उत्तराखंड को ग्रीन बोनस पर अभी भी इंतजार बरकरार
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल (32,87263 वर्ग किमी) में से 16.3 प्रतिशत (5,37,43 वर्ग किमी) में फैले 11 हिमालयी राज्यों में अभी तक 45.2 प्रतिशत क्षेत्र में जंगल मौजूद है। देश में केवल 22 प्रतिशत भू-भाग में ही जंगल है, जो स्वस्थ पर्यावरण मानक 33 प्रतिशत से भी कम है।भारतीय हिमालयी राज्यों की ओर देखा जाये तो यहाँ से निकल रही हजारों जलधाराएँ, नदियाँ, ग्लेशियर के कारण, इसे एक जलटैंक के रूप में देखा जाता है। जिससे देश की लगभग 50 करोड़ की आबादी को पानी मिलता है। मैदानी भू-भाग से भिन्न हिमालयी संस्कृति वनों के बीच पली बढ़ी है। यहाँ का स्थानीय समाज जंगलों की रक्षा एक विशिष्ट वन प्रबन्धन के आधार पर करते हैं। हिमालय राज्यों की सरकारें ग्रीन बोनस की माँग कर रही हैहिमालय के खूबसूरत दृृश्य दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते है । हिमालयी राज्यों से निकल रही हजारों जल धारा, नदियां, ग्लेश्यिर के कारण, इसे एक जल टैंक के रूप में देखा जाता है । हिमालयी संस्कृति वनों के बीच पली बढ़ी है । यहां का स्थानीय समाज जंगलों की रक्षा एक विशिष्ट वन प्रबंधन के आधार पर करता है । आधुनिक विकास की अवधारणा में इस समाज की कोई हैसियत नहीं बची है । ऐसे में समूचे पर्यावरण को बचाये रखने की महती जिम्मेदारी निभा रहे इस समाज की हम सब को परवाह करनी चाहिए । मैदानी भू-भाग से भिन्न हिमालयी संस्कृति वनों के बीच पली बढ़ी है । यहां का स्थानीय समाज जंगलों की रक्षा एक विशिष्ट वन प्रबंधन के आधार पर करता है । अधिकांश गांव ने अपने जंगल बचाकर, उस पर अतिक्रमण और अवैध कटान रोकने के लिये चौकीदार रखे हुए है । ये वन चौकीदार अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न नामों से पुकारे जाते है, जिसका भरण-पोषण, निर्वाह गांव के लोग करते है । कई गांव के जंगलों में तराजू लगे हुए हैं, जिसमें जंगल से आ रही घास, लकड़ी का अधिकतम भार ५०-६० किलोग्राम तक लाना ही मान्य है । जिसकी जांच वन चौकीदार करते है । हिमालय के लोगांे की इस पुश्तैनी वन व्यवस्था को तब झटका लगा जब अंगे्रजों ने वनों के व्यावसायिक दोहन के लिये १९२७ में वन कानून बनाया । इसके अनुसार जंगल सरकार के आंकडों में आ गये थे । इसी के परिणाम स्वरूप हिमालय क्षेत्र के राज्यों की ओर देखें तो पर्यावरण की सर्वाधिक सेवा करने वाले वन और स्थानीय समाज की हैसियत अब उनके पास नहीं बची है । राज्य की व्यवस्था है कि वे जब चाहें किसी भी जंगल को विकास की बलिवेदी पर चढ़ा सकते हैं। लेकिन यहां सरकारी आंकडांे के आधार पर हिमाचल प्रदेश में ६६.५२, उत्तराखण्ड में ६४.७९, सिक्कि\R में ८२.३१, अरूणाचल प्रदेश ६१.५५, मणिपुर में ७८.०१, मेघालय में ४२.३४, मिजोरम में ७९.३०, नागालैण्ड में ५५.६२, त्रिपुरा में ६०.०२, आसाम में ३४.२१ प्रति ात वन क्षेत्र मौजूद है । वनों की इस मात्रा के कारण जलवायु पर भारतीय हिमालय का नियंत्रण है।