हिमालय के रक्षक’ सुंदरलाल बहुगुणा की पहली पुण्यतिथि, पहाड़ को दिया ‘जीत का मंत्र

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हिमालय के रक्षकसुंदरलाल बहुगुणा की पहली पुण्यतिथि, पहाड़ को दियाजीत का मंत्र

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

चिपको आंदोलन के प्रणेता और पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा का निधन भारत ही नहीं, दुनिया भर के पर्यावरण प्रेमियों के लिए एक बड़ा झटका है। आज हमने दुनिया के सबसे बड़े प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षक को खो दिया। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिस व्यक्ति ने अपना संपूर्ण जीवन प्रकृति के लिए लगाया, उनके जीवन को प्रकृति के प्रति छेड़छाड़ से उपजे कोरोना वायरस ने लील लिया। वह एक बात अक्सर कहा करते थे कि प्रकृति के साथ हमारे व्यवहार के दुष्परिणाम एक न एक दिन हमें भोगने ही पड़ेंगे।उनके जैसा सादगी पसंद और प्रकृति-पर्यावरण के लिए इतना चिंतित व्यक्ति किसी और को नहीं देखा। 1970 के दशक में जब चिपको आंदोलन जोरों पर था, तो पर्यावरण संरक्षण का जो संकेत हमारे देश से दुनिया भर में पहुंचा था, वही उस समय के वैश्विक पर्यावरण संरक्षण का मूल आधार बना।सुंदरलाल बहुगुणा जी ने हमेशा एक ही बात कहने की कोशिश की कि पारिस्थितिकी और आर्थिकी को अलग न करें। स्थिर अर्थव्यवस्था स्थिर पारिस्थितिकी पर ही निर्भर करती है। आज अगर हमें लगता है कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करके हम अपनी अर्थव्यवस्था को किसी भी ऊंचाई पर पहुंचा सकते हैं, तो हम नीचे से अपनी जमीन को खिसका रहे हैं। और वही सामने आया है। बढ़ते वैश्विक तापमान को लेकर आज दुनिया भर में जो चर्चाएं हो रही हैं, और जिस तरह से जलवायु परिवर्तन का खतरा हमारे ऊपर मंडराने लगा है, यह वही है, जिसकी तरफ सुंदर लाल बहुगुणा ने इशारा किया था।
सुंदर लाल बहुगुणा का व्यक्तित्व अनूठा था। मैंने कभी गांधी जी का दर्शन नहीं किया था, लेकिन बहुगुणा जी के व्यक्तित्व में ही मैंने गांधी का दर्शन किया। मैं इसकी व्याख्या नहीं कर पाऊंगा, लेकिन यह बात सच है कि उनके भीतर इतनी सरलता थी, चाहे भोजन को लेकर हो या पहनावे को लेकर हो, कि वह कभी भी किसी आडंबर का हिस्सा नहीं बनते थे। सादा जीवन-उच्च विचार उनके व्यक्तित्व पर पूरी तरह चरितार्थ होता था। उनकी सोच बहुत ही स्पष्ट और पैनी थी। वह इसी बात पर केंद्रित थे कि मनुष्य को अपने चारों तरफ के पर्यावरण को हमेशा बेहतर बनाने की निरंतर कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि यह जीवन के सवालों का
सबसे बड़ा उत्तर है और दुर्भाग्य से जिसकी हमने उपेक्षा की है। सिर्फ पर्यावरण ही नहीं, देश के लिए जान न्योछावर करने वाले के प्रति उनकी कैसी भावना थी, इसका एक उदाहरण मेरे पास है। एक दिन जब मैं उनसे मिलने गया, तो पता चला कि वह उपवास पर हैं। मैंने उनसे पूछा कि आज आपने उपवास क्यों रखा है, तो उन्होंने कहा कि आज शहीद दिवस है। मैं हैरान रह गया कि जिस शहीद दिवस की किसी को याद नहीं रहती, सुंदरलाल बहुगुणा उस दिन उपवास पर रहकर अपने वतन पर जान न्योछावर करने वालों को श्रद्धांजलि देते थे। मुझे नहीं लगता कि गांधी के बाद इतना ज्यादा उपवास रखने वाला और इतनी प्रतिबद्धता वाला कोई दूसरा व्यक्ति इस देश में था।सुंदरलाल बहुगुणा का जन्म नौ जनवरी, 1927 को टिहरी जिले में भागीरथी नदी किनारे बसे मरोड़ा गांव में हुआ। 