पहाड़ की कृषि आर्थिकी को संवार सकता है ओगल

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पहाड़ की कृषि आर्थिकी को संवार सकता है ओगल

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला 


ओगल कभी उत्तराखंड की मुख्य  फसल  होती थी  ओगळ  से आटा बनता है। ओगल पुरे हिमालय क्षेत्र में हरी सब्जी के काम आता है।ओगल घरेलु उपचार में औषधीय प्रयोग में भी आता है जैसे खून की कमी होने  पर लोहे की कढाई में पत्तों को उबालकर  रोगी को देना।  पुराने कब्ज दूर करने हेतु भी ओगल काम आती है।ओगल में रूटीन पाए जाने  के कारण ओगळ  बहुत उपयोगी है।ओगल के फूलों से नेक्टर मिलता है जिसे शहद की मक्खियाँ  पसंद करती हैं और एक विशेष लाभदायी शहद भी  प्राप्त किया जाता है। कभी ओगल पर निर्भर मधुमखियोंका शाद सबसे मंहगा शहद होता था।  ओगल की पत्तियों से खाद भी बनती है और बंजर भूमि के सुधारी करण  काम भी ओगल आती थी।  ओगल के पत्तों से कपड़े भी रंगे जाते थे। इस लेख का अनुभव है कि उन्नीसवीं – बीसवीं सदी में ओगल को दरकिनार कर दिया गया था जहां तक विश्व में ओगल उत्पादन की बात की जाय तो रूस सर्वाधिक ओगल उत्पादक देश है जिसमें लगभग 6.5 मिलियन एकड़ में इसकी खेती की जाती है जबकि फ्रांस में 0.9 मिलियन एकड़ में की जाती है। 1970 के दशक तक सोवियत संघ में 4.5 मिलियन एकड़ भूमि पर इसकी खेती की जाती थी मिश्रित खेती की यह प्रणाली बारहनाजा नाम से भी जानी जाती थी. इसमें प्रमुख तौर पर मडुआ, चैलाई, झंगोरा, मक्का, ओगल, राजमा, गहत, भट्ट, तोर रैंस ,तिल, जखिया, भांग, भंगीरा जैसी फसलों को शामिल किया जाता था. बारहनाजा खेती को जहां फसल सुरक्षा और उसमें मौजूद पोषक तत्वों के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जाता था वहीं इसके विविध फसल अवशेष पशु चारे के लिए बेहद उपयोगी रहते थे. जमीन की उर्वराशक्ति को समृद्ध रखने में भी बारहनाजा खेती का बडा़ योगदान रहता था.ओगल कुट्टू बेहद पोषक है फाफ़र यानि कुट्टू फ़र की सब्जी तो लगभग सभी लोगों ने खाई होगी और व्रत त्योहार में कुट्टू का आटा भी खूब इस्तेमाल होता है। फाफर को ही आम बोलचाल में कुट्टू कहा जाता है। यह उत्तराखण्ड में पारम्परिक रूप से उगायी जाने वाली फसल है। यह पोलीगानिस परिवार का पौधा है एवं इसकी शुरुआती अवस्था में हरी पत्तियों को सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाता है जो कि आयरन से भरपूर होती है तथा इसके बीज को आटा बनाकर स्थानीय बाजार में स्थानीय विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत नमक चावल के बदले बेचा जाता है, जिसमें नमक छः गुना चावल तीन गुना तक मिलता है। उत्तराखण्ड के फुटकर बाजार में भी इसका मूल्य 60 प्रति किलोग्राम से भी ज्यादा है। प्रदेश में ओगल की खेती निम्न ऊँचाई से उच्च ऊँचाई वाले क्षेत्रों में की जाती है, निम्न तथा मध्य ऊँचाई वाले क्षेत्रों में केवल सब्जी उपयोग हेतु इसको उगाया जाता है तथा बीजों को नकदी अन्य सामग्री के बदले बेचा जाता है। जबकि उच्च ऊँचाई वाले क्षेत्रों में ओगल की ही अन्य प्रजाति जिसको फाफर के नाम से जाना जाता है, को अधिक मात्रा में उगाया जाता है। इसको बड़े व्यापारी घर से ही खरीद कर बड़े बाजारो तक ले जाते हैं।