जल विद्युत परियोजना सरकारो के लिए सही और समाज के लिए खराब ही रहा है।
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में त्रासदियों के इतिहास पर नज़र डालें तो लगेगा जैसे वर्तमान समाज का एक छोटा वर्ग अपने काम से और बड़ा वर्ग अपनी चुप्पी से विनाश की लीला को बार बार दोहराने के लिए मज़बूर है. लंबे समय से इंसान प्रकृति के प्राकृतिक स्वरूप से दखलअंदाजी कर रहा है। इंसान की जरूरतों को पूरा करने की बात कहते हुए बिजली उत्पादन के लिए नदियों पर विशालकाय बांध बनाए जाते हैं। इससे नदियों का प्रवाह अवरुद्ध होता है और प्रभाव पारिस्थितिक तंत्र पर भी पड़ता है। देश में गहराता जल संकट नदियों के प्रवाह को बाधित करने का भी एक परिणाम है, लेकिन कोई भी सरकार इसे मानने को राज़ी नहीं होती है। इसके अलावा नदियों का प्राकृतिक स्वरूप बदलना विनाशकारी आपदाओं का कारण भी बनता है। जिसे वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा के रूप में पूरी दुनिया ने देखा था।केदारनाथ आपदा में ‘रामबाड़ा’ नाम का एक गांव तो पूरा ही बह गया था। बाद में पता चला कि गांव नदी के रास्ते पर बसा था। इसी प्रकार देश के विभिन्न हिस्सों में हर साल आने वाली बाढ़ भी इसका एक प्रमाण है, लेकिन इन सब से किसी भी सरकर ने सीख नहीं ली और आज भी नदियों की धाराओं पर बांध बनाने का काम जारी है। बांध बनाना कोई गलत नहीं है, लेकिन बांध जब अधिक संख्या में, वो भी उत्तराखंड जैसे पर्वतीय इलाकों में बनाए जाते हैं, तो इसके भीषण परिणाम सामने आते हैं, जो न केवल पर्यावरण, बल्कि वहां के लोगों के लिए भी विनाशकारी साबित होते हैं। ऐसा ही उत्तराखंड में भागीरथी नदी पर बन रहे बांधों के कारण हो रहा है।नेशनल रजिस्टर ऑफ लार्ज डैम्स 2019 के अनुसार 70 के दशक तक उत्तराखंड में केवल पांच ही बड़े बांध बने थे, लेकिन 70 के दशक के बाद से अब तक 12 बांध बन चुके हैं और 8 बांधों को बनाने का कार्य अभी प्रगति पर है। इनमें सबसे बड़ा बांध है ‘टिहरी बांध’, जिससे करीब 50 किलोमीटर का क्षेत्र जलमग्न हो चुका है। बांध का असर न केवल लोगों के जीवन और आजीविका पर पड़ा, बल्कि मानसिक रूप से भी पड़ा। बांध प्रभावितों को आज भी न्याय नहीं मिल सका है और न उनसे किए गए सभी वादों को पूरा किया गया है। बांध ने उत्तराखंड की कई सांस्कृति व ऐतिहासिक धरोहरों और विरासत को डुबो दिया। इसके साथ ही हजारों लोगों की भविष्य की उम्मीद और यादें भी डूब गईं।पर्यावरण को भी उत्तरखंड के विभिन्न स्थानों पर बांध बनने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है, लेकिन इसकी परवाह किसी को नहीं। इसलिए आज भी बांध बन रहे हैं और विश्व के दूसरे सबसे ऊंचे ‘पंचेश्वर बांध’ को बनाने की तैयारी चल रही है। जिससे लगभग 134 वर्ग किलोमीटर को क्षेत्र पानी में डूब जाएगा।हाल ही में शोध के बताया गया कि ‘‘घाटी में बने विभिन्न बांधों और बैराज के कारण न केवल नदी का प्राकृतिक स्वरूप प्रभावित हुआ है, जबकि नदी का बहाव भी रुका है और इकोसिस्टम पर गहरा असर पड़ा है।’’ इकोसिस्टम पर असर कहीं न कहीं बाढ़ का भी कारण बन रहा है।बाढ़ आने का कारण बड़े पैमाने पर वनों का कटाव भी है। 1970 में अलकनंदा नदी में भयानक बाढ़ आई थी। जिसने यहां के जनजीवन को प्रभावित किया था। शोध में बताया गया कि ‘‘बाढ़ अपने साथ केवल पानी ही नहीं लाती है, बल्कि हजारों टन मलबा बाढ़ के पानी के साथ बहता हुआ आता है, जो पूरे इलाके में व्यापक असर डालता है।’’ बांध बनाने से जो पानी ठहरता है, उससे पहाड़ की ढलाननुमा जमीन ढीली पड़ने लगती है। धीरे धीरे पहाड़ कमजोर हो जाते हैं। उस क्षेत्र की जलवायु में परिवर्तन आने लगता है। मैदानी इलाकों में पानी का बहाव कम या न के बराबर होने से नदियों के कैचमेंट तक सूखने लगते हैं। ऐसे में जलवायु परिवर्तन का असर भी ज्यादा पड़ता है। इसके अलावा बांध को बनाने के लिए बड़े पैमाने पर वनों का कटान किया जाता है, जो पारिस्थितिक तंत्र को अलग प्रकार से नुकसान पहुंचाता है। बांध बाढ़ का कारण इसलिए भी हैं, क्योंकि बरसात के दौरान बांध का पानी ओवरफ्लो होने लगता है तो इसे नीचे की धाराओं में छोड़ दिया जाता है, तो कई बार मैदानों में बाढ़ लेकर आता है। यदि मैदानों में बारिश के कारण पहले ही बाढ़ आई होती है, तो बांध से छोड़ा पानी बाढ़ को और विकराल बना देता है।