पहाड़ों में मकान बनाने को नहीं कोई मानक ये मकान भूकंपरोधी है
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पूरा मध्य हिमालय जिसमें उत्तराखंड आता है, भूकंप के लिहाज से बड़ा ही संवेदनशील रहा है। उत्तरकाशी और चमोली के भूकंप इसके उदाहरण हैं। ऐसे भूकंपों में सबसे ज्यादा नुकसान मकानों के ध्वस्त होने से होता है, जो भूकंप को ध्यान में रखकर नहीं बनाए जाते। ईंट और कॉन्क्रीट से बेतरतीब बनाए गए ऐसे हजारों मकान इन भूकंपों में ढह चुके है। लेकिन अगर हम गौर करें तो हमें अपनी विरासत में भूकंपरोधी भवन बनाने की तकनीक मिली है,उत्तराखंड भूकंप की दृष्टि से संवदेनशील है। यहां के निवासियों को भूकंप को लेकर चौकन्ना रहने की आवश्यकता है। भूकंप आने पर तुरंत खुले स्थानों पर चले जाना चाहिए और अपने अगल-बगल वाले लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करना चाहिए। हिमालय में विज्ञान विषय पर डा. कालाचंद सेन ने कहा कि हिमालय पूरे देशवाशियों के जीवन का आधार है। यह करोड़ों व्यक्तियों को पीने का पानी देता है, करोड़ों जीव-जंतुओं को पालता है। हिमालय से निकलने वाली नदियां देश के खेतों की सिचाई करती हैं। हिमालय के कारण ही हमारे देश में काफी बिजली मिल रही है।भूकंप से बचाव के लिए भूकंपरोधी मकान बनाने की सिफारिश तो की जा रही है, लेकिन जब पहाड़ी क्षेत्रों में मैदानी इलाकों के लिए निर्धारित मानकों के अनुसार भी मकान नहीं बनेंगे तो मकानों की रक्षा क्या खाक होगी।देश में जो भी मकान बनाने हों उसके लिए भारतीय मानक ब्यूरो मानक निर्धारित करता है। भारतीय मानक ब्यूरो गठन के 68 साल बाद भी पहाड़ी राज्यों में मकानों को बनाने के लिए कोई मानक निर्धारित नहीं कर पाया है। पहाड़ी राज्यों में मकानों को बनाने के लिए मानक निर्धारित न किए जाने से भूकंप के लिए अति संवेदनशील पहाड़ी राज्यों हिमाचल, उत्तराखंड सहित अन्यों में भूकंप आने पर भारी तबाही की आशंका है। मानक निर्धारित न होने के कारण इंजीनियर भी पहाड़ों के लिए मैदानों के लिए निर्धारित मानकों के अनुसार मकान बनवा रहे हैं भारतीय मानक ब्यूरो ने पहाड़ों में मकान बनाने के लिए अभी तक कोई मानक ही नहीं बनाए हैं। मैदानी इलाकों के मानकों के तहत पहाड़ों में मकान बनाए जा रहे हैं जो लोगों की जिंदगी के लिए घातक हैं। मकान बनाने के लिए करीब 25 फुट जमीन के नीचे से सैंपल लिया जाना जरूरी है तभी मिट्टी की सही जांच होगी। मिट्टी की जांच के लिए हिमाचल के अलावा अन्य कई राज्यों में कोई व्यवस्था नहीं है। देश में पहली बार पहाड़ी ढालों पर भवन निर्माण के लिए अलग मानक तैयार होंगे। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) रुड़की का भूकंप इंजीनियरिंग विभाग पहाड़ी ढालों पर भवन निर्माण के लिए अलग मानक तैयार कर रहा है। जिसमें खासतौर पर भवन की नींव (फाउंडेशन) निर्माण के मानक भी तय होंगे। अभी तक पहाड़ी क्षेत्र में भवन निर्माण को मैदानों के लिए बने मानकों का ही इस्तेमाल किया जाता है। हिमालयी क्षेत्र के साथ पूर्वी और पश्चिमी घाट को शिमला, मसूरी, दार्जिलिंग और महाबलेश्वर जैसे हिल स्टेशनों के लिए