महिलाओं को क्यों नहीं मिलता बराबरी का हक?

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महिलाओं को क्यों नहीं मिलता बराबरी का हक?

 डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला 

सियासी दल महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने के दावे करते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और बयां करते हैं। जब चुनाव की बारी आती है तो महिलाओं को टिकट नहीं मिलते। देहरादून जिले की विधानसभाओं में भाजपाकांग्रेस ने एकएक महिला प्रत्याशी को ही टिकट दिया है। यह पहला मौका नहीं है, जब महिलाओं की उपेक्षा हुई। पहले भी जब चुनाव हुए हैं, तब भी टिकट वितरण में महिलाओं को नजरअंदाज किया गया। पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीति में महिलाओं की भागीदारी वाला मुद्दा फिर गरमा गया है। वैसे इस मुद्दे को विधानसभा चुनावों के केंद्र में लाने की शुरुआत राष्ट्रीय महासचिव ने की और इस तरह इस सूबे में जाति व धर्म की नकारात्मक राजनीति में नया राजनीतिक एजेंडा सेट कर दिया। वैसे संसद और विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग संबंधित विधेयक के हश्र पर बीते कई वर्षो से कोई राजनीतिक चर्चा ही सुनाई नहीं पड़ती। पहाड़ी राज्य कहे जाने वाले उत्तराखंड की रीढ़ आज भी महिलाएं ही हैं. महिलाएं यहां खेत से लेकर सर्विस सेक्टर तक में काम कर रही हैं. लेकिन इसके बावजूद पहाड़ में महिलाओं की ज़िंदगी को आसान और बेहतर बनाने के लिए ऐसे काम नहीं हुए हैं जिनके वादे राजनीतिक दल चुनावों के समय करते हैं. महिलाओं का कहना है कि चुनाव के वक्त राजनेता जो वायदे करते हैं सत्ता मिलने पर अगर उन पर काम होता तो महिलाओं की न सिर्फ स्थिति में सुधार होता बल्कि यहां पलायन भी रुकता. उत्तराखंड राज्य निर्माण हो या फिर राज्य बनने के बाद मतदान में महिलाओं का मत प्रतिशत पहाड़ की महिलायें पुरुषों के मुकाबले कहीं भी कम साबित नहीं हुई है. लेकिन जिस तरह से इस बार के चुनावों में पहाड़ में महिलाओं के विकास को लेकर मुद्दे राजनीतिक दलों के एजेंडे से गायब हैं महिलाओं की समानता का अधिकार बढ़ाने के लिए अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर मनाया जाता है. इस दिन महिलाओं की आजादी और समानता के प्रति समाज को जागरूक करने के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. इस मौके पर तमाम संगठन और संस्‍थान संगोष्‍ठी का आयोजन करके समानता के अधिकारों का खूब ढिंढोरा पीटते हैं. दूसरी ओर देश में तमाम राजनीतिक दलों के द्वारा महिलाओं को समान अधिकार देने के लिए बड़ी-बड़ी बातें, लंबे-चौड़े भाषण दिए तो जाते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर अमल में लाया नहीं जाता है. आमतौर पर किसी के समानता के अधिकारों को अगर जानना है तो हमें सामाजिक, राजनीतिक परिवेश को समझना होगा.महिलाओं की समानता, राजनीति में उनकी उपेक्षित भागीदारी, समाज में उनको मिले अभी तक बराबरी का हक कितना सफल हो पाया है, उत्तराखंड में मातृ शक्ति की हर मोर्चे पर अहम भूमिका रही है। राज्य आंदोलन से लेकर चुनावों में भागीदारी में भी मातृशक्ति हमेशा अग्रिम पंक्ति में खड़ी रही है। यही वजह है कि राजनीतिक दलों की मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए बनाई जाने वाली तमाम योजनाओं के केंद्र में मातृशक्ति जरूर रहती है। उत्तराखंड की मतदाता सूची पर नजर डालें तो प्रदेश में कुल 8237913 मतदाता हैं। इनमें से 3919334 महिला मतदाता हैं। यह कुल वोटरों का तकरीबन 48 फीसद हैं। पर्वतीय क्षेत्रों की अधिकांश विधानसभाओं में महिला मतदाता पुरुष मतदाताओं की तुलना में अधिक वोट देती हैं। ऐसे में महिला मतदाताओं की भूमिका अहम हो जाती है। सांगठनिक दृष्टि से महिला मोर्चा काफी मजबूत है। बात पहले होगी राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं की निर्णायक भूमिका की. भारत में आजादी के बाद से ही महिलाओं को पुरुषों के समान वोट देने का अधिकार जरूर मिला लेकिन उनकी स्थिति अभी तक बेहद विचारणीय है. सिर्फ बातों तक ही सीमित हैं राजनीतिक दलों के वायदे लोगों का कहना है महिलाओं को प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के बराबर लाने के राजनीतिक दलों के वादे तथा दावे सिर्फ बातों तक ही सीमित है। जबकि असलियत कुछ और ही कहती है। वैसे कोई भी संस्था तब तक कारगर नहीं हो सकती, जब तक महिलाओं को कमतर आंका जाएगा। उदाहरण के लिए, घर, समुदाय, कार्यक्षेत्र और राजनीतिक क्षेत्र में उन्हें बराबरी का हक मिले। ऐसा होगा, तभी जाकर अहम बदलाव नजर आएगा।