इस प्रकार की किसी भी योजना को शुरू करने से पहले पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) किया जाता है। साथ ही कई वैज्ञानिक अध्ययन किए जाते हैं, लेकिन आजकल न तो वैज्ञानिक अध्ययन ठीक प्रकार से किया जा रहा है और न ही पर्यावरण प्रभाव आंकलन। ईआईए की तो भी रिपोर्ट भेजी जाती है उसमें पर्यावरण, पारिस्थितिकी और लोगों आदि पर पड़ने वाले प्रभावों को ठीक प्रकार से नहीं बताया गया होता। पंचेवश्वर बांध के संबंध में ईआईए सहित विभिन्न रिपोर्ट की वास्तविकता सभी देख ही चुके हैं। इसलिए ईआईए निष्पक्ष तौर पर सख्ती से किया जाना चाहिए। शोध में बताया गया कि ‘‘जलविद्युत योजनाओं के लिए पेड़ों को काटा गया है। जिससे ढलाननुमा चट्टाने कमजोर हो रही हैं। ऐसे में भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है। जिसका असर पर्यावरण पर ही नहीं, बल्कि उत्तराखंड में इन इलाकों में रहने वाले लोगों पर भी पड़ रहा है। भूस्खलन के कारण कई लोगों के मकान जर्जर हो गए हैं, या टूटने की स्थिति में हैं। खेतों पर भी इसका विपरीत असर पड़ रहा है।’’शोध के अनुसार इस प्रकार की योजनाओं में पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आंकलन किया जाना बेहद जरूरी है।, लेकिन जिस पर्यावरणीय प्रभाव को जाने बिना बांधों का निर्माण किया गया, वो काफी खतरनाक हो सकता है। शोध में इससे पहले हुए शोधों का जिक्र करते हुए कहा गया कि ‘‘इससे पहले हुए शोधों में भी न वैज्ञानिक अध्ययन पूरी तरह किया गया और न ही पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को समझा गया, जिसका असर इंजीनियरिंग पर साफ तौर पर दिखता है।’’ समाधान के तौर पर बताया गया कि ‘उत्तराखंड के कई योजनाएं चल रही हैं। जिसका प्रतिकूल प्रभाव न केवल पर्यावरण पर पड़ रहा है, बल्कि लोगों को जीवन भी असुरक्षित है। इसलिए इन परियोजाओं का व्यापक अध्ययन किया जाना बेहद जरूरी है।’ वास्तव में यदि हम पर्यावरणीय प्रभावों का आंकलन ठीक प्रकार से करें तो दुनिया भर में गहरा रही विभिन्न समस्याओं का समाधान आसानी से किया जा सकता है, लेकिन इसके दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है, जिसका शायद हमारी सरकारों में अभाव है। बडे बांधों के बजाय छोटी छोटी परियोजनाओं व ऊर्जा के अन्य विकल्पों के बजाय इस आत्मघाती परियोजनाओं पर बलात कार्य किया जाता है। इन भ्रष्टाचार को संरक्षण देने वालों के इस कृत्य से न केवल प्रकृति अपितु आम जनता के साथ देश प्रदेश को भी दंश झेलने के लिए अभिशापित होना पड़ता है। इस विषय पर प्रकाशित साहित्य में जल विद्युत परियोजनाओं के प्रभाव पर स्थानीय लोगों एवं अन्य हितधारकों की धारणाएं सामाजिक ताने-बाने में परिवर्तन, जनसांख्यिकी बदलाव वनों, जैव विविधता व कृषि भूमि के नुकसान पर केन्द्रित रहीं है। अतः प्रमुख सुझावों में इन प्रभावों को न्यून्तम रखनें हेतु ज.वि.प. के निर्माण के दौरान पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन को सम्मिलित करते हुए स्थानीय लोगों के हितों का ध्यान रखे जाने की जरूरत महसूस की जाती रही है। अतः इस क्षेत्र में परियोजनाओं को पर्यावरण के अनुकूल एवं सत्त बनाये रखने के लिए एवं विज्ञान-आधारित, बहुआयामी अध्ययन परियोजना-प्रभावित लोगों की भागीदारी से करने की आवश्यकता है जिससे कि जल संसाधनों से विद्युत ऊर्जा के विकास, सामाजिक आर्थिक उन्नयन एवं पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन स्थापित किया जा सके।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।