हिमालय में प्राकृतिक आपदा और प्रबन्धन में सरकार की भूमिका
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
उत्तराखंड में भूस्खलन, फ्लैश फ्लड और पहाड़ों के दरकने और गिरने की घटनाएं इतनी ज्यादा क्यों हो रही हैं? हालिया दिनों में हिमालय क्षेत्र में पहाड़ दरकने की कई रिपोर्ट्स आई हैं। हिमाचल, उत्तराखंड से लेकर नेपाल तक भूस्खलन की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है।आम तौर पर धरती की सतह पर स्थित मृदा, पत्थर और चट्टान के गुरुत्वाकर्षण के अधीन ढाल पर खिसकने की प्रक्रिया को भू-स्खलन कहा जाता है। चट्टानों के टूटने से बने छोटे-बड़े भूखण्ड और मलबे में जब बरसात के दौरान पानी भर जाता है तो सतह पर मलबे का भार अत्यधिक बढ़ जाता है जो अस्थिर होकर नीचे की ओर खिसकने लगता है। भू-स्खलन एक जटिल प्रक्रिया है जिसके कई कारण होते हैं। वस्तुतः- भू-आकृति, भूगर्भिक भ्रंश व दरार, अत्यधिक वर्षा अथवा बादल फटना, भूकम्प, जलस्तर में परिवर्तन, तीव्र हिमगलन जैसे प्राकृतिक कारण तथा मानव जनित कारणों में नदी नालों के प्राकृतिक मार्गों में हस्तक्षेप करने और अनियोजित तरीके से भू-उपयोग में बदलाव करने आदि कारण प्रमुखतः माने जाते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में प्रतिवर्ष बरसात के दौरान भू-स्खलन से भारी क्षति होती है। जनधन व पशुधन के घायल होने के साथ ही उनकी मृत्यु तक हो जाती है। मौजूद ढाँचागत सुविधाओं यथा- सड़क, पुल, बिजली, टेलीफोन, नहर,पेयजल व अन्य बुनियादी सुविधाएँ बुरी तरह प्रभावित हो जाती हैं। भू-स्खलनों से खेती-बागवानी की भूमि, वन सम्पदा व जलस्रोतों को भी नुकसान पहुँचता है। कई बार तो सार्वजनिक भवन यथा सरकारी कार्यालयों, अस्पताल, स्कूल आदि भी अपने भू-स्खलन की चपेट में आ जाते हैं। भारी बारिश और भूस्खलन के कारण उत्तराखंड में स्थिति गंभीर है। उत्तराखंड आपदा प्रबंधन नियंत्रण कक्ष का मानना है कि प्रदेश भर में कई बड़े राजमार्ग और ग्रामीण मार्गों को मिलाकर कुल 98 सड़कें बंद हैं, जिन्हें खोलने का काम जारी है और शीघ्र ही खोल दिया आपदा प्रबंधन नियंत्रण कक्ष से प्राप्त जानकारी के अनुसार भारी वर्षा के कारण कई राष्ट्रीय राजमार्ग बाधित है। राज्य आपदा नियंत्रण कक्ष ने बताया कि कि प्रदेश में 98 छोटे-बड़े मार्ग बंद हैं, जिनको खोलने का काम जारी है। इन मार्गों में प्रदेश की कई सड़कें पहाड़ को जोड़ने वाले मुख्य राजमार्ग भी शामिल है। नियंत्रण कक्ष के अनुसार कुमाऊं मंडल में पिथौरागढ़ जिले में 5 बॉर्डर रोड और 10 ग्रामीण मोटर मार्ग अवरुद्ध हैं। बादल फटने के चलते 7 लोग लापता हैं। बागेश्वर जनपद में एक स्टेट हाइवे, एक जिला और 16 ग्रामीण मोटर मार्ग यातायात के लिए नहीं खोले जा सके हैं। इसी प्रकार नैनीताल के 6 ग्रामीण मोटर मार्ग यातायात के लिए अवरुद्ध हैं। अल्मोड़ा जनपद के 2 जिला मार्ग इसी श्रेणी में शामिल हैं, जिन्हें खोलने का काम चल रहा है। टनकपुर-चंपावत राष्ट्रीय राजमार्ग 9 स्वाला के पास भूस्खलन के चलते बंद है। साथ ही 4 ग्रामीण मोटर मार्ग भी अवरुद्ध हैं। गढ़वाल के