उत्तराखंड का पारंपरिक व पौष्टिक अनाज झंगोरा

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उत्तराखंड का पारंपरिक व पौष्टिक अनाज झंगोरा

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी यह नारा अक्सर सुनने को मिल जाता था,
मंडुवा, झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में खरीफ की
मुख्य फसलों में शुमार मंडुवा व सांवा झंगोरा, मादिरा का रकबा घट रहा है। राज्य
गठन से लेकर अब तक की तस्वीर इसकी तस्दीक कर रही है। वर्ष 2001-02 में
1.31 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मंडुवा की खेती होती थी, वह 2018-19 में घटकर
करीब 92 हजार हेक्टेयर पर आ गई। इसी तरह झंगोरा के क्षेत्रफल भी 18 हजार
हेक्टेयर की कमी दर्ज की गई है। पहाड़ की पारंपरिक खेती में शुमार कोदा और
झंगोरा के उत्पादन का ग्राफ घट रहा है। इसकी प्रमुख वजह विपणन की समस्या
तथा पलायन माने जा सकते हैं। 9 जुलाई 2015 उत्तराखंड की झंगोरा की खीर
राष्ट्रपति भवन के मेन्यू में शामिल कर ली गयी, ऐसे में सरकार की पेशानी पर
भी बल पड़े हैं। वजह ये कि देश-दुनिया में पौष्टिकता से लबरेज मंडुवा.झंगोरा की
मांग लगातार बढ़ रही है। इसे देखते हुए अब इन फसलों के लिए क्लस्टर
आधारित कृषि को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
सरकार को उम्मीद है कि केंद्र की परंपरागत कृषि विकास योजना का संबल
मिलने पर इस वर्ष वह मंडुवा, झंगोरा का क्षेत्रफल बढ़ाने में सफल रहेगी। मंडुवा
और झंगोरा राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों की महत्वपूर्ण परंपरागत फसलों में शामिल हैं।
खरीफ में मंडुवा दूसरी व झंगोरा तीसरी मुख्य फसल है। असिंचित भूमि में उगाई
जाने वाली वर्षा आधारित यह फसलें मृदा संरक्षण के साथ ही सूखे की स्थिति को
सहन करने की क्षमता रखती हैं। पौष्टिकता से लबरेज होने के कारण राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इनकी मांग में भारी इजाफा हुआ है। उत्तराखण्ड में झंगोरा

की खेती बहुतायत मात्रा में असिंचित भू भाग में की जाती है। यह पोएसी परिवार
का पौधा है। उत्तराखण्ड में झंगोरा को अनाज तथा पशुचारे दोनों के लिये उपयोग
किया जाता है। झंगोरा की महत्ता इसी बात से लगाई जा सकती है कि इसको
बिलियन डालर ग्रास का नाम भी दिया गया है। यह सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु
चीन, नेपाल, जापान, पाकिस्तान तथा अफ्रीका में भी उगाया जाता है। जहां तक
उत्तराखण्ड में झंगोरे की खेती की बात की जाए तो यह असिंचित भूमिए जहां पर
सिंचाई का साधन न हो तथा बिना किसी भारी भरकम तकनीकी के कम लागत से
आसानी से ऊगाई जाने वाली फसल है। कभी-कभी असिंचित धान, चैती धान के
खेतों के चारों ओर भी बार्डर बतवच तथा ठनििमत ्रवदम के लिये भी उगाई जाती
है। यह सभी डपससमजे में सबसे तेज उगने वाली फसल है चूंकि झंगोरे में
विपरीत वातावरण में भी में उत्पादन देने की क्षमता होती है, इसलिये हमारे
पूर्वजों ने यहां की भौगोलिक परिस्थितियों, जलवायु, भूमि के प्रकार के हिसाब से
इस महत्वपूर्ण फसल का चयन किया था। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इससे
अनाज के साथ पशुचारा भी उपलब्ध हो जाता है, जिसे स्थानीय कास्तकार लंबे
समय तक सुरक्षित रखकरए बर्फ के मौसम में या जब पशुचारे की कमी हो इसे
उपयोग करते है।
इसके पशुचारे को अगर कास्तकारों का Contingency fodder plan कहा जाए
तो बेहतर हेगा। विश्वभर में झंगोरा की 32 प्रजातियां पाई जाती है, जिसमें
अधिकतम प्रजाति जंगली है केवल E. utilis तथा E. frumentacea ही मुख्यता
उगाई जाती है। E. utitis जापान, कोरीया तथा चीन में जबकि E. frumentacea
भारत तथा सेंट्रल अफ्रीका में उगाई जाती है। वैसे तो झंगोरे की उत्पति को
सही.सही बता पाना बेहद मुश्किल है लेकिन कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार
पर झंगोरे की उत्पत्ति भारत तथा अफ्रीकी देशों में क्रमवत विकास के साथ.साथ
पाई गई है। Dogget 1989 के अध्ययन के अनुसार झंगोरा की उत्पत्ति इसकी

