साल 1880 का वह दिन, जिसने बदल दिया था नैनीताल का नक्शा भूस्खलन के!

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साल 1880 का वह दिन, जिसने बदल दिया था नैनीताल का नक्शा भूस्खलन के!

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला 

नैनीताल की खोज सन 1841 में एक अंग्रेज चीनी (शुगर) व्यापारी ने की. बाद में अंग्रेजों ने इसे अपनी आरामगाह और स्वास्थ्य लाभ लेने की जगह के रूप में विकसित कर लिया. नैनीताल तीन ओर से घने पेड़ों की छाया में ऊंचे-ऊंचे पर्वतों के बीच समुद्रतल से 1938 मीटर की ऊंचाई पर बसा है. यहां के ताल की लंबाई करीब 1358 मीटर और चौड़ाई करीब 458 मी‍टर है. ताल की गहराई 15 से 156 मीटर तक आंकी गई है. हालांकि इसकी सही-सही जानकारी अब तक किसी को नहीं है कि ताल कितना गहरा है. ताल का पानी बेहद साफ है और इसमें तीनों ओर के पहाड़ों और पेड़ों की परछाई साफ दिखती है. आसमान में छाए बादलों को भी ताल के पानी में साफ देखा जा सकता है. रात में नैनीताल के पहाड़ों पर बने मकानों की रोशनी ताल को भी ऐसे रोशन कर देती है स्कंद पुराण के मानस खंड में इसेत्रिऋषिसरोवरकहा गया है. ये तीन ऋषि अत्रि, पुलस्थ्य और पुलाहा ऋषि थे. इस इलाके में जब उन्हें कहीं पानी नहीं मिला तो उन्होंने यहां एक बड़ा सा गड्ढा किया और उसमें मनसरोवर का पवित्र जल भर दिया. उसी सरोवर को आज नैनीताल के रूप में जाना जाता है. इसके अलावा नैनीताल को 64 शक्ति पीठों में से एक माना जाता है. माना जाता है कि जब भगवान शिव माता सती के शव को लेकर पूरे ब्रह्मांड में भटक रहे थे, तो यहां माता की आंखें (नैन) गिर गए थे. माता की आंखें यहां गिरी थीं, इसलिए इस जगह का नाम नैनीताल पड़ा. माता को यहां नैना या नयना देवी के रूप में पूजा जाता है. पर्यटन के लिए विश्वविख्यात सरोवर नगरी नैनीताल के सामने खतरे के बादल मंडरा रहे हैं. बारिश शुरू होते ही नैनीताल में लगातार भूस्खलन होने लग रहा है. जिससे नैनीताल के अस्तित्व पर प्रश्न उठने शुरू हो चुके हैं. शहर के अंदर और शहर की बुनियाद में लगातार तेजी से भूस्खलन हो रहा है. इससे प्रशासन समेत राज्य सरकार के सामने नैनीताल को बचाने के लिए चिंताएं बढ़ने लगी हैं. नैनीताल की तो नैनीताल भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील है। इतिहास भी इन बात का गवाह है कि नैनीताल में भूस्खलन की वजह से बहुत तबाही मची है।इतिहास खंगाल कर देखा जाए तो नैनीताल में 1880 में जबरदस्त तबाही मची थी। यह भूस्खलन की दृष्टि से बेहद संवेदनशील क्षेत्र है। यहां की संवेदनशील पहाड़िया से लगातार भूस्खलन होने के कारण खतरा बढ़ रहा है।उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में मानसून सीजन आफत की तरह आता है। इस दौरान भूस्खलन और चट्टानों के दरकने की खबरें आती रहती हैं। उत्तराखंड के लोगों ने आपदा के इतने भयावह दंश झेले हैंनैनीताल के नीचे स्थित बलियानले में 150 से भी अधिक वर्षों से भूस्खलन आज भी जारी है। बीते वर्ष शहर की सबसे ऊंची चोटी चाइनापीक में एक बार फिर भारी भूस्खलन हुआ था। साथ ही पहाड़ी के एक बड़े हिस्से में करीब छह इंच चौड़ी दरार उभर आई। इधर टिफिनटॉप में भी भूस्खलन होने लगा है। भूस्खलन और पहाड़ी में दरारे उभरने से ऐतिहासिक ब्रिटिशकालीन डोरोथी सीट का अस्तित्व भी खतरे में नजर आ रहा है।