल उत्तराखंड के जंगलों की आग से निपटना वन महकमे के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. वन विभाग आग से निपटने के लिए रणनीति तो बनाता है, लेकिन दावानल के समय ये रणनीति धरी की धरी रह जाती है. वहीं इस बार मॉनसून में देरी होने की खबरों के चलते में वनाग्नि पर काबू पाने की चुनौतियां विगत वर्षों की तुलना वन विभाग के ऊपर बढ़ती नजर आ रही है. हेक्टेयर वन जलकर राख हो गया. साल 2016 में 4433.75 हेक्टेयर वन संपदा जली पिछले दस सालों में वनाग्नि का आंकड़ों की बात करें तो साल 2012- 2823.89 हेक्टेयर वन आग से धधके, साल 2013 में 384.05 हेक्टेयर वन संपदा आग की भेंट चढ़ी. साल 2014 में 930.33 हेक्टेयर वनों को नुकसान पहुंचा. साल 2015 में 701.61, साल 2017 में 1244.64 हेक्टेयर, साल 2018 में 4480.04 हेक्टेयर, साल 2019 में 2981.55 हेक्टेयर, साल 2020 में 172.69 हेक्टेयर, साल 2021 में 3970 हेक्टेयर, वन संपदा आग की भेंट चढ़ी. आग लगने की घटना के समय इस पर नियंत्रण पाने के लिए वन विभाग के स्टाफ और मैनपावर को पैदल संसाधनों को लेकर पहुंचना पड़ता है. जिसके चलते आग पर काबू पाने में काफी मशक्कत उठानी पड़ती है. हालांकि इसके बावजूद इस बार विगत वर्षों के कड़वे अनुभवों को देखते हुए राज्य के आपदा कंट्रोल रूम पुलिस फायर सर्विस और एसडीआरएफ जैसे दलों से भी तकनीकी सहायता लेकर दुर्गम वनाग्नि घटनाओं के स्थानों पर समय रहते नियंत्रण पाने के लिए अतिरिक्त व्यवस्था बनाई हैं. भारत में वनों के सांस्कृतिक व धार्मिक महत्त्व का आंकलन इसी आधार पर किया जा सकता है कि पेड़ हमारी सभ्यताओं से लेकर आज तक हमारे संस्कारों में पूजे जाते हैं इन्हीं जंगलों के आश्रय स्थल में हमारी सभ्यताओं ने सामाजिक उन्नयन की ओर कूच किया.अथार्त वनों के सानिध्य और मार्गदर्शन में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का उद्भव और विकास हुआ है. कहना ग़लत न होगा कि पृथ्वी पर जीवन के लिए जंगलों का विस्तार और उपस्थिति अपरिहार्य है ताकि हमें स्वच्छ हवा और पानी अनवरत मिलता रहे. जंगल हमारी वन संपदा और धरोहर हैं या यूं कहें जंगल पेड़-पौधे व दुलर्भ वनस्पतियों और पादपों का सघन समूह है जहां वन्य जीवों का बसेरा है जिनमें स्तनधारी,उभयचर,सरीसृप,पक्षी और कीड़े शामिल हैं. उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग अपने दावानल रुप की ओर अग्रसर है जंगल में लगी आग हर साल अमुल्य वन संपदा अथार्त प्राकृतिक आवास और जैव विविधता को भारी क्षति पहुंचाती है. अल्मोड़ा के रवि टम्टा ने एक ऐसी मशीन बनायी है, जो कि बिना पानी के आसानी से आग को बुझा देती है। इलेक्ट्रिक और पेट्रोल दोनों से चलने वाली मशीनों की खासियत यह है कि एक तो इसको एक व्यक्ति आसानी से उपयोग कर सकता है। यह मशीन बहुत कम लागत के साथ कम समय में आग पर काबू पा लेती है। पहाड़ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों में पानी के सहारे आग बुझाने असंभव ही हो जाता है। जिससे छोटी की आग से कभी-कभी हालात बेकाबू भी हो जाते है।इलेक्ट्रिक मशीन का भार लगभग ढाई किलोग्राम, जबकि पेट्रोल से चलने वाली मशीन का भार साढ़े चार किलोग्राम है। जिसको आसानी से पीठ में बांधकर आग बुझाई जाती है। पेट्रोल वाली मशीन बनाने में 12 से 15 हजार व इलेक्ट्रिक वाली मशीन 18-20 हजार रुपये लागत आती है। रवि इस मशीन का डेमोस्ट्रेशन मुख्यविकास अधिकारी और डीएफओ के सामने प्रस्तुत कर चुके हैं। मुख्य वन संरक्षक (वनाग्नि) का कहना है कि फायर सीजन को लेकर अलग-अलग स्तर पर तैयारियां की गई है। सूचनाओं को जल्द एकत्र करने के लिए एप भी बनाया गया है। इसके अलावा दस साल पुराने आंकड़ों का अध्ययन कर उन क्षेत्रों को चिन्हित किया गया है। जहां आग लगने पर स्थिति ज्यादा खराब हो जाती है। एडवांस अलर्ट मिलने पर स्टाफ और ज्यादा चौकन्ना होकर जुटेगा। बारिश न होने से उत्तराखंड के जंगलों को आग से बचाने की चुनौती है। उत्तराखंड के जंगलों की आग कब किस स्तर पर पहुंच जाए। इसका कोई अंदाजा नहीं लगा सकता। 2016 और 2021 में वायुसेना तक की मदद लेनी पड़ी थी। वनाग्नि की घटनाओं में चिंताजनक पहलू यह है कि आग की सर्वाधिक घटनाएं आरक्षित वन क्षेत्रों में सामने आ रही हैं। गढ़वाल में आरक्षित वन क्षेत्र में 14 स्थानों पर जबकि वन पंचायत क्षेत्र में तीन स्थानों पर आग लगी। कुमाऊं क्षेत्र में आरक्षित वन क्षेत्र में 13 स्थानों पर आग लगी। वन विभाग प्रतिवर्ष जंगलों में पौधरोपण और आग बुझाने के लिए करोड़ों रुपये का बजट खर्च दिखाता है, इसके बावजूद न तो जंगल में हरियाली आती और न ही आग बुझ पाती है। उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने का सिलसिला. जंगलों की आग से निपटना वन विभाग के सामने एक मुश्किल चुनौती है. समय रहते आग पर काबू न पाने की स्थिति में तस्वीरें काफी भयावह होती है और चारों तरफ दिखती है तो सिर्फ तबाही