सन् २००९ में कोपनहेगन में हुए जलवायु सम्मेलन से पहले विभिन्न जन सुनवाई के द्वारा लोगों ने हिमालय की विशिष्ट भू -भाग, प्राकृतिक संसाधन और इससे आजीविका चलाने वाले समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा के लिये ग्रीन बोनस की मांग की है। भारत के तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस दिये जाने को सैद्धान्तिक स्वीकृति दी थी । वैसे चिपको, रक्षासूत्र, मिश्रित वन संरक्षण से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता वर्षो से हिमालय के लोगों को ऑक्सीजन रॉयल्टी की मांगकर रहे थे । इसमें जगतसिंह जंगली आदि कई लोगों ने अभियान भी चलाये है । सरकारी व्यवस्था के मन में भी हिमालय के जंगलों की कीमत पैसे के रूप में दिखाई देने लगी । जबकि पर्यावरण की सेवा सबसे अधिक जंगल करते है । इसके अलावा हिमालय का खूबसूरत दृश्य दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। अत: मांग केवल इतनी थी कि ऑक्सीजन की रॉयल्टी के रूप में रसोई गैस लोगों को नि:शुल्क दिया जाये। इसी सिलसिले में विकसित देशों के सामने कार्बन उत्सर्जन की कीमत वसूलने की दृष्टि से भी प्रो. एसपी सिंह द्वारा एक आंकडा सामने आया । जिसमें कहा गया कि भारतीय हिमालय राज्यों के जंगल प्रतिवर्ष ९४४.३३ बिलियन मूल्य के बराबर पर्यावरण की सेवा करते है । अत: कार्बन के प्रभाव को कम करने मेें वनों का एक बड़ा महत्व है। इसमें हिमालयी राज्यों के वन जैसे जम्मू कश्मीर में ११८.०२, हिमाचल में ४२.४६, उत्तराखण्ड में १०६.८९, सिक्कि में १४.२, अरूणाचल में ३२.९५, मेघालय में ५५.१५, मणिपुर में ५९.६७, मिजोरम में ५६.६१, नागालैण्ड में ४९.३९, त्रिपुरा में २०.४० बिलियन मूल्य के बराबर पर्यावरण सेवा देते है । अब हिमालय राज्यों की सरकारें ग्रीन बोनस की मांग कर रही है. अकेले उत्तराखण्ड सरकार केन्द्र से २ हजार करोड़ रूपये की मांग कर रही है । इसका औचित्य तभी है, जब स्थानीय लोगों को वनभूमि पर मालिकाना हक मिले गांव में भूक्षरण रोका जाये । वनों में आग पर नियंत्रण और वृक्षारोपण के बाद लम्बे समय तक पेड़ों की रक्षा करने वाले लोगों को आर्थिक मदद मिलना चाहिये । गांव में जहां लोगों ने जंगल बचाये है, उन्हें सहायता दी जाये । पहाड़ी शैली की सीढ़ीनुमा खेतों का सुधार किया जाना आवश्यक है । महिलाओं को घास, लकड़ी, पानी सिर और पीठ पर ढुलान करने के बोझ से निवृत्ति मिलनी चाहिये । हिमालय की पहरेदारी करने वाले पेड़ों और लोगों की जीविका बेहतर हो सकती है । चिन्तनीय है कि यदि जीएसटी एवं नोटबंदी से आमदनी पर पडे असर की पूर्ति के लिये राज्य सरकारें ग्रीन बोनस की मांग कर रही है तो हिमालय की पर्यावरण सेवाओं के घटक जल, जंगल, पहाड़ तो और मुश्किलों में पड़ सकते है । उत्तराखंड और अन्य पर्वतीय राज्यों पर पर्यावरण संरक्षण की बहुत बड़ी जिम्मेदारी हैं। लेकिन इस दायित्व की पूर्ति के लिए ये राज्य बड़ी कीमत चुका रहे हैं। उत्तराखंड के ऊर्जा राज्य का सपना टूटने की सबसे बड़ी वजह यही है। इको सेंसिटिव जोन में होने की वजह से 24 जल विद्युत परियोजनाओं पर ताला लटक गया है। कई बड़ी और मध्यम श्रेणी की परियोजनाओं का भविष्य अंधकार में हैं। सैकड़ों गांव सड़कों से नहीं जुड़ पाएं हैं। भारत के पर्वतीय राज्यों में सारी चहल-पहल कुछेक शहरी पर्यटन स्थलों तक सीमित है। पहाड़ी गांवों में लोगों के पास आमदनी का कोई जरिया नहीं है, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं नहीं हैं, लिहाजा पहला मौका मिलते ही वे मैदानी शहरों में चले आते हैं। इसी बेचैनी के चलते ही अलग राज्य बनाने और स्वायत्त क्षेत्र घोषित करने की मांग तमाम पहाड़ी इलाकों में उठती रही है लेकिन नतीजा घूम-फिरकर वही रहता है। असम से अलग होकर कई छोटे-छोटे राज्य बनते गए लेकिन समस्याएं ज्यों की त्यों हैं।
उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग वहां विकास का पर्वतीय मॉडल विकसित करने से जुड़ी थी लेकिन आज उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में बैठकर देखें तो सारा सरकारी ढर्रा मैदानी ही दिखता है। पता नहीं यह स्थिति कभी बदलेगी या नहीं लेकिन इसकी रोशनी में जो प्रस्ताव मसूरी सम्मेलन में पारित हुए, उसमें दो बहुत ठोस हैं। एक यह कि पर्यावरण से जुड़ी जिम्मेदारियों और बाध्यताओं की भरपाई के लिए हिमालयी राज्यों को केंद्र की ओर से कुछ ‘ग्रीन बोनस’ दिया जाए, और दूसरा यह कि इन राज्यों के लिए केंद्र में एक अलग मंत्रालय बनाया जाए। हाल तक केंद्र सरकार में एक मंत्री को उत्तर-पूर्वी राज्यों का प्रभार देने की परंपरा रही है। इसमें उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर को भी शामिल कर लें तो हिमालयी राज्यों की यह मांग पूरी की जा सकती है। इससे नॉर्थ-ईस्ट को राजनीतिक रूप से साधे रखने का उद्देश्य कुछ हल्का भले पड़ जाए लेकिन देश की उत्तरी सीमा को लेकर सरकार की सजगता और संवेदनशीलता बेहतर होगी। इस क्रम में अगर जम्मू-कश्मीर से लेकर मणिपुर तक हिमालयी संस्कृति की एकता के कुछ तत्व खोजे और सहेजे जा सकें तो यह देश के लिए एक जवाबी बोनस होगा, जिसका महत्व ग्रीन बोनस से कहीं ज्यादा होगा। पर्यावरण संरक्षण के एवज में ग्रीन बोनस की मांग उठा रहे उत्तराखंड समेत अन्य हिमालयी राज्यों का इंतजार और बढ़ गया है। आम बजट में ग्रीन बोनस को लेकर कोई जिक्र नहीं हुआ है। यानी, अब इन राज्यों को अपना पक्ष और तार्किक ढंग से केंद्र के समक्ष रखना होगा। अलबत्ता, आम बजट में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन, पर्यटन-संस्कृति को लेकर किए गए प्रविधानों का लाभ उत्तराखंड को भी मिलेगा। विशेषकर 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले बड़े नगरों में स्वच्छ हवा सुनिश्चित करने के लिए बनाई जा रही योजनाओं के क्रियान्वयन को प्रोत्साहन देने के केंद्र के एलान से।यह किसी से छिपा नहीं है कि उत्तराखंड समेत हिमालयी राज्य पर्यावरण संरक्षण में अहम भूमिका निभा रहे हैं। उत्तराखंड की ही बात करें तो यह सूबा सालाना करीब तीन लाख करोड़ की पर्यावरणीय सेवाएं दे रहा है। इनमें अकेले वनों से मिलने वाली पर्यावरणीय सेवाओं की भागीदारी 95 हजार करोड़ के आसपास है।इस तरह से उत्तराखंड भी केंद्र सरकार के पर्यावरण एवं जल संरक्षण के एजेंडे को निरंतर आगे बढ़ा रहा है। वह भी तमाम दुश्वारियां झेलने के बाद भी। 71 फीसद से ज्यादा वन भूभाग होने के कारण विकास योजनाओं पर वन कानूनों का पहरा है तो वन्यजीवों का खौफ भी कम नहीं है। बावजूद इसके जल, जंगल का संरक्षण यहां की प्राथमिकता में शुमार है।ऐसे में पर्यावरणीय सेवाओं को सहेजने के फलस्वरूप उठानी पड़ रही क्षति की पूर्ति के लिए राज्य ग्रीन बोनस की मांग कर रहा है। पिछले वर्ष उत्तराखंड की पहल पर हुए हिमालयन कॉन्क्लेव में हिमालयी राज्यों ने यह मसला केंद्र के समक्ष रखा था। तब इसे लेकर मिले सकारात्मक संकेतों को देखते हुए उत्तराखंड भी केंद्र की तरफ टकटकी लगाए हुए देख रहा था। उम्मीद थी कि आम बजट में ग्रीन बोनस की साध पूरी हो सकेगी, लेकिन इसके लिए इंतजार और बढ़ गया है। प्रदेश सरकार विशेष प्रयास कर रही है। इस कड़ी में प्रदेश में स्वदेश दर्शन, महाभारत सर्किट व 13 जिले, 13 नए पर्यटन स्थल जैसी योजनाएं बनाई गई हैं। इस दिशा में काम भी चल रहा है, लेकिन इनके लिए राज्य सरकार केंद्र से आर्थिक सहायता की आस भी लगाए है।