देश को पानी पिलाने वाला उत्तराखंड जल प्रबंधन में पिछड़ा

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देश को पानी पिलाने वाला उत्तराखंड जल प्रबंधन में पिछड़ा

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

देशभर को पानी पिलाने वाला उत्तराखंड राज्य जल प्रबंधन में सबसे पीछे चल रहा है। जल संरक्षण के मामले फिसड्डी साबित हो रहे राज्य में पानी की कोई कमी नहीं है, गंगा और यमुना जैसी नदियों का उद्गम स्थल यहां होने के बावजूद प्रबंधन की कमी के कारण कई क्षेत्र पानी के संकट से जूझ रहे हैं। गर्मियों में तो हालात और अधिक बदतर हो रहे हैं।नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हिमालयी राज्यों में सबसे अधिक खराब हालात उत्तराखंड और मेघालय के हैं। जिनका जल प्रबंधन के अनुसार जल सूचकांक स्कोर सिर्फ 26 है। जबकि त्रिपुरा 59 अंक के साथ सबसे टाप पर है। पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश की स्थिति भी उत्तराखंड से दोगुनी अच्छी है। ये स्कोर 100 अंक में से दिए जाते हैं, जिसके अनुसार 50 से कम स्कोर होने पर जल संसाधन प्रबंधन को लेकर विशेष सुधार करने की आवश्यकता होती है। कुछ दिनों पूर्व मैग्सेसे अवार्ड विजेता जल पुरुष डा. राजेंद्र सिंह ने भी प्रदेश के जल प्रबंधन को लेकर चिंता जताई थी। उनके मुताबिक उत्तराखंड में पानी तो खूब बरसता है पर यह सीधे मैदानी क्षेत्रों में पहुंच जाता है। जरूरी है कि इससे यहां के जल स्रोत रिचार्ज हो। उत्तराखंड में हर साल औसतन 1521 मिमी बारिश होती है, जिसमें मानसून का योगदान 1229 मिमी का है। बारिश का यह पानी यूं ही जाया हो जाता है, यदि इसका कुछ हिस्सा भी संरक्षित कर लिया जाए तो पेयजल किल्लत से काफी हद तक निजात मिल सकती है। इसके अलावा पेयजल अभावग्रस्त गांवों में वर्षा जल संरक्षण के लिए कदम उठाए जाए और वहां आबादी के हिसाब से टैंक बनाकर इनमें बारिश के पानी का संग्रहण किया जाना चाहिए। फिर इसे उपचारित कर पेयजल के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। हालांकि, सरकार की ओर से कई बार कवायद तो शुरू की जाती हैं, पर अधिकांश धरातल पर उतरने के बजाय सिर्फ कागजों में रह जाती हैं। पर्वतीय क्षेत्र में नौले (भूमिगत जल एकत्र करने के लिए पत्थर की सीढ़ीनुमा दीवारों वाले 1-2 मीटर गहरे चौकोर गड्ढे) एवं धारे (चट्टान से धारा के रूम में जल प्रवाह) अनादि काल से पेयजल के स्रोत रहे हैं। दुर्भाग्यवश हाल के दशकों में लगभग 50 प्रतिशत जलस्रोत या तो सूख गए हैं या उनका जल प्रवाह कम हो गया है।  उत्तराखंड में 917 छोटे.बड़े ग्लेशियरों से दर्जनों बारहमासा बहने वाली नदियां निकलती हैं, जो देश के कई राज्यों को भी पीने का पानी देती हैं, राज्य गठन के बाद उत्तराखंड के प्राकृतिक जलस्रोतों से पानी की निकासी में पांच से लेकर 80 फीसदी तक की गिरावट आई है। राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के तीन साल से चल रहे अध्ययन में करीब 1200 से अधिक जलस्रोतों के परीक्षण के बाद यह तथ्य सामने आया है। रिपोर्ट के अनुसार, पर्वतीय इलाकों में पेयजल आपूर्ति का मुख्य जरिया प्राकृतिक जलस्रोत ही होते हैं। इन पर ही प्रदेश की अधिकतर पेयजल पंपिंग योजनाएं बनाई गई हैं। पर स्रोतों में पानी कम होने से भविष्य में पर्वतीय इलाकों में जल संकट बढ़ने की पूरी आशंका है। इसके अलावा पानी की गुणवत्ता पर भी असर पड़ रहा है। जल नीति में यह भी प्रावधान किया गया है कि पेयजल आपूर्ति के लिए अधिकृत संस्था को विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार पेयजल उपलब्ध कराने के लिए जिम्मेदार बनाया जाएगा। सार्वजनिक भागीदारी के माध्यम से वर्षा जल संरक्षण की दिशा में काम किया जाएगा। पानी की कमी वाले क्षेत्रों में वर्षा जल, सतही जल और भूजल के इस्तेमाल के वैकल्पिक तरीकों पर काम होगा। राज्य में जल संसाधन प्रबंधन और नियामक आयोग का गठन किया जाएगा।इस आयोग का गठन होने तक ‘उत्तर प्रदेश जल संभरण एवं सीवर व्यवस्था अधिनियम-1975’ के तहत जलापूर्ति और सीवर व्यवस्था का कार्य उत्तराखंड जल संस्थान द्वारा किया जाएगा। जलापूर्ति लाइन पर सीधे मोटर पंप लगाने को इस नीति में दंडनीय अपराध माना गया है और इसके लिए भारी जुर्माना तय किया गया है। मंदिरों, मेलों और अन्य सार्वजनिक व भीड़-भाड़ वाले स्थानों पर वाटर एटीएम की व्यवस्था करने का प्रावधान किया गया है।जल नीति में जल विद्युत उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने के साथ ही लगभग लुप्त हो चुकी परम्परागत पन चक्कियों (घराट) को पुनर्जीवित करने का भी प्रावधान किया गया है। इसके लिए ग्राम पंचायतों, निजी संस्थाओं, गैर सरकारी संगठनों, सरकारी संस्थाओं और बैंकों को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है। मसौदे में यह भी कहा गया है कि जल स्रोतों पर अतिक्रमण करने और पानी के प्रवाह का रास्ता बदलने की किसी भी हालत में अनुमति नहीं दी जाएगी। नहरों, नदियों आदि में कपड़े धोने को हतोत्साहित किया जाएगा। जल स्रोतों के आसपास प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ ‘उत्तराखंड जल प्रबंधन और नियामक अधिनियम-2013’ के तहत सख्त कार्रवाई की जाएगी।यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि राज्य में करीब 2.6 लाख प्राकृतिक जलस्रोत हैं। जलवायु परिवर्तन और अन्य कारणों से करीब 12 हजार स्रोत सूख गए हैं। राज्य में लगभग 90 प्रतिशत जलापूर्ति भी इन्हीं स्रोतों से होती है। 16,973 गांवों में से 594 गांव पेयजल के लिए प्राकृतिक जलस्रोतों पर ही निर्भर हैं। करीब 50 प्रतिशत शहरी क्षेत्र किसी न किसी रूप में जल संकट से जूझ रहा है। नीति आयोग की ओर से जारी वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स-2018 में जल प्रबंधन के मामले में राज्य का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। नीति आयोग के अनुसार राज्य की कोई जल नीति न होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की भारी कमी है और राज्य में वाटर डाटा सेंटर भी नहीं है।.

लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।