जाना जाता है। यहां अधिकांश हिल स्टेशन और शहर पहाड़ी ढालों पर ही बसे हुए हैं। इनमें पिछले कुछ दशकों से शहरीकरण और जनंसख्या वृद्धि के साथ पर्यटकों की आमद बढ़ने से विकास का दबाव बढ़ा है, लेकिन पहाड़ी ढालों पर भवन निर्माण के लिए खास मानक नहीं होने से यहां भूकंप और भूस्खलन जैसी आपदाओं में खतरा बना रहता है। इसी के मद्देनजर आईआईटी रुड़की पहाड़ी ढालों पर भवन निर्माण के लिए अलग मानक तैयार करने के काम में जुटा है। जिसमें पहाड़ी ढाल के अनुसार भवन की नींव कैसी हो, इस पर भी फोकस किया जा रहा है।पहाड़ी ढालों पर भूकंप से ज्यादा जान-माल का नुकसान भवनों के ढहने से होता है। मैदान के मानक के अनुसार नींव निर्माण से भूकंप आदि आपदा के दौरान सबसे पहले भवनों की नींव ही ध्वस्त हो जाती है। नींव ध्वस्त होने से पूरा मकान जमींदोज हो जाता है। इसलिए पहाड़ी ढालों पर अलग मानकों की ज्यादा जरूरत है। इतिहास में दर्ज दस्तावेजों के अनुसार कुमाऊं में चंद शासन काल में काष्ठ कला विकसित हुई थी. तत्कालीन राजाओं ने इस कला को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. माना जाता है कि गुजरात, महाराष्ट्र एवं राजस्थान से जैसे-जैसे लोग आते गए, कुमाऊं में काष्ठकला भी विकसित होती रही. यही कारण है कि आज भी इन राज्यों के ग्रामीण अंचलों की कला कुमाऊं की काष्ठकला से मिलती है. अल्मोड़ा का जौहरी बाजार या फिर खजांची मोहल्ला, दोनों ही इलाके शहर के प्राचीनतम जगहों में शुमार हैं. यहां आज भी सैंकड़ों वर्ष पुराने भवन शहर की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं. इन भवनों में काष्ठ कला का विशेष महत्व है. हाथों से लकड़ियों पर तराशी गई नक्काशी और कलाकृतियां लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करते रहते हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में पर्वतीय शैली में बने भवन काफी मजबूत होते है. दरअसल, कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में पारंपरिक घर वैज्ञानिक दृष्टि से भी काफी फायदेमंद होते है. स्थानीय पत्थर, मिट्टी, गोबर और लकड़ी से तैयार ये घर सर्दियों में गर्म और गर्मियों में ठंडे होते हैं. इसके साथ ही भूकंप की दृष्टि से भी ये भवन मजबूत माने जाते हैं. लेकिन अब इस कला को जीवंत रखने के लिए कुछ ही गिने चुने कलाकार मौजूद हैं.कुमाऊं की काष्ठ कला में दरवाजे के चारों तरफ झालरनुमा आकृतियां, बीच चौड़ी पट्टी में गणेश आदि देवी–देवताओं के चित्रों के अलावा हाथी आदि के चित्र उकरने की मान्यता रही है. दरवाजे के ऊपर की पट्टी पर लोक देवी-देवताओं के चित्रों की पट्टी बनाई जाती रही है. यही कारण था कि चौखट की नक्काशी भी घर की शान हुआ करती थी. राजतंत्र से लेकर ब्रिटिश शासनकाल तक के इतिहास की इस कला में राजस्थानी और दक्षिण भारतीय कला की झलक देखने को मिलती है. लेकिन, अब पहाड़ों में यह कला सिमटती जा रही है. उत्तराखंड में आज भी पहाड़ों पर लकड़ी के घर मिल जाएंगे, ये मकान 4 से 5 मंजिला होते हैं. हर मंजिल की अपनी खासियत होती है. सबसे बड़ी बात ये है कि कई सौ साल पहले बने ये मकान भूकंपरोधी है.