पांच बड़ी आपदाएं जिनमें चली गई हजारों की जान, पिथौरागढ़ ने सहे सर्वाधिक जख्म

0
326

पांच बड़ी आपदाएं जिनमें चली गई हजारों की जान, पिथौरागढ़ ने सहे सर्वाधिक जख्म

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में मानसून सीजन आफत की तरह आता है। इस दौरान भूस्खलन और चट्टानों के दरकने की खबरें आती रहती हैं। उत्तराखंड के लोगों ने आपदा के इतने भयावह दंश झेले हैं 18 सितंबर 1880 को शनिवार को नैनीताल को प्रकृतिक आपदा से गहरा जख्म मिला था। दो दिन से लगातार बारिश से मल्लीताल क्षेत्र में भारी भूस्खलन हुआ। इस आपदा में 151 लोग जिंदा दफन हो गए थे। जिनमें 108 भारतीय और 43 ब्रिटिश नागरिक शामिल थे। भूस्खलन का मलबा आने से फ्लैट्स मैदान का निर्माण हुआ था और नैनादेवी मंदिर क्षतिग्रस्त हो गया था। 20 अक्टूबर 1991 को 6.8 रिक्टर स्केल का उत्तरकाशी में आया भूकंप  कई जिंदगियों को लील गया। इस भूकंप ने पूरी धरती को कंपा दिया था। एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक, उस घटना में 768 लोगों की मौत हो गई थी और हजारों घर तबाह हो गए थे। कई लोग हमेशा के लिए बेघर हो गए। उस दिन को यादकर आज भी लोग दहशत में आ जाते हैं। 18 अगस्त 1998 में पिथौरागढ़ जिले में बड़ी तबाही मची। जिले के मालपा गांव में चट्टान दरक गई। इस त्रासदी में 225 लोगों की मलबे में दबने से मौत हो गई। मृतकों में 55 लोग मानसरोवर यात्री थे। यह घटना और भी खतरनाक इसलिए हो गई क्योंकि मिट्टी और चट्टानों के मलबे ने शारदा नदी का जल प्रवाह रोक दिया था। जिससे कई गावों में पानी घुस गया था। मालपा हादसे के अगले ही साल 1999 में चमोली जिले में 6.8 रिक्टर स्केल का भयंकर भूकंप (आया। इस घटना में 100 लोगों की मौत हो गई। चमोली जिले से सटे रुद्रप्रयाग जिले में भी बड़े स्तर पर क्षति हुई थी। भूकंप के चलते नदी नाले का भी रुख बदल गया। कई गांवों में घुस गया। भूकंप इतना खतरनाक था कि सड़कों और इमारतों में बड़ी-बड़ी दरारें आ गईं थीं। 2013 में आई केदारनाथ आपदा को कौन भूल सकाता है। उत्तराखंड के इतिहास में इतनी भयावह घटना कभी नहीं हुई। जल प्रलय ने हजारों लोगों की जान ले ली। किसी को संभलने तक का मौका नहीं मिला। जो जहां था, वही दफन हो गया। कई महीने तक लोगों की खोज में अभियान चलाए गए। आज भी वहां दफन लोगों के नरकंकाल मिल रहे हैं। इस आपदा ने राज्य की सड़कों एवं पुलों को जो नुकसान पहुंचाया था उसकी पूर्ति आजतक नहीं हो पाई है, 2022 में उत्तराखंड में ग्लेशियर फटने की घटना ने एक बार फिर देवभूमि उत्तराखंड की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया है और वहां पर इस हादसे से खासा जान-माल का नुकसान हुआ है और लोगों को बचाने की कवायद में एजेंसियां जुटी हुई हैं। वहां की तपोवन टनल में फंसे लोगों को सुरक्षित निकालने के लिए बड़ा राहत व बचाव अभियान चलाया जा रहा है।