उत्तरकाशी में राष्ट्रीय राजमार्ग 123 हरबर्टपुर बड़कोट जूडो नामक स्थान पर अवरुद्ध है। दो ग्रामीण मोटर मार्ग भी अवरुद्ध हैं। देहरादून का ऋषिकेश-देहरादून राज्यमार्ग रानीपोखरी पुल टूटने के कारण बंद है जबकि राष्ट्रीय राजमार्ग-123 हरबर्टपुर-बड़कोट अलग-अलग तीन जगहों पर अवरुद्ध है। जिले में 1 मुख्य जिला मार्ग और 5 ग्रामीण मार्ग यातायात के लिए बंद हैं। चमोली में बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग 07 पीपलकोटी के पास भनेरपानी और पागलनाले में मलबा आने से रुका है, जिससे वाहनों की लंबी कतारें दोनों तरफ लग गई है। चमोली जिले में 23 ग्रामीण मोटर मार्ग भी यातायात के लिए अवरुद्ध हैं।पौड़ी जिले में 2 मुख्य जिला मार्ग और 8 ग्रामीण मोटर मार्ग बंद हैं। टिहरी जिले में ऋषिकेश से श्रीनगर-बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग -58 तोताघाटी के पास मलबा आने के कारण रोका गया है। वैकल्पिक मार्ग ऋषिकेश कोटद्वार पौड़ी श्रीनगर होते हुए उपलब्ध कराया गया है। जिले में 06 अन्य ग्रामीण मोटर मार्ग भी बंद हैं नासा की फरवरी 2020 की एक स्टडी बताती है कि हिमालय क्षेत्र में भारी बारिश और जलवायु परिवर्तन क्षेत्र में भूस्खलन में बढ़ोतरी का कारण बन सकती है। स्टडी टीम को पता चला था कि तापमान में हो रही बढ़ोतरी से चीन और नेपाल के बॉर्डर इलाके में भूस्खलन की गतिविधि बढ़ सकती है। क्षेत्र में विशेष रूप से ग्लेशियर और ग्लेशियल झील वाले क्षेत्र में अधिक लैंडस्लाइड होने से बाढ़ जैसी आपदा आ सकती है और इसका असर सैकड़ों किलोमीटर दूर पड़ सकता है। एक्सपर्ट के अनुसार इसकी वजह संवेदशनशील हिमालयी इलाकों में इंसानों की गतिविधियों का बढ़ना है। हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ उम्र के हिसाब से युवा हैं। ये अभी मजबूत हो रहे हैं। ऐसे में इन पर हो रहे विकास कार्यों की वजह से दरारें पड़ती हैं, जिससे पहाड़ों का भार संतुलन बिगड़ता है। बारिश के मौसम और बारिश के बाद इनकी नींव कमजोर होकर गिरने लगती है। पहाड़ी दरकने से गुरुत्व पेयजल योजना नेस्तनाबूद हो गई। जहां तहां पाइप लाइन उखड़ने से सैली व तैली सुनोली गांव की जलापूर्ति ठप हो गई है। करीब एक हजार की आबादी बूंद-बूंद को तरसने लगी है। ग्रामीण दूर स्रोतों से हलक तर करने का जुगाड़ कर रहे पर वह भी नाकाफी साबित हो रहा।बीते दिनों भारी बारिश से पंतकोटली की पहाड़ी दरकने से भूस्खलन हो गया। इससे कफड़ा क्षेत्र के सैली व तैली सुनोली गावों के लिए ऐरोली गधेरे से बनी 12 किमी लंबी गुरुत्व योजना ध्वस्त हो गई है। मलबा व बड़े पत्थर गिरने से योजना कई स्थानों पर क्षतिग्रस्त हो गई है। पाइप उखड़ने से पानी की बर्बादी भी हो रही। वहीं दोनों गांवों में चार दिन से जलापूर्ति बाधित है। बुधवार को ग्राम प्रधान आदि ग्रामीणों ने तहसीलदार को ज्ञापन देकर योजना की शीघ्र मरम्मत करा समस्या से निजात दिलाने का आग्रह किया। हिमालय क्षेत्रों में सरकारी विभागों द्वारा अनियोजित और अवैज्ञानिक विकास के असर लगातार देखे जा रहे हैं, पर पर्यावरण मंत्रालय इसके पर्यावरण की लगातार उपेक्षा कर रहा है और उसे जिसकी रक्षा करनी चाहिए उसी के विनाश में लगातार शामिल रहा है। ऋषिकेश और देहरादून के बीच एक सड़क पुल बाढ़ में 27 अगस्त को बह गया। जुलाई के बाद से हिमालय के क्षेत्रों में भारी बारिश, बादल के फटने, हिमस्खलन और भूस्खलन और चट्टानों के गिरने की खबरें करीब रोज ही आती रही हैं।