उत्‍तराखंड के पांच जिलों में वनावरण में हुई कमी, जिससे चिंता और चुनौती बढ़ी

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उत्तराखंड के पांच जिलों में वनावरण में हुई कमी, जिससे चिंता और चुनौती बढ़ी

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

 उत्तराखंड वर्ष 2019 से 2021 के बीच कुल वनावरण (फारेस्ट कवर) में 2.09 वर्ग किलोमीटर का इजाफा हुआ। हालांकि, इस बढ़त के बाद भी पांच जिले ऐसे हैं, जहां वनावरण में गिरावट दर्ज की गई। इनमें तीन जिलें पर्वतीय और दो मैदानी हैं।भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआइ) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बागेश्वर, चंपावत, टिहरी, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर में बीते दो साल में वनावरण में 8.16 वर्ग किलोमीटर की कमी पाई गई है। इसका प्रमुख कारण वन विभाग के अधिकारी विकास कार्यों के लिए पेड़ों के कटान को मान रहे हैं। वनावरण में सर्वाधिक 3.71 वर्ग किलोमीटर की गिरावट ऊधमसिंह नगर में और इसके बाद 1.59 वर्ग किलोमीटर की गिरावट टिहरी में पाई गई।अच्छी आबोहवा के लिए आवश्यक है कि आसपास पेड़पौधे और हरियाली हो। इसमें जंगल सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस दृष्टिकोण से देखें तो उत्तराखंड के पांच जिलों की तस्वीर ने थोड़ी चिंता बढ़ा दी है। राज्य में वनावरण (फारेस्ट कवर) को लेकर एफएसआइ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि यहां के पांच जिलों हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर, चम्पावत, बागेश्वर टिहरी में पिछले दो साल में वनावरण में कमी दर्ज की गई है। इसका कारण विकास कार्यों के लिए हस्तांतरित की गई भूमि से पेड़ों का कटना बताया जा रहा है। यह कहीं कहीं विकास और जंगल के मध्य सामंजस्य के अभाव को भी दर्शाता है। इससे चिंता के बादल घुमड़ना स्वाभाविक ही है। ऐसे में अब चुनौती इन जिलों में वनावरण बढ़ाने के साथ ही उसे बरकरार रखने की भी है। यानी, ऐसे कदम उठाने की आवश्यकता है, जिससे जंगल सुरक्षित रहें और विकास का पहिया भी घूमता रहे। ज्यादा समय नहीं बीता, जब वन विभाग ने कार्बेट और राजाजी टाइगर रिजर्व के जंगलों में वन्यजीवों की दो प्रजातियों को फिर से बसाने को कसरत शुरू की थी। इसके अंतर्गत कार्बेट टाइगर रिजर्व में असोम से गैंडे लाए जाने थे तो कर्नाटक से राजाजी टाइगर रिजर्व में वाइल्ड डाग (सोन) को। असल में, पुराने अभिलेख बताते हैं कि एक समय में कार्बेट में गैंडों का संसार बसता था, जो बाद में विलुप्त हो गया। इसी तरह राजाजी में भी सोन का बसेरा था। इन दोनों वन्यजीवों को फिर से यहां बसाने के मद्देनजर अध्ययन हुआ। प्रस्ताव को राज्य वन्यजीव बोर्ड से भी हरी झंडी मिली और फिर राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण केंद्रीय चिडिय़ाघर प्राधिकरण से पत्राचार भी हुआ। बावजूद इसके दो साल का समय बीतने को है, लेकिन गैंडे आए और सोन। अब इस विषय पर विभाग ने चुप्पी ही साध ली है। अनुपयोगी वनस्पतियों से उत्तराखंड के जंगल भी अछूते नहीं हैं। तमाम तरह की घुसपैठिया प्रजातियों ने यहां के जंगलों में डेरा डाला है, लेकिन सर्वाधिक नींद उड़ाई है लैंटाना कमारा ने। स्थानीय बोली में इसे कुर्री कहा जाता है। यह ऐसी झाड़ीदार प्रजाति है जो अपने आसपास किसी दूसरी वनस्पति को नहीं पनपने देती। साथ ही वर्षभर खिलने के कारण इसका प्रसार भी बढ़ता रहता है। इसी के चलते कुर्री को यहां की पारिस्थितिकी के लिए नुकसानदेह माना जाता है। यद्यपि, इस पर नियंत्रण को प्रयास हो रहे हैं, लेकिन ये कारगर साबित नहीं हो पा रहे। स्थिति ये है कि राज्य का शायद ही कोई जंगल होगा, जहां कुर्री ने दस्तक न दी हो। सभी जगह इसके बड़े-बड़े प्रक्षेत्र दिखाई पड़ते हैं। ऐसे में कुर्री पर नियंत्रण की चुनौती अधिक बढ़ गई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे पार पाने के लिए अधिक गंभीरता से कदम उठाए जाएंगे। राज्य में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही अब आने वाले दिनों में जंगल से गुजरने वाली सड़क फिर से चर्चा के केंद्र में रहेगी। राजनीतिज्ञ इसे अपनी प्राथमिकता बताएंगे और निर्माण का वादा भी करेंगे। उत्तराखंड आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तराखंड में 51,125 वर्ग किलोमीटर के कुल क्षेत्र में से लगभग 71.05 प्रतिशत भूमि वन आच्छादित है. इसमें से 13.41 प्रतिशत वन क्षेत्र वन पंचायतों के प्रबंधन के अंतर्गत आता है और राज्य भर में ऐसी 12,167 वन पंचायत हैं.उत्तराखंड की वन पंचायतें सामुदायिक वनों को कुशलता से प्रबंधित करने के लिए जानी जाती हैं. प्रत्येक वन पंचायत स्थानीय जंगल के उपयोग, प्रबंधन और सुरक्षा के लिए अपने नियम बनाती है. ये नियम वन रक्षकों के चयन से लेकर बकाएदारों को दंडित करने तक हैं. उत्तराखंड की वन संपदा ,प्रकृति ने उत्तराखंड की भूमि के कदम-कदम पर अपनी अनोखी चित्रकारी से अनेक रंग भरकर इसके प्राकृतिक सौंदर्य में चार चांद लगाएं हैं। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य ही नहीं बरन यहां का भूभाग भी विस्मित कर देने वाला है ।यहां का आधा भूभाग तो एकदम मैदान हैं तो आधा भूभाग ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों ,पर्वतों, झरनों , ऊंचे ऊंचे पेड़ों जंगलों तथा बर्फ से ढके हुए हिमालय से बना है।वन किसी भी समाज का अभिन्न अंग होते हैं। वहां के आर्थिक जीवन का हिस्सा होते हैं। साथ ही साथ वहां के पर्यावरण संतुलन को भी संतुलित रखने में मददगार होते हैं ।उत्तराखंड में इसी प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने के लिए निश्चित क्षेत्र में दो तिहाई यानी लगभग 66 प्रतिशत वनों का होना जरूरी है। जिसमें मैदानी भू भाग में लगभग 21 प्रतिशत वनों का होना जरूरी है।