13 साल की उम्र में अमर शहीद श्रीदेव सुमन के संपर्क में आने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गई। सुमन से प्रेरित होकर वह बाल्यावस्था में ही आजादी के आंदोलन में कूद गए थे। वह अपने जीवन में हमेशा संघर्ष करते रहे और जूझते रहे। चाहे पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदलन हो, चाहे टिहरी बांध का आंदोलन हो, चाहे शराबबंदी का आंदोलन हो, उन्होंने हमेशा अपने को आगे रखा। नदियों, वनों व प्रकृति से प्रेम करने वाले बहुगुणा उत्तराखंड में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए छोटी-छोटी परियोजनाओं के पक्षधर थे। इसीलिए वह टिहरी बांध जैसी बड़ी परियोजनाओं के पक्षधर नहीं थे। जब भी उनसे बातें होती थीं, तो विषय कोई भी हो, अंततः बात हमेशा प्रकृति और पर्यावरण की तरफ मुड़ जाती थी। उनके दिलोदिमाग और रोम-रोम में प्रकृति के प्रति सम्मान और संरक्षण की भावना थी। उन्होंने अपने कार्यों से अनगिनत लोगों को प्रेरित किया और मैंने तो उनसे काफी कुछ सीखा। वह अपने काम के प्रति हमेशा तल्लीन रहते थे और पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रतिबद्ध थे। मैं उन्हें पिता की तरह मानता था और उनके सुझाए मार्गों पर चलकर ही मैं अपने कार्यों को आगे बढ़ाने की कोशिश करता हूं। सुंदरलाल बहुगुणा जी का सत्याग्रह सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित नहीं था। वह बड़े बांधों के विरोधी थे और उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े बांधों के खिलाफ हुए आंदोलनों में हिस्सा लिया या उन्हें प्रेरित किया। 1980 के दशक के मध्य में छत्तीसगढ़ के बस्तर के भोपालपटनम में और उससे सटे गढ़चिरौली में इचमपल्ली में प्रस्तावित दो बड़े बांधों को लेकर आदिवासियों ने बड़ा आंदोलन किया था। नौ अप्रैल, 1984 को इस मानव बचाओ जंगल बचाओ आंदोलन के तहत हजारों आदिवासी पैदल चलकर गढ़चिरौली मुख्यालय तक पहुंचे थे। आदिवासी नेता लाल श्याम शाह और सामाजिक कार्यकर्ता बाबा आम्टे के साथ ही इस आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए चिपको आंदोलन के प्रवर्तक सुंदरलाल बहुगुणा भी विशेष रूप से वहां उपस्थित थे। टिहरी से करीब 1,800 किलोमीटर दूर स्थित गढ़चिरौली में उनकी उपस्थिति ने इस आंदोलन में जोश भर दिया था। चिपको आंदोलन को लेकर जब उनसे एक साक्षात्कार में पूछा गया था कि पेड़ों को बचाने के लिए आपके मन में यह नवोन्मेषी विचार कैसे आया, तो उन्होंने जो कुछ कहा उसमें उनके जीवन का सार नजर आता है। उन्होंने काव्यात्मक जवाब देते हुए कहा, क्या है जंगल का उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार हैं जीने के आधार। इसका अर्थ है कि वनों ने हमें शुद्ध मिट्टी, पानी और हवा दी है, जो कि जीवन के लिए आवश्यक हैं। उन्होंने बताया था कि चिपको आंदोलन मूलतः पहाड़ की महिलाओं का शुरू किया आंदोलन था। ये महिलाएं नारा लगाती थीं, लाठी गोली खाएंगे, अपने पेड़ बचाएंगे।आज वह पार्थिव रूप से हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार, उनके काम हमारे बीच हैं। उनके कार्यों का संकलन करके, उनके सुझाए मार्गों पर चलकर और प्रकृति व पर्यावरण के प्रति जागरूक भाव रखकर ही हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते  हैं। उन्होंने बताया कि स्वर्गीय सुंदरलाल बहुगुणा अपनी आवश्यकताओं को न्यूनतम कर प्रकृति से कम से कम लेने और उसका ऋण चुकाने की बात करते थे। जो कहते थे उसको अपने जीवन में भी उतारते थे। घटते भूजल के प्रति चेताते हुए उन्होंने पांच दशक से भी पहले चावल खाना इसलिए छोड़ दिया था कि धान का पौधा बहुत ज्यादा पानी लेता है।आज भले ही सुन्दर लाल बहुगुणा पार्थिव रूप से हमारे बीच नहीं हैं,लेकिन उनके विचार,उनके काम हमेशा हमारे बीच रहेंगे। उनके कार्यों का संकलन,उनके सुझाए मार्गों पर चलकर और प्रकृति व पर्यावरण के प्रति जागरूक भाव रखकर ही हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं। चिपको आंदोलन के प्रणेता, पद्म विभूषण से अलंकृत प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा जी की पुण्यतिथि पर उन्हें कोटि-कोटि नमन।