हिमालय पर हाईवे जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट का पर्यावरणविद लगातार विरोध करते रहे हैं, फिर भी सरकारें जनता को और न्यायालयों को गुमराह कर और जरूरत पड़े तो सरासर झूठ बोलकर भी, ऐसी परियोजनाएं पूरी करती रहीं। पर्यावरण मंत्रालय प्रकृति के विनाश में केवल शामिल ही नहीं रहा बल्कि अग्रणी भूमिका निभा रहा है। हिमस्खलन, भूस्खलन और चट्टानों के गिरने की घटनाएं सबसे अधिक हाईवे के किनारे ही होती हैं, क्योंकि इसके लिए चट्टानों को जकड़ने वाले पेड़ों को काट डाला जाता है और बड़े मशीनों और ब्लास्टिंग के बाद हाईवे के किनारे की चट्टानें कमजोर हो जाती हैं। भूस्खलन की संभावना वाले क्षेत्रों में क्या बदलाव आ रहे हैं. इन क्षेत्रों की नियमित रूप से निगरानी एवं सर्वेक्षण करने की जरूरत है ताकि पहले से ही तैयारी की जा सके. स्थानीय स्तर पर व्यवस्था को मजबूत बनाना होगा. पर्वतीय इलाकों के लिये विकास के मॉडल को पर्यावरण सुरक्षा के साथ लोगों को आजीविका की वैकल्पिक सुविधा के साथ जोड़ना होगा. इन प्रयासों में जनभागीदारी जरूरी है. जिला, तालुका एवं ग्राम स्तर पर आपदा का मानचित्र तैयार करना होगा क्योंकि प्रकृति ने समस्या दी है तब समाधान भी वहीं है. पर्वतीय इलाकों के लिये लोगों को आवास का मॉडल भी देना होगा. नीति के स्तर पर कोई कमी नहीं है. अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं राज्यों के स्तर पर अच्छी नीति बनी है. लेकिन हमें इन्हें लागू करने के विषय पर ध्यान देने की जरूरत है. ऐसा इसलिये क्योंकि अलग अलग जगहों की जरूरतें अलग हैं, उन स्थानों पर नीतियों पर अमल के दौरान उतार चढ़ाव आते हैं लेकिन आपदाएं समान रूप से नुकसान पहुंचाती हैं. उत्तराखंड सहित पर्वतीय क्षेत्रों के विकास का मॉडल अलग होना चाहिए. पिछले 20-25 वर्षो में इसमें बिगाड़ आया है. इन पहाड़ी इलाकों में पेड़ों की कटाई तो हुई ही हैं लेकिन नए पेड़ नहीं उगे. प्राकृतिक रूप से भी दोबारा पेड़ नहीं उगे हैं. इसका कारण यह है कि एक तो लोगों ने जमीन खाली नहीं छोड़ी है और दूसरा बारिश के पानी के तेज बहाव में उर्वर भूमि की परत बह गई. ऐसे में नये पेड़ कहां पैदा होंगे ? घास, झाड़ियां, पौधे और पेड़ पत्थरों को बांध कर रखते हैं लेकिन पहाड़ों के बंजर होने एवं उन पर वनस्तियों की कमी से पत्थर ढीले पड़ गए, ढ़लान पर पानी के बहाव में ये चट्टान एवं पत्थर खिसक जाते हैं. भूस्खलन का असली कारण चट्टान एवं पत्थरों पर मिट्टी एवं वनस्पतियों की पकड़ कमजोर होना है. पहाड़ों को लेकर हमारे विकास का मॉडल पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी सम्मत होना चाहिए. हर क्षेत्र का स्थानीय मॉडल तैयार करने की जरूरत है