नैनीताल और नैनीझील के बीच से गुजरने वाले फॉल्ट के एक्टिव होने से भूस्खलन और भूधंसाव की घटनाएं सामने आ रही हैं। शहर में लगातार बढ़ता भवनों का दबाव और भूगर्भीय हलचल इसका कारण हो सकते हैं। उन्होंने चेताया है कि अभी भी शहरवासी नहीं संभले तो परिणाम भयावह हो सकते हैं।नैनीताल में 1880 के भूस्खलन हुआ था था तब शहर की आबादी 10 हजार से भी कम थी। तब अंग्रेजों ने कमेटियां गठित कर भूस्खलन के कारणों को जानने के साथ ही इसकी रोकथाम की कवायद शुरू कर दी थी। जिसके बाद शहर के कई क्षेत्रों में भवन निर्माण पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया था।आजादी के बाद नैनीताल की दशा ही बदल गयी। 70-80 के दशक के बाद शहर में अंधाधुंध भवन निर्माण हुए। तेजी से बसासत बढ़ी। नियम कायदे की धज्जियां उउ़ती रहीं। आज भी प्रतिबंध के बावजूद शहर में अवैध रूप से निर्माण कार्य जारी है, इसके लिए हरे पेड़ों तक को काट दिया जाता है।नैनीताल के बसने के कुछ वर्षों के बाद साल 1867 में यहां पहला भूस्खलन वर्तमान के चार्टन लॉज की पहाड़ी पर हुआ था। तब कुमाऊं के कमिश्नर रहे सर हेनरी रैमजे ने हिल साइड सेफ्टी कमेटी का गठन किया, जो नैनीताल के संवेदनशील इलाकों के बारे में जानकारी जुटाती थी। रसूखदार और पहुंच वाले लोग नियमों को मात देकर अवैध निर्माण करते गए जिसके परिणति एक बार फिर अवैध निर्माण के रूप में सामने आ रही है।बलियानाला में लगातार हो रहा भूस्खलन प्रभावित परिवारों की नींद उड़ा रहा है। नगरपालिका की ओर से प्रभावित परिवारों को बारिश से पहले विस्थापन के नोटिस थमा दिए हैं। प्रभावितों का आरोप है कि नगरपालिका व प्रशासन बलियानाला ट्रीटमेंट को लेकर गंभीर नहीं है।पूर्व पालिका सभासद का कहना है कि पिछले 26 साल से पालिका व प्रशासन हर साल बलियानाला प्रभावित क्षेत्रों क्षेत्र के लोगों को नोटिस दे कर अपनी जिम्मेदारी से इतिश्री कर रहा है। यह बरसात प्रारंभ होने से पहले परंपरा सी बन गई है।नोटिस देकर अपने मकान खाली करने की यह औपचारिकता तीन जुलाई 1996 से या तकरीबन विगत 26 साल से एक परंपरा के रूप में हर वर्ष निभाई जाती है। इन सालों में करीब 50 करोड़ खर्च करने के बाद भी बलियानाला का भू कटाव थमना तो दूर बल्कि और ज्यादा तेजी के साथ भू कटाव हो रहा है। उस भूस्खलन की बारीकी को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने नैनीताल की पारिस्थिकी को मजबूत करने के लिए बहुत सारे उपाय किए थे. अंग्रेजों ने बहुत सारे नाले बनवाए, जिससे बरसात का पानी नालों से होकर झील में चला जाए. हिल सेफ्टी को लेकर उन्होंने काफी अलग-अलग कोशिशें भी कीं. अंग्रेजों के देश छोड़ने के बाद काफी साल तक उस हादसे को ध्यान में रखकर इन सभी प्रोटोकॉल का पालन किया गया, जिस वजह से नैनीताल में इस तरह की त्रासदी की कभी पुनरावृत्ति नहीं हुई है. इतिहास की मगर सच तो यह है कि इतिहास से हमने कोई सबक नहीं सीखा है और आज भी नैनीताल में पहाड़ों से गुजर रहे वाहनों पर, वहां रहने वाले लोगों के ऊपर खतरा मंडरा रहा है। इस बार फिर से नैनीताल के पहाड़ी क्षेत्र रिस्क पर हैं। इनका एक बड़ा कारण अवैध निर्माण कार्य भी है। नैनीताल के ग्रीन फील्ड जोन में धड़ाधड़ अवैध निर्माण और नगर के नालों पर अतिक्रमण से एक बार फिर बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है।