22  साल बाद भी नहीं भूला गया वो दर्द, नहीं मिला सपनों का उत्तराखंड

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22  साल बाद भी नहीं भूला गया वो दर्द, नहीं मिला सपनों का उत्तराखंड

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला 

2 अक्टूबर को जहां पूरे देश में गांधी जयंती तथा लाल बहादुर शास्त्री जयंती पूरे हर्षोल्लास से मनाई जाती है वहीं उत्तराखंड के लोग आज भी 2 अक्टूबर 1994 को याद करते हुए काले दिवस के रूप में मनाते हैं। जिसका कारण है रामपुर तिराहा मुजफ्फरनगर कांड जब शांतिपूर्ण तरीके से दिल्ली जा रहे उत्तराखण्ड राज्य आंदोलनकारियों पर उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की हठधर्मिता के चलते पुलिस प्रशासन ने काफी कहर बरपाया, जिसमें सात आंदोलनकारियों की मृत्यु हो गई, 1 अक्टूबर की वह रात दमन तथा आमानवीयता की हदों को पार करने वाली रात साबित हुई, जिसने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। लेकिन 27 वर्षों बाद भी इस नृशंस हत्याकांड के दोषियों को सजा नहीं हुई। दोषियों के खिलाफ नौ मुकदमों में से पांच तो एकएक करके निपटा दिए गए अन्य मामलों पर भी न्याय पालिका तथा सरकार का निष्पक्ष रूख सामने नहीं आया। मुकदमों की जांच को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे इस हत्याकांड में दोषियों को कोई सजा नहीं दिलाना चाहता। लोगों के दबाव में तत्कालीन सरकार ने घटना के सीबीआई जांच के आदेश तो दे दिए परंतु जांच कर रही सीबीआई टीम के रूख को देखकर भी कभी ऐसा नहीं लगा कि वह दोषियों को सजा दिलाने के लिए तत्पर हो। यह दृश्य कितना संवेदनहीन रहा होगा इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अगले दिन न सिर्फ अंतराष्ट्रीय स्तर पर घटना की निंदा हुई बल्कि घटना की सुनवाई के दौरान 1996 में इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रवि एस. धवन की खंडपीठ को यह कहना पड़ा कि जो घाव लगे और जाने गयीं वे प्रतिरोध की राजनीति की कीमत थी आज सवाल उठता है कि क्या कभी इस नृशंस हत्याकांड के दोषियों को सजा मिलेगी। नृशंस हत्याकांड के जो घाव आज भी उत्तराखण्डियों के सीने पर हैं क्या वह कभी भर पाएंगे। सवाल तो यह भी है कि क्या ये वही उत्तराखण्ड है जिसके सपने राज्य आंदोलनकारियों ने देखें थे, जिसके लिए आंदोलनकारियों ने अपने सीने पर गोलियां खाई थी और हर उत्तराखण्डी के दिल में एक अलग ही जज्बा था जो राज्य निर्माण के दौरान सबसे चर्चित नारा भी बना था “मडुआ बाड़ी खाएंगे उत्तराखण्ड बनाएंगे इन 22 वर्षों को देखकर तो यह कतई नहीं लगता क्योकि इन 22 सालों में हमने कुछ पाया तो नहीं लेकिन आज  की पावन धरती पलायन भूमि में जरूर तब्दील हो चुकी है। अलग राज्य से नेता तो न बहुत फले-फूले परंतु पहाड़ की हालत बदसे बदतर होने लगी। आज छोटी से छोटी घटना पर लोकतंत्र की हत्या का राग अलापने वाले नेताओं को भी यह सोचना होगा कि 1 अक्टूबर की रात को रामपुर तिराहे पर जो हुआ वो क्या था। 2003 में निर्माता निर्देशक अनुज जोशी जी ने भी ,उत्तराखंड आंदोलन पर आधारित और मुख्यतः 2 अक्टूबर 1994 के मुजफ्फरनगर कांड पर आधारित उत्तराखंडी फ़िल्म तेरी सौं बनाई थी।उत्तराखंड राज्य आंदोलन की पृष्ठभूमि पर बनी इस फ़िल्म में आंदोलन के समय ,उत्तराखंड के लोगों पर हुई बर्बरता का चित्रण बड़ी मार्मिकता से किया गया । इस फ़िल्म के निर्माता निर्देशक श्री अनुज जोशी स्वयं एक आंदोलनकारी रहे हुए हैं।इस फ़िल्म में मुजफ्फरनगर कांड को एक काल्पनिक प्रेम कहानी के साथ जोड़कर बनाया गया है। इसमे उत्तराखंड आंदोलन में  सबसे छोटे शहीद सत्येंद्र चौहान का चरित्र भी दिखाया गया है। फ़िल्म के पहले भाग में मानव ( सक्षम जुयाल ) मानसी ( पूजा रावत ) की सुंदर प्रेम कहानी दिखाई गई है। जो सुंदर गढ़वाली , कुमाउनी  गीतों से सुसज्जित है। फ़िल्म के दुसरे भाग में तत्कालीन प्रदेश सरकार द्वारा किये गए जुल्मों को ,बड़ी मार्मिकता से पेश किया गया है। फ़िल्म की 60से 70 % भाषा हिंदी है। इसके अलावा इसमे  गढवाली और कुमाउनी भाषा का प्रयोग किया गया है। आज दो, अभी दो, उत्तराखंड राज्य दोजैसे गगनभेदी नारे लगाते हुए आगे बढ़ रहे सभी आंदोलनकारियों को पुलिस ने मुजफ्फरनगर के नारसन रामपुर तिराहे पर रोक दिया। आंदोलनकारियों को बसों से बाहर निकालकर उन पर अंधाधुंध लाठियाँ बरसाईं। मुजफ्फरनगर में हुए उस दिल दहला देने वाले कांड को उत्तराखंड के लोग कभी नहीं भूला पाएंगे।