देवभूमि में अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही संस्कृत शिक्षा
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
राज्य सरकार द्वारा घोषित संस्कृतनगरी ऋषिकेश में द्वितीय राजभाषा संस्कृत का अस्तित्व संकट में है। तीर्थनगरी में संचालित 12 संस्कृत विद्यालयों व महाविद्यालयों में सृजित 52 शिक्षकों के सृजत पदों में से 22 पद पदों पर शिक्षक कार्यरत हैं। लिहाजा संस्कृत नगरी में देववाणी का दारोमदार प्रबंधकीय व्यवस्था पर तैनात मामूली मानदेय पाने वाले शिक्षकों पर है। संस्कृत को राज्य की द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने वाली सरकार यहां राजभाषा के अस्तित्व बचाने को लेकर कतई गंभीर नहीं है।भाजपा की सरकार के कार्यकाल में उत्तराखंड में न सिर्फ संस्कृत को राज्य की द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया गया था, बल्कि धर्मनगरी हरिद्वार व तीर्थनगरी ऋषिकेश को बाकायदा संस्कृत नगरी भी घोषित किया गया था। मगर संस्कृत को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने में जल्दबाजी दिखाने वाली सरकार ने न तो संस्कृत की दुर्दशा की ओर गौर किया और न ही वर्तमान सरकार इस तरफ गंभीर है।संस्कृत भाषा को द्वितीय राजभाषा का दर्जा तो मिला, लेकिन संस्कृत शिक्षा के संरक्षण को लेकर आज तक सरकारें ठोस नीति नहीं बना सकीं हैं। इसकी अंदाजा जिले के संस्कृत विद्यालय एवं महाविद्यालयों में से लगाया जा सकता है। जो आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री व हरिद्वार सांसद ने बताया कि निदेशालय गठन के समय संस्कृत निदेशालय व संस्कृत शिक्षा परिषद देहरादून में ही रखने के आदेश जारी किए गए थे। जिसके लिए निदेशालय के भवन हेतु भूमि भी आवंटित की गई थी। मगर अब सचिव का कहना है कि इन कार्यालयों को हरिद्वार भेजे जाने से राज्य की मितव्ययता घटेगी। जबकि यह नही सोचा जा रहा कि जो निदेशक व सचिव सिर्फ संस्कृत शिक्षा के नही माध्यमिक शिक्षाओं में भी संयुक्त पदों पर दो जिम्मेदारियों का निर्वहन कर रहे हैं, उनका प्रतिदिन हरिद्वार आने जाने में ही कितना खर्च बढेगा, जिससे सरकार की मितव्ययता और ज्यादा बढ़ेगी। उत्तराखंड में संस्कृत को द्वितीय राज्यभाषा का दर्जा दिया गया है। मगर तब से आज तक यह दर्जा सिर्फ दफ्तरी कागजों में ही सिमटा हुआ है प्रदेश में संस्कृत भाषा को द्वितीय राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। बावजूद इसके संस्कृत भाषा को प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है। संस्कृत महाविद्यालय में शिक्षकों के पद रिक्त चल रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब यह संस्कृत महाविद्यालय भी प्रदेश सरकार की उपेक्षा से विलुप्त हो जाएगा। कहा यदि प्रदेश सरकार परिनियमावली लागू करती है तो इससे संस्कृत भाषा, महाविद्यालय और संस्कृत शिक्षकों का विकास होगा। जब तक परिनियमावली लागू नहीं होती, तब तक संस्कृत भाषा को द्वितीय राजभाषा की पहचान नहीं मिल सकती। शासन स्तर पर उन्होंने कई पत्राचार किए, लेकिन स्थिति जस की तस है। प्रदेश सरकार द्वितीय राजभाषा संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए निजी, सरकारी, सहायता प्राप्त, अशासकीय और वित्तविहीन मान्यता प्राप्त विद्यालयों में कक्षा तीन से आठवीं तक संस्कृत विषय को अनिवार्य करने का प्रयास कर रही है। वर्तमान में राज्य में 93 संस्कृत विद्यालय व महाविद्यालय हैं। इनमें सैकड़ों छात्र अध्ययन कर रहे हैं। शिक्षक व संसाधन मुहैया कराने में सरकारी उपेक्षा के कारण विद्यालयों की स्थिति बहुत ही दयनीय है। इनमें से छह राजकीय संस्कृत विद्यालय तो बंद होने के कगार पर हैं। संस्कृत में ज्ञान और विज्ञान का अपार भंडार समाहित है। वर्तमान दौर में संस्कृत के ज्ञान को दैनिक जीवन में अपनाये जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि वर्तमान में केन्द्र सरकार नई भारतीय शिक्षा नीति में भारतीय संस्कृति व संस्कृत भाषा को प्रोत्साहित करने के काम पर जोर दे रही है देश की संस्कृति को बचाने के लिए संस्कृत को बचाना होगा। जिसने संस्कृत नहीं पढ़ी, वह आत्मतत्व को नहीं जान सकता। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति संस्कृत जानता है, वह विश्व की सभी भाषाओं को जान सकता है। उत्तराखंड में सभी स्टेशनों के नाम हिंदी अंग्रेजी के बाद उर्दू नहीं बल्कि संस्कृत भाषा में लिखे है। रेलवे मैन्युल में स्टेशनों का नाम हिंदी और अंग्रेजी के बाद दूसरी स्थानीय भाषा में लिखने का प्रावधान है। इस नियम के मुताबिक ही यह निर्णय लिया गया है। देश में पहली बार यह प्रयोग किया है..