उत्तराखण्ड के चमोली जिले में घाट ब्लॉक, देवराड़ा, गैरसैंण तथा उत्तरकाशी में बड़े बाजारों से खरीरदार आकर 40 से 50 किलोग्राम की दर से खरीद कर ले जाते हैं। जहां तक विश्व में ओगल उत्पादन की बात की जाय तो रूस सर्वाधिक ओगल उत्पादक देश है जिसमें लगभग 6.5 मिलियन एकड़ में इसकी खेती की जाती है जबकि फ्रांस में 0.9 मिलियन एकड़ में की जाती है। 1970 के दशक तक सोवियत संघ में 4.5 मिलियन एकड़ भूमि पर इसकी खेती की जाती थी। वर्ष 2000 के पश्चात् चीन ओगल उत्पादन में अग्रणी स्थान पर आ गया है। जापान भी चीन से ओगल आयात से उपभोग करता है। वर्तमान में रूस तथा चीन 6.7 लाख टन प्रति वर्ष ओगल के साथ अग्रणी देशो में शुमार है। यद्यपि रूस तथा चीन ओगल उत्पादन में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, साथ ही जापान, कोरिया, इटली, यूरोप तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में भी न्यूट्रास्यूटिकल उद्योग में विभिन्न खाद्य उत्पादों के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जहाँ तक ओगल फाफर उत्पादन करने की बात की जाय तो यह दोनों बड़ी आसानी से बिना किसी भारी भरकम तकनीकी के कम उपजाऊ व पथरीली भूमि पर उत्पादन देने की क्षमता रखती है। स्थानीय काश्तकार इन्हीं गुणों के कारण ओगल को दूरस्थ खेतों, जहां पर खाद पानी कम होने पर भी उत्पादन लिया जा सके, में उगाते हैं तथा सब्जी व अनाज दोनों रूपों में प्रयोग करते हैं। वर्तमान में कुटटू का आटा तो पौष्टिकता की वजह से अधिक प्रचलन में है। इसकी चौड़ी पत्तियां होने की वजह से कवर क्रॉप के रूप में भी प्रयोग किया जाता है जो कि मिट्टी से वास्पोत्सर्जन रोकने में सहायक होती है तथा खेत में नमी बनाये रखती है। यदि इसकी वैज्ञानिक विश्लेषण की बात की जाय तो इसका बीज ग्लूटीन फ्री होता है जिसकी वजह से सुपाच्य तथा पौष्टिकता से भरपूर अन्य कई खाद्य उत्पादों को बनाने में मुख्य अवयव के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसी वजह से कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय उद्योगों की ओर से इसकी अधिक मांग रहती है। इसकी पत्तियों में आयरन प्रचुर मात्रा में 3.2 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम होने की वजह से एनीमिया निवारण के लिये बहुत लाभदायक होता है। इसकी पत्तियों के पाउडर बनाकर आटे में मिलाने से फिनोलिक तथा फाईवर का पूरक के रूप में कार्य करती हैं तथा वजन कम करने व रक्त में निम्न प्लाजमा स्तर को बनाये रखने में सहायक होती हैं।इसके अतिरिक्त कुटटू का आटा लीवर में कोलेस्ट्रोल कम करने में भी सहायक होता है। जो शरीर में इन्सुलिन के विकल्प की तरह कार्य करता है तथा ग्लूकोज स्तर को निम्न बनाने में सहायक होता है। ओगल में रूटीन एंटीआक्सीडेंट भी बेहतर मात्रा में पाया जाता है जिसकी लगभग 85 से 90 प्रतिशत एंटीऑक्सीडेंट एक्टिविटी पायी जाती है जबकि फाफर में रूटीन तथा क्वारक्टीन की मात्रा ओगल से 100 गुना अधिक पायी जाती है जो कि एक बेहतर एंटीऑक्सीडेंट के साथ.