जंगली प्रजाति E. crus-galli से लगभग 400 साल पूर्व मानी जाती है। कुछ
Archeological वैज्ञानिकों के अनुसार जापान में Yayoi काल में झंगोरे का
उत्पादन (Domestication) का वर्णन मिलता है। झंगोरे में कार्बोहाइड्रेट
65.5g/100 gm की मात्रा चावल की अपेक्षा कम होने के कारण तथा धीमी गति
पाचन होने के कारण इसे मधुमेह रोगियों के लिये सबसे उपयुक्त माना जाता है।
झंगोरे में High dietary fiber तथा Low carbohydrate digestibility होने की
वजह से शरीर में Glucose level को Maintain रखता है । यह Gluten free
food का बेहतर विकल्प भी है, मुख्यत उन लोगों के लिये जो Celiac बीमारी से
ग्रषित है। झंगोरे में कार्बोहाइड्रेट के अलावा प्रोटीन .6.2 ग्राम, वसा 2.2 ग्राम,
फाइबर.9.8 ग्राम, कैल्शियम .20 ग्राम, फास्फोरस 280 मि०ग्राम, आयरन. 5.0
मि0ग्राम, मैग्नीशियम. 82 मि0ग्राम, जिंक 3 मि0ग्राम पाया जाता है। झंगोरे में
प्रोटीन 12 प्रतिशत जो कि 81.13 प्रतिशत 58.56ः है तथा कार्बोहाइड्रेट
58.56ः जो 25.88ःS low digestible होता है।
1970 के दशक तक भारत विश्व में सर्वाधिक Millet उत्पादक देश था। वर्ष 2000
तक देश के विभिन्न प्रदेशो में Millet का उत्पादन 50 से 70 प्रतिशत तक बढ़ा
तथा वर्ष 2005 तक बदलती खाद्य शैली के चलते के Millet का उपयोग केवल
पशुचारे तथा शराब बनाने तक सीमित रह गया। विश्व में वर्ष 2010 तक 0ण्23
टन प्रति हे0 Millet उत्पादन रहा। विश्व में फ्रांस Millet उत्पादन में सबसे अग्रणी
है, केवल फ्रांस में ही 3ण्3 टन प्रति हे0 Millet का उत्पादन होता है। FAO के वर्ष
2013 के अध्ययन के अनुसार भारत में 1,09,10,000.00 टन, नाईजेरिया में 50
लाख टन, चीन में 16,20,000 टन, सूडान में 10,90,000 टन तथा यूथोपिया में
8,07,56 लाख टन उत्पादन रहा जबकि मैखुरी, 2001 के अध्ययन के अनुसार
उत्तराखण्ड मे झंगोरा के उत्पादन क्षेत्र में 72 की कमी आंकी गई है। Agricultural
Engineering colleges Research Institute, Post-harvest Technology,
Centre Tamil Nadu Agriculture University द्वारा झंगोरे की पोष्टिक महत्ता

को देखते हुए झंगोरा से कई प्रकार के खाद्य उत्पाद पापडए इडलीए यानों बढ़ाई,
मुरूरकु, डोसा, पानीयारम, हाट कोलकटाई, रिवन पकोड, इडियापम, पुहो, उपमा,
स्वीट कंसारी, अधीश्रम, खरी, खखरा, मिठाई, कोलकटाई आदि बनाई जाती है
जिसकी स्थानीय बजार में खूब प्रचलन है। Millet का सर्वाधिक उपयोग विश्व में
केवल Alcohol निर्माण के लिये Poultry feed में ही किया जाता है।
Amazon.in में झंगोरे से निर्मित प्राथमिक उत्पाद 90 से 150 किलोग्राम तक
बेचे जा रहें हैं। भारत में ही कई राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय एजेंसीज के द्वारा झंगोरे
का चावल विभिन्न देशो की निर्यात किया जाता है। वर्ष 2016 में ही भारत से
संयुक्त अरब अमीरात तथा सिंगापुर की झंगारे का चावल निर्यात किया गया।
राष्ट्रीय पोषण संस्थान केे अनुसार झंगोरा में कच्चे फाइबर की मात्रा 9.8 ग्राम,
कार्बोहाइड्रेट 65.5 ग्राम, प्रोटीन 6.2 ग्राम, वसा 2.2 ग्राम, खनिज 4.4 ग्राम,
कैल्शियम 20 मिलीग्राम, लौह तत्व पांच मिलीग्राम और फास्फोरस 280 ग्राम
पाया जाता है।यह सभी जानते हैं कि खनिज और फास्फोरस शरीर के लिये बेहद
महत्वपूर्ण होते हैं। झंगोरा में चावल की तुलना में वसाए खनिज और लौह तत्व
अधिक पाये जाते हैं। इसमें मौजूद कैल्शियम दातों और हड्डियों को मजबूत
बनाता है। झंगोरा में फाइबर की मात्रा अधिक होने से यह मधुमेह के रोगियों के
लिये उपयोगी भोजन है। झंगोरा खाने से शरीर में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित
करने में मदद मिलती है। यही वजह है कि इस साल के शुरू में उत्तराखंड सरकार
ने अस्पतालों में मरीजों को मिलने वाले भोजन में झंगोरा की खीर को शामिल
करने का सराहनीय प्रयास किया। उम्मीद है कि इससे लोग भी झंगोरा की
पौष्टिकता को समझेंगे और चावल की जगह इसको खाने में नहीं हिचकिचाएंगे।
असलियत तो यह है कि जो चावल की जगह झंगोरा खा रहा है वह तन और मन
से अधिक समृद्ध है। आज विश्व में ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशो में
अनाज आधारित उत्पाद बहुतायात मात्रा में बनाया जाता है। Millet अन्य अनाज