इस तबाही को याद करने का मकसद किसी को आतंकित करने का नहीं बल्कि हमें आत्मचिन्तन के लिए चेताने का है कि कहीं हमारी कुदरत के प्रति यह अनदेखी हमें खुद अपनी कब्र खोदने की ओर तो नहीं धकेल रही है ? क्योंकि हम एक तरह से चेतनाहीन हो चुके हैं । जाहिर है शासन-प्रशासन के नजरों से बच-बचाकर हम भले अपने मकसद में कामयाब हो जायें , लेकिन कुदरत की नजरों से बच नहीं सकते । यदि आपको हकीकत में अपने शहर नैनीताल से प्यार है , इसकी खूबसूरती को बनाये रखना चाहते हैं, तो जरा संभलिये । कैंसर तो उपज चुका है हमारी लापरवाही से लेकिन आगे परहेज व उपचार पर ध्यान देंगे तो बहुत संभव है, इसे बढ़ने से रोक पायें । अरे ! हम से ज्यादा संवेदनशील तो वो अंग्रेंज थे, जो सात समन्दर पार के होने के बावजूद नैनीताल के अस्तित्व के इतने चिन्तित थे। उन्हीं की दूरगामी योजनाओं व प्रबन्धन का नतीजा है कि नैनीताल अब तक सुरक्षित है। नैनीताल को प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए कई वैज्ञानिक और इंजीनियरों की कमेटियां बनाई गई,सभी की एक राय थी कि नैनीताल की सुंदरता को बचाने के लिए और आपदाओं का सामना करने के लिए नैनीताल में नाला तंत्र विकसित किया जाए,जब सभी ने इस पर सहमति जताई तो एक नायाब नाला तंत्र का निर्माण किया गया। पूरे नैनीताल को छोटे और बड़े चाहे प्राइवेट थे या सार्वजनिक,नालों से बांध दिया गया। सभी नालों से बरसाती पानी सीधे नैनी झील में जाने लगा,नैनी झील भी पानी से लबालब भरी हुई रहने लगी। 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने नैनी झील के संरक्षण एवं प्रबंधन मामले में भारत सरकार के द्वारा करीब 48 करोड़ रुपये की राष्ट्रीय झील संरक्षण परियोजना को मंजूरी दिलवाई। सूत्रों की मानें तो इस योजना के तहत 48 करोड़ में से करीब 5 करोड़ रुपये की लागत से झील में ऐरिएशन का काम हुआ बाकी काम तो अभी तक कुछ नज़र नहीं आया।नैनीताल के दिल यानी नैनी झील में जितने भी नाले जाकर मिलते हैं उनकी क्या दशा है ये किसी से छुपा नहीं है,कूड़े कचरे से इन नालों को ब्लॉक कर दिया जाता है,कहीं नालों के ऊपर घरों का निर्माण कर दिया है, तो कहीं खुद अतिक्रमण की हदें पार करते हुए जल संस्थान ने नालों के अंदर पानी की पाइप लाइनों को बिछाकर नालों का दम निकाल कर रख दिया। दुर्भाग्य से झील के रखरखाव के लिये जिम्मेदार सरकारी महकमें ही इसकी प्राकृतिक शोभा को बदरंग करने पर आमादा हैं। मजेदार बात यह कि यह संरक्षण एशियन विकास बैंक की माली मदद से धरोहरों के संरक्षण के नाम पर हो रहा है।उत्तराखण्ड के पर्यटन महकमें की हेरिटेज भवनों के संरक्षण की एक ऐसी ही योजना नैनी झील के संरक्षण की सबब बन गई है।

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।