साथ ग्लूकोज स्तर को भी नियंत्रित करने में सहायक होता है। शायद इन्ही पोष्टिक गुणों के कारण इसकी अंकुरित अनाज अंतरराष्ट्रीय बाजार में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें पॉलिफिनोल की प्रचुर मात्रा होने की बेहतर एंटीऑक्सीडेंट के साथ.साथ पोषक गुणवत्ता युक्त हाइड्रोजिलेट्स उत्पादन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह पोष्टिक उत्पादों के साथ.साथ औद्योगिक रूप से एल्कोहल, औषधि एवं पशुचारा के रूप में भी उपयोग किया जाता है। जहां तक इसकी पोष्टिक गुणवत्ता का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाय तो यह उच्च गुणवत्ता युक्त ग्लूटीन फ्री पोषक आहार के साथ.साथ संतुलित अमीनो अम्ल भी प्रदान करता है तथा विटामिन एवं मिनरल्स से भरपूर होता है।ओगल में प्रोटीन 12 ग्राम, वसा 7.4 ग्रामए कार्बोहाईड्रेट 72.9 ग्राम, कैल्शियम 114 मि0ग्रा0, लौह 13.2 मि0ग्रा0, फास्फोरस 282 मि0ग्रा, जिंक 25 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम तक पाये जाते हैं, जबकि फाफर में वसा 3.11 ग्राम, प्रोटीन 14.34 ग्राम, कार्बोहाईड्रेट 71.80 ग्राम, रिड्यूसिंग शुगर 8.38 ग्राम, पोटेशियम 3132.91 पी0पी0एम0, फास्फोरस 1541 पी0पी0एम0, मैग्निशयम 1230 पी0पी0एम0, कैल्शियम 505.48 पी0पी0एम0, सोडियम 314.62 पी0पी0एम0, मैग्नीज 10.19 पी0पी0एम0 तथा लौह 15.92 पी0पी0एम0 तक पाये जाते हैं। उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में इतनी पोष्टिक एवं औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण फसल जिसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अधिक मांग है, को प्रदेश में व्यवसायिक रूप से उत्पादित कर जीवका उपार्जन का साधन बनाया जा सकता है। चमोली के ग्राम सेलंग में लहलहाती पारंपरिक फसल ओगल और फाफर जिसका बुवाई दायरा सिमटता जा रहा है।आज से दस वर्ष पूर्व गांव के हर छोटे.बड़े किसान ओगल और फाफर की बुवाई करते थे और फसल का खूब उत्पादन होता था!आज गांव के गिने चुने खेत मालिक ही इस फसल की अपने खेतों में बुवाई कर रहे है। फसल उगाई के लिहाज से ओगल और फाफर सरल और सहज है इस फसल को अगस्त के मध्य में आलू के साथ मिश्रित फसल के रूप में उगाई जाती है तथा गुड़ाई.निराई भी इस फसल के लिए अन्य फसल की तुलना में नहीं करनी पड़ती है! औषधीय गुणों से प्रचुर ओगल और फाफर के आटे से रोटी बनायीं जाती है। लगातार जोत भूमि का घटना जंगली भालू का इस फसल को भारी नुकसान पहुंचाया जाना आज ओगल और फाफर की फसल संकटग्रस्त हो गयी है धीरे.धीरे खतों से ये फसल ख़त्म होती जा रही है जो कि पहाड़ी जीवन और ग्रामीण के लिए घोर संकट है। पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य दोनों को ही लाभ होगा। उत्तराखण्ड के लिए सुखद ही होगा किया जाता है तो यदि रोजगार से जोड़े तो अगर ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगी उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य फसल उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग रहती है।

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।