की अपेक्षा ज्यादा पोष्टिकए Gluten free तथा Slow digestible गुणों के कारण
अन्य अनाजों के बजाय Millet का प्रयोग बहुतायत किया जा सकता है जो कि
Millet उत्पादकों के लिये बाजार तथा उत्पादो के लिये Gluten free food का
बाजार बन सकता है। उत्तराखण्ड में ही नहीं भारत में भी खेती योग्य भूमि का
अधिकतम भू.भाग असिंचित होने के कारण पौष्टिकता से भरपूर Millet उत्पादन
को बढ़ावा दिया जा सकता है जो कि आर्थिकी का एक बडा विकल्प होगा। जोकि
उत्तराखण्ड में पारम्परिक एवं अन्य फसलों के साथ सुगमता से लगाया जा सकता
है जिससे एक रोजगार परक जरिया बनने के साथ साथ इसके संरक्षण से पर्यावण
को भी सुरक्षित रखा जा सकता है ताकि इस बहुमूल्य सम्पदा को अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर आर्थिकी का जरिया बनाया जा सके। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में अगर की
खेती वैज्ञानिक तरीके और व्यवसायिक रूप में की जाए तो यह राज्य की आर्थिकी
का एक बेहतर पर्याय बन सकता है।
उत्तराखंड में नवरात्रों या व्रत आदि के समय में भी झंगोरा का उपयोग किया जाता
है ऐेसे में मंडुवा.झंगोरा जैसी परंपरागत फसलों को परंपरागत कृषि विकास
योजना में रखा गया है। साथ ही उत्पादित फसलों को उचित दर पर खरीदने की
व्यवस्था की गई है। लोगों ने क्लस्टर आधारित खेती में रुचि दिखाई है। यही
कारण भी है कि राज्य में विकसित होने वाले 3900 क्लस्टर में 1482
मंडुवा.झंगोरा के हैं। इन सब प्रयासों से न सिर्फ खेती के प्रति लोगों की उदासीनता
खत्म होगी, बल्कि उन्हें अच्छी आय भी होगी।  झंगोरा एक ऐसा अनाज है
जिसका स्वाद नमकीन और मीठा दोनों व्यंजनों के रूप में लिया जाता है।
चूंकि अब उत्तराखंड अपने पारंपरिक व्यंजनों को भी बढ़ावा दे रहा है तो
अब झंगोरे में भी नये नये प्रयोग हो रहे हैं, जैसे कि कोई इसे पीस कर
डोसा, उत्तपम और तो कोई उपमा जैसे व्यंजन बना कर झंगोरे का एक
नया रूप सामने ला रहा है। उत्तराखंड के होटल भी यहाँ के पारंपरिक

व्यंजनों को लेकर नये नये रूप में अपने मेहमानों को परोस रहे हैं कहीं
इसे झंगोरे की खीर तो कहीं इसे झंगोरा पुडिंग तो कहीं झंगोरा लाप्सी के
नाम से इसे आगे बढ़ाया जा रहा है। झंगोरे की खीर उत्तराखंड का लोकप्रिय
व्यंजन है. बारीक सफेद दाने वाले झंगोरे को हिंदी में सांवा भी कहते हैं.
झंगोरे की खीर स्वादिष्ट पहाड़ी मीठा व्यंजन है, जो कि उत्तराखंड के पहाड़ों
में बड़े चाव से खाया जाता है. व्रत-त्योहारों, खासकर वासंतिक व शारदीय
नवरात्र के दौरान तो लोग झंगोरे की खीर जरूर खाते हैं. अब तो झंगोरे की
खीर देहरादून, मसूरी, हल्द्वानी, नैनीताल जैसे शहरों में होटलों के मेन्यू
का हिस्सा भी बन गई है. झंगोरे से उत्तराखंड के लोगों का बेहद जुड़ाव है.
झंगोरा पहाड़ की संस्कृति का हिस्सा है. इसका अंदाजा इसी से लगाया जा
सकता है कि जब उत्तराखंड बनाने के लिए आंदोलन चल रहा था, तो गली-
गली में नारा गूंजता था- ‘मंडुवा, झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड
बनाएंगे’ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी एक बार उत्तराखंड दौरे पर गए थे तो
उनको डिनर में झंगोरे की खीर परोसी गई तो वे इसके दीवाने होकर रह
गए. यह खीर उन्हें इतनी पसंद आई की राष्ट्रपति भवन में दी जाने वाली
दावतों में झंगोरे की खीर को शामिल करने के लिए कहा मंडुवा और
झंगोरा उत्‍तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों की महत्वपूर्ण परंपरागत फसलों में
शामिल हैं। खरीफ में मंडुवा दूसरी और झंगोरा तीसरी मुख्य फसल है। यह
पौष्टिकता से लबरेज रहती है। हम उत्तराखंडी झंगोरे की कूमत को भूल
गए हैं। जो कभी उत्तराखंडियों की ताकत का राज कहा जाता था, आज वो
ही झंगोरा उत्तराखंड में बेफिक्री की मार झेल रहा है। सरकार
साल 2023 को नेशनल मिलेट्स ईयर घोषित करने के बाद मोटे अनाज के
उत्पादन और मार्केटिंग के लिए रणनीति बना रही जो कि आर्थिकी का एक
बडा विकल्प होगा। लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।