अभी भी कई लोग लापता है इसके साथ ही सुरंग में फंसे हुए लोगों को बचाने की कवायद युद्धस्तर पर जारी है,एनटीपीसी की परियोजना को नुकसान हुआ है। एसडीआरएफ के जवानों के साथ अन्य बचाव दल के सदस्य पूरे समय से लगे हुए हैं। तपोवन टनल से मलवा हटाने का काम चलता रहा,आईटीबीपी की टीम सुरंग साफ करने में जुटी अब इस साल ग्लेशियर फटने का हादसा सामने आया है बागेश्वर जिले के कपकोर्ट में भारी बारिश से निर्माणाधीन सड़कों ने सबसे अधिक तबाही मचाई है। जिससे ये साफ है कि राज्य में आपदाओं के आने का सिलसिला थम नहीं रहा है और प्रकृति इसके माध्यम से कई संदेश भी दे रही है कि इस धरा के साथ खिलवाड़ बंद हो। नेशनल हाईवे सहित आंतरिक सड़कों पर मलबा आने से ट्रैफिक बाधित हुआ है। सड़कें बंद होने से यात्रियों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। प्रशासन द्वारा बंद सड़कों को खोलने का कार्य जारी है। लेकिन, पहाड़ों पर लगातार हो रही बारिश और खराब मौसम मुसीबत बना हुआ है। बरसात ने रोकी चारधाम यात्रा श्रद्धालुओं की रफ्तार, इस धाम में पहुंच रहे सबसे ज्यादा श्रद्धालु
बरसात के चलते चार धाम यात्रा में पहुंचने वाले श्रद्धालुओं की रफ्तार अब थम सी गई है। केदारनाथ धाम में ही अब साढ़े तीन हजार तक श्रद्धालु पहुंच रहे हैं, जबकि गंगोत्री और यमुनोत्री में तो श्रद्धालुओं की संख्या एक हजार से भी कम हो गई है। केदारनाथ में 16 और 17 जून 2013 को आई भीषण आपदा के आज 9 साल पूरे हो गए हैं। इन 9 सालों में भले ही केदारपुरी में बड़े स्तर पर हुए पुर्ननिर्माण की वजह से तस्वीर बदल​गई है लेकिन​आपदा के सैलाब में गुम हुए अपनों को खोने का गम आज भी हजारों परिवारों में साफ नजर आता है। आज 9 साल पूरे होने के बाद भी प्रलयकारी आपदा को याद कर परिजनों के आंसू नहीं थमते हैं। जो बच गए उनकी आंखों में वो सैलाब आज भी है जो इस आपदा के शिकार हुए उनके परिजन अब भी अपनों को याद कर रहे हैं। 9 साल बाद भी सरकारी आंकड़ों में 3,183 लोगों का कुछ पता नहीं चल पाया है। उससे पहले भी पहाड़ी राज्य को कई बार ऐसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा है। लेकिन ​22 साल में आपदा से निपटने को ​किसी तरह की नीति तैयार न होना। अब तक की सरकारों पर सवाल खड़े कर रहा है। हर बार आपदा आती है, सरकारें नुकसान को लेकर रिपोर्ट तैयार कर मुआवजा देकर पुर्नवास और संसाधनों को विकसित करने के लिए कई प्लानिंग भी बनाती हैं। लेकिन जब भी प्राकृतिक आपदा से सरकारों का सामना होता है, तो सभी सिस्टम बेबस नजर आता है। जिसके बाद सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ के अलावा तमाम देशभर की संस्थाएं अपनी जान पर खेलकर लोगों की जान बचाती हैं। पर्वतीय क्षेत्रों की तबाही का दूसरा बड़ा कारण है जंगलों का तेजी से विनाश. यह दो कारणों से हुआ है. पहला सड़कों का जाल बिछाने के लिए बेहिसाब तरीके से पेड़ों की कटाई और दूसरा हर साल आग लगने से बेशकीमती दुर्लभ वनपस्पति लुप्त होना.पर्वतीय क्षेत्रों में सब लोग जानते हैं कि बार-बार जंगलों में इस आगजनी में वन विभाग और उनके साथ मिलीभगत में सक्रिय लकड़ी माफिया व पशु तस्करों का हाथ होता है.चारधाम यात्रा के लिए ऑल वेदर रोड से कितने जंगलों व पेड़ों की बलि दी गई इसका कोई हिसाब सरकार के पास नहीं है.सिर्फ तुर्रा दिया जाता है कि ऑल वेदर रोड बनने से पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा लेकिन नाजुक पहाड़ों में इस तरह की सनक भरी नीतियों से केवल भीड़ और मोटर वाहनों का सैलाब बढ़ाकर कार्बन की मात्रा कई गुना बढ़ाने का इंतजाम हो रहा है.आगजनी और वाहनों का सैलाब हिमालय में ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरों को और भी बढ़ा रहे हैं.

लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं