कुमाऊं को गढ़वाल से जोड़ने वाला कंडी मार्ग 21 साल बाद भी नहीं बन सकी

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कुमाऊं को गढ़वाल से जोड़ने वाला कंडी मार्ग 21 साल बाद भी नहीं बन सकी

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्‍तराखंड राज्‍य गनने के 21 साल बाद भी कुमाऊं को गढ़वाल से जोड़ने वाला कंडी मार्ग नहीं बन पाया है। हर बार नेताओं ने कंडी मार्ग बनाने के वादे तो किए, लेकिन कभी इसे बनाने में अपनी इच्छा शक्ति नहीं दिखाई। आलम यह है कि इस मार्ग पर रामनगर से कोटद्वार तक जो बस सेवा संचालित थी। वह भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पिछले साल से बंद है।कुमाऊं के नैनीताल जिले के रामनगर को गढ़वाल के कोटद्वार से जोडऩे वाला कंडी मार्ग का करीब 42 किलोमीटर का हिस्सा कार्बेट टाइगर रिजर्व के कोर एरिया से होकर गुजरता है। इसे आवाजाही के लिए खोलने के मकसद से वर्ष 1999 में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने सड़क बनाने की अनुमति दी थी। राच्य गठन के बाद उत्तराखंड सरकार ने 42 किलोमीटर के मार्ग को ऑल वेदर रोड में बदलने का प्रस्ताव रखा तो कई एनजीओ सड़क बनाने के विरोध में सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए।एनजीओ ने बाघों की मौजूदगी होने व सड़क निर्माण से बाघों के संरक्षण पर सवाल उठाया। वर्ष 2017 में सीएम ने कंडी मार्ग बनाने का एलान किया। इस बीच सर्वे भी हुआ। पौड़ी संसदीय सीट से सांसद व पूर्व सीएम तीरथ सिंह रावत ने भी इसे मुद्दे को लोकसभा में उठाया। राच्य सभा सदस्य अनिल बलूनी व वन मंत्री ने भी कंडी मार्ग निर्माण को अपनी प्राथमिकता बताया। लेकिन कोर्ट में उचित पैरवी न होने व इच्छा शक्ति के अभाव में कंडी मार्ग नहीं बन पाया है।कंडी मार्ग बनने से रामनगर-कोटद्वार की दूरी कम हो जाएगी। वर्तमान में उप्र से होकर गुजरने से कोटद्वार की दूरी 162 किलोमीटर है। जबकि इस मार्ग के बनने से यह दूरी महज 88 किलोमीटर होगी। साथ ही कोटद्वार-हरिद्वार का रामनगर के बीच व्यापार के साथ पर्यटन गतिविधि भी बढ़ेगी। इसी मार्ग से देहरादून जाने में भी कम समय लगेगा।कंडी मार्ग निर्माण संघर्ष समिति के अध्यक्ष बताते हैं कि टनकपुर से जौलासाल -चोरगलिया-हल्द्वानी-रामनगर होते हुए कोटद्वार तक जाने वाला मार्ग दो सौ साल पुराना है। इस मार्ग को बनाने के लिए वे वर्ष 2005 में सड़क बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट गए। 2010 में हाईकोर्ट गए। कोर्ट ने इस मार्ग को बनाने का आदेश दिया। वर्ष 2014 में फिर हाईकोर्ट गया। मेरे खिलाफ 25 एनजीओ ने रिट दायर कर दी। कोर्ट ने मेरी रिट वापस करवा दी। अब फिर से एनजीओ से जुड़े एक व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में रिट लगाई है। उनकी ओर से भी सुप्रीम कोर्ट में रिट लगाई गई है। इस सड़क का महत्व अधिक बढ़ गया है। यह मार्ग पौड़ी जिले के कोटद्वार समत अन्य स्थानों से मरीजों को चिकित्सा सुविधा के लिए ऋषिकेश व देहरादून आने-जाने के लिए सबसे सुगम है। इसके निर्माण से जहां उत्तर प्रदेश से होकर आने-जाने के झंझट से निजात मिलेगी, वहीं धन व समय की बचत भी होगी। वर्तमान में ऐसा कोई मार्ग न होने के कारण उप्र के बिजनौर क्षेत्र से होकर गुजरना पड़ता है। ऐसे में समय के साथ ही टैक्स के रूप में धन की हानि भी उठानी पड़ती है।हालांकि, कंडी रोड को खोलने के लिए कसरत लंबे समय से चल रही है, लेकिन वन एवं वन्यजीवों से संबंधित कानून इसके आड़े आते रहे हैं। पूर्ववर्ती खंडूड़ी सरकार के कार्यकाल में भी इस मार्ग के लिए बाकायदा धन भी स्वीकृत हुआ, लेकिन वन कानूनों की अड़चन दीवार बनकर खड़ी हो गई। आजादी के बाद भी साठ और सत्तर के दशक में रामनगर से कालागढ़, कोटद्वार और हरिद्वार के बीच इस मार्ग पर जीएमओयू की गंगा बस सर्विस चलती थी. मेटाडोर भी इस मार्ग पर चलती थी. मोहन लाल बैठियाल बताते हैं कि वन विभाग की ओर से कंडी रोड पर पाखरौ, सनेह और चिल्लरखाल के पास लालढांग में वाहनों से टैक्स लिया जाता था. अभी भी लालढांग में और पाखरौ में वन विभाग की चेक पोस्ट हैं.कंडी रोड पर बैलगाड़ी में जंगल से लकड़ी काटकर ले जाई जाती थी. इसी लिए इस रोड का नाम कंडी रोड पड़ा. यह उस समय का सबसे लंबा कच्चा व्यापारिक मार्ग था. कुमाऊं से भी कई लोग लकड़ी काटने के लिए पैदल चले थे, जो बाद में कोटद्वार के मैदानी क्षेत्र भाबर में बस गए. आज में भाबर क्षेत्र में कुमाउंनी लोगों का एक विशाल समुदाय निवास करता है. बताया जाता है कि ये लोग उसी समय यहां बांस काटने आए थे, जो बाद में यहीं बस गए. कोटद्वार के किसान नेता बताते हैं कि आजादी के बाद बिजनौर वन प्रभाग और लैंसडौन वन प्रभाग के तत्कालीन कई अफसर कोटद्वार में रहते थे.जिनका निधन हो चुका है.लेकिन वे बताते थे कि कंडी रोड का विस्तार गढ़वाल कुमाऊं से अधिक हिमाचल और नेपाल बॉर्डर तक था. जिनके प्रमाण वन विभाग के पास मिल जाएंगे. अस्सी के दशक में कोटद्वार से कंडी रोड का निर्माण कार्य शुरू हुआ. जो पक्की सड़क बन रही थी. कोटद्वार से पाखरौ तक पक्की सड़क बन गई थी. सड़क में कई स्थानों पर ह्यूम पाइप डल चुके थे. लेकिन अचानक वन कानून और वन्य जीव संरक्षण के नियम और लोगों की आपत्ति के कारण सड़क का कार्य रुक गया.आज भी कोटद्वार से पाखरौ तक ही पक्की सड़क है. इसके आगे वन क्षेत्र में कच्ची सड़क है. अस्सी के दशक में सड़क निर्माण में जो पेड़ कटे थे उनके बदले में यूपी क्षेत्र में वनीकरण भी हो चुका है. लेकिन उसके बाद से सड़क निर्माण का मामला आज तक लटका हुआ है. ऐतिहासिक ब्रिटिश कालीन सड़क न सिर्फ सड़क थी बल्कि व्यापार का मुख्य संसाधन, सीमाओं का विभाजन और संस्कृति और परंपराओं को भी जोड़ती थी  उत्तराखंड पृथक राज्य बना और इसकी राजधानी देहरादून बनाई गई. इसके बाद गढ़वाल से कुमाऊं जाने के लिए भी यूपी से होकर जाना पड़ा. जिससे टैक्स और अन्य दिक्कतों को देखते हुए कंडी रोड खोलने की मांग शुरू हुई. कार्बेट पार्क बनने के बाद और वन अधिनियमों के चलते भी कंडी रोड का पेंच फंसता गया. वर्तमान सरकारें भी कई बार इस रोड को बनाने के बारे में बोल चुकी थी नतीजतन, मामला लटक गया है.।