1994 के इस आंदोलन से अलग राज्य की माँग को और हवा मिली। आंदोलन ने जनान्दोलन का रूप ले लिया और अन्ततः साल 2000 में उत्तराखंड देश का सत्ताइसवाँ राज्य बना। हर साल इस गोलीकांड की बरसी पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री समेत तमाम नेतागण शहीद स्मारक पर श्रद्धांजलि के पुष्प चढ़ाने आते हैं।रामपुर तिराहा कांड को 28 साल हो गए हैं और उत्तराखंड को बने 22 साल का वक्त बीत गया है लेकिन आज भी रामपुर तिराहा कांड के दोषी अपनी जिंदगी आराम से जी रहे हैं. उत्तराखंड को एक अलग राज्य बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले राज्य आंदोलनकारियों को उत्तराखंड के राजनेता भूल गए हैं. वो सत्ता की लड़ाई में जुटे हुए हैं. आंदोलनकारियों ने कहा कि रामपुर तिराहा कांड से जुड़े तमाम ऐसे रहस्य हैं, जो अभी तक रहस्य ही बने हुए हैं. जिसमें एक सबसे बड़ा रहस्य यही है कि आखिर राज्य आंदोलनकारियों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए बंदूक का सहारा क्यों लेना पड़ा? महिलाओं के साथ बर्बरता क्यों की गई ? बेहद भावुकता के साथ आज भी राज्य आंदोलनकारी अपनी पीड़ा बयान करते हुए कहते है, आज भी हैवानियत की शिकार उन महिलाओं के गुनहगारों को सजा नहीं मिल सकी है।महिला आंदोलनकारियों का नेतृत्व कर रही उस बर्बर घटना को याद कर बताती है, कि उस रात के बारे में सोच कर आज भी उनका दिल दहल उठता है। आंदोलनकारी ने इस घटना का जिम्मेदार तत्कालीन मुख्यमंत्री को ठहराया था। गौरतलब है, कि मुजफ्फरनगर रामपुर तिराहा गोलीकांड को 28 साल बीत चुके है, लेकिन अभी तक उसके दोषियों को सजा नहीं मिल पाई है। 28सालों से न्याय की तलाश में दर-बदर घूम रही उत्तराखंडी को ना तो न्याय मिला और ना ही शहीद हुए आंदोलनकारियों के सपनों का उत्तराखंड मिला. यह दृश्य कितना संवेदनहीन रहा होगा इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अगले दिन न सिर्फ अंतराष्ट्रीय स्तर पर घटना की निंदा हुई थी बल्कि घटना की सुनवाई के दौरान 1996 में इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रवि एस. धवन की खंडपीठ में जब यह सुनने को मिला की जो घाव लगे है वो प्रतिरोध की राजनीति की कीमत थी. दो अक्टूबर, 1994 का दिन इतिहास के पन्नों में काला अध्याय बनकर तो दर्ज हो गया, मगर इसका शिकार बने आंदोलनकारियों को न्याय आज तक नसीब नहीं हो पाया। उत्तराखण्ड राज्य को देश का आदर्श राज्य बनाने के लिए हम सभी को एकजुट होकर कार्य करना है, जिससे कि राज्य आन्दोलन के शहीदों के सपनों के अनुरूप प्रदेश का चहुंमुखी विकास किया जा सके। मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रदेश सरकार राज्य आन्दोलनकारियों के कल्याण के लिए वचनबद्ध है। अभी तक की हरेक सरकार ने शहादत व मातृशक्ति की अस्मिता पर राजनीतिक रोटियां सेंकी है। रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को सजा होगी और उत्तराखंड आंदोलन के शहीदों को न्याय जरूर मिलेगा। उत्तराखंड की जनता को आश्वासन देते हुए हाल ही में राजनीतिक रोटियां तो ने यह बयान दिया था। लेकिन इस बयान की व्यावहारिकता जाँचने के लिए जब सत्याग्रह ने न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की तो यह कड़वी हकीकत सामने आई कि प्रदेश के शहीदों को बीते 26 सालों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है।
अभी तक की हरेक सरकार ने शहादत व मातृशक्ति की अस्मिता पर राजनीतिक रोटियां सेंकी है। रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को सजा होगी और उत्तराखंड आंदोलन के शहीदों को न्याय जरूर मिलेगा। उत्तराखंड की जनता को आश्वासन देते हुए हाल ही में राजनीतिक रोटियां तो ने यह बयान दिया था। लेकिन इस बयान की व्यावहारिकता जाँचने के लिए जब सत्याग्रह ने न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की तो यह कड़वी हकीकत सामने आई कि प्रदेश के शहीदों को बीते 26 सालों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है।
राज्य आन्दोलन के दौरान ही नहीं, राज्य बन जाने के कई साल बाद तक हमारी पीढ़ी के आन्दोलनकारी यह कहते थे कि यदि मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को सजा नहीं हुई तो इस राज्य का बनना बेमानी है। आंदोलनकारियों के संघर्ष व कुर्बानी की बदौलत हमें उत्तराखंड राज्य मिला स्थिति तीन न तेरह में वाली है। हमारे पास न तो सत्ता की पावर है और न ही कुछ और। राज्य के आंदोलनकारियों को न तो न्याय मिल रहा है और न ही जिस लक्ष्य को लेकर संघर्ष किया गया था, वह हासिल हो पाया है।

लेखक र्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।