उपेक्षा का शिकार है गांधी मंदिर
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। 75 सालों की उपलब्धियां गिना रहे हैं। गर्व और आत्मसम्मान के हर पल से युवा पीढ़ी को रूबरू करा रहे हैं।दुनिया भर को अहिंसा की ताकत का अहसास कराने वाले महात्मा गांधी की एक विरासत ऐसी भी है, जो दुनिया भर में तो दूर, भारत में तक पहचान कायम नहीं कर सकी है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 1929 को नैनीताल होते हुए कुमाऊं की अपनी पहली यात्रा पर आए थे। उसी समय गांधी जी ने नैनीताल के निकट ताकुला गांव में एक आश्रम की नींव रखी थी। आजादी के आंदोलन के दौरान गांधी जी के दोनों कुमाऊं प्रवास के बीच यही आश्रम उनका ठिकाना बना। इसी आश्रम में आकर नैनीताल व ताकुला गांव के आसपास की कई महिलाओं ने गांधी जी को आजादी के आंदोलन में हिस्सेदारी के लिए अपने जेवर दान किए थे।नैनीताल के ताकुला गांव स्थित ‘गांधी मंदिर’ को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि महात्मा गांधी ने खुद इस भवन का शिलान्यास किया था. वर्ष 1929 और फिर वर्ष 1932 में वे यहां रहने भी आए. लेकिन गांधी से जुड़ा यह भवन अब तक राष्ट्रीय धरोहर या स्मारक का दर्जा हासिल नहीं कर सका. हालत यह है कि गांधी की जयंती और बलिदान दिवस पर भी किसी को इस ऐतिहासिक विरासत की सुध नहीं आती. हालांकि, ताकुला गांव के स्थानीय लोग जरूर गांधी की यादों को सहेजे हुए हैं और अपने स्तर पर यहां कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं. ग्राम प्रधान ताकुला का कहना है कि गांव में हम अपने स्तर पर कार्यक्रम करते हैं, लेकिन वर्षों तक यह गांव और गांधी मंदिर उपेक्षा का शिकार नैनीताल-हल्द्वानी मार्ग पर नैनीताल से करीब चार किलोमीटर दूर सड़क से लगा हुआ है ताकुला गांव. इसी गांव में करीब 200 मीटर पैदल दूरी पर गांधी मंदिर स्थित है. ब्रिटिश काल में स्थानीय निवासियों को कुली-बेगारी करने के लिए मजबूर किया जाता था और इसके एवज में उन्हें कोई पारिश्रमिक भी नहीं मिलता था. इसके विरोध में वर्ष 1921 में बागेश्वर जनपद से अहिंसक आंदोलन प्रारंभ हुआ था, जो धीरे-धीरे अन्य क्षेत्रों तक बढ़ता गया. आंदोलन को समर्थन देने के लिए ही महात्मा गांधी 1929 में नैनीताल आए थे. गांधी ने कुली-बेगार आंदोलन को रक्तहीन क्रांति नाम दिया. उस दौरान ताकुला गांव में कारोबारी गोविंद लाल साह के यहां गांधी के ठहरने की व्यवस्था की गई. साह ने इच्छा जताई कि वह गांव में ‘गांधी मंदिर’ नाम से भवन बनवाना चाहते हैं. उनके अनुरोध पर खुद गांधी ने इस भवन का शिलान्यास किया. 1932 में दूसरे प्रवास के दौरान गांधी इसी भवन में ठहरे. गांधी आश्रम, चनौंदा के वर्तमान मंत्री बताते हैं कि सन् 1929 में स्थापना के बाद से आश्रम द्वारा उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए यहाँ के ऊनी उत्पादों, जो मुख्यतः तिब्बती कच्चे ऊन से निर्मित थी, को देश के कोने-कोने तक पहुँचाया। सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद तिब्बत का ऊन भारत आना बन्द हो गया। गांधी आश्रम को अपना काम जारी रखने के लिए पानीपत, लुधियाना व राजस्थान आदि के ऊन पर निर्भर होना पड़ा। कच्चे माल की ऊँची कीमतों के कारण आश्रम के लिये आसपास के गाँवों में हजारों की संख्या में बिखरे बुनकरों को कच्चा माल दे पाना सम्भव नहीं रहा। कत्तिन बुनकरों की संख्या दिन-प्रतिदिन घटती चली गयी। जिन लोगों का यह पांरम्परिक पेशा था, वे भी इससे दूर होते चले गये। वर्तमान में आश्रम के पास बमुश्किल लगभग 450 कामगार हैं। तरल पूँजी के अभाव व कच्चे माल की आसमान छूती कीमतों के कारण आश्रम उनको भी पूरा काम नही दे पा रहा है। कर्मचारियों ने बताया कि लोग काम करने की क्षमता तो रखते हैं, पर पूँजी के अभाव में कुछ कर पाने में असमर्थ हैं।ऐसा ही हाल नैनीताल से पाँच किमी दूर गांधी ग्राम ताकुला का है। 1929 में महात्मा गांधी यहाँ आकर ठहरे थे और उन्होंने ‘गांधी मंदिर’ नामक एक भवन की नींव रखी थी। 1931 में महात्मा गांधी एक बार पुनः ताकुला आये और गांधी मन्दिर में ही ठहरे। लेकिन विडंबना यह है कि जिला मुख्यालय के इतने करीब होने के बावजूद न कोई अधिकारी और न कोई जनप्रतिनिधि ही गांधी जी को श्रद्धांजलि देने गांधी मंदिर जाता है। कोई विभाग भी ऐतिहासिक गांधी मन्दिर की देखरेख के लिए आगे नहीं आया है। लेकिन वर्षों तक यह गांव और गांधी मंदिर उपेक्षा का शिकार रहा। अब एडीबी की ओर से परियोजना प्रस्तावित है। इसके बाद गांव को वैश्विक पहचान मिल सकेगी।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं