पहली बार चुनावी मैदान में नहीं हैं यूकेडी अध्यक्ष 

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पहली बार चुनावी मैदान में नहीं हैं यूकेडी अध्यक्ष 

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

जिसमें उत्तराखंड क्रांति दल की अहम भूमिका रही, लेकिन राज्य गठन के 21 साल बाद भी यूकेडी प्रदेश में एक सशक्त क्षेत्रीय दल के तौर पर नहीं उभर सकी है। जो कभी किंगमेकर था, वह आज अपने अस्तित्व के लिए तरस रहा है। अलग राज्य की मांग को लेकर दल की ओर से चलाया गया जन आंदोलन तेज हो गया। चाहे दो अक्तूबर 1994 का मामला हो या फिर मसूरी गोलीकांड या फिर रामपुर तिराहा और खटीमा गोलीकांड उत्तराखंड क्रांति दल हर मोर्चे पर राज्य आंदोलन में मजबूती के साथ खड़ा रहा। जब राज्य आंदोलन 1996 में पूरे चरम पर था तो यूकेडी ने ‘राज्य नहीं तो चुनाव नहीं’ का नारा देते हुए चुनाव का बहिष्कार कर दिया। नौ नवंबर 2000 को राज्य का गठन हुआ। उत्तराखंड क्रांति दल के केंद्रीय अध्यक्ष काशी स‍िंह ऐरी ने कहा है कि उत्तराखंड की राजनीति में अब स्वच्छ छवि वालों के लिए कोई स्थान नहीं है। राजनीति शराब और खनन पर केंद्रित हो गई है। प्रदेश के युवाओं को राजनीति में बदलाव के लिए आगे आना होगा। पिछले तीन दशक में उत्तराखंड की राजनीति में बड़ा नाम माने जाने वाले काशी सिंह ऐरी पहली बार चुनाव मैदान से बाहर हैं। मंगलवार को उन्होंने अपनी पीड़ा मीडिया से साझा की। उन्होंने कहा कि अलग राज्य की लड़ाई इस उद्देश्य से लड़ी गई थी कि युवाओं को रोजगार मिले वे पलायन के लिए मजबूर हो। राज्य के जल, जंगल और जमीन स्थानीय लोगों के काम आए, लेकिन राष्ट्रीय दलों ने इस पूरी मंशा पर पानी फेर दिया। उत्तराखंड में पूरी तरह यूपी की राजनीति हावी कर दी।चुनाव अब केवल धनबल और बाहुबल पर लड़े जा रहे हैं। स्वच्छ छवि और राज्य के हितों के प्रति संवेदनशील लोगों के लिए राजनीति में अब कोई जगह नहीं है। राज्य के युवाओं को अब इस पर सोचना होगा। राजनीति की गंदगी युवा वर्ग ही साफ कर सकता है। रोजगार के लिए लडऩे वाले युवाओं को चुनाव के वक्त इस बात को ध्यान में रखना चाहिए। उत्तराखंड बनने से पहले यूपी के दौर से पहाड़ की सियासत में एक नाम जो सबसे अधिक चर्चित रहा, वो है काशी सिंह ऐरी. राज्य की क्षेत्रीय राजनीति में अहमियत रखने वाले उत्तराखंड क्रांति दल के नेता ऐरी को एक दौर में उत्तराखंड का पर्याय समझा जाता था, लेकिन अब ऐरी का चुनावी राजनीति से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. 37 साल के इतिहास में ये पहला मौका है, जब उत्तराखंड के चुनावी रण में ऐरी नहीं दिखाई देंगे. मौजूदा सियासत के लिए खुद को अनुकूल न मानने वाले ऐरी ने चुनावों से तौबा क्यों की है? इसके कारण बताते हुए वह राजनीति के मूल्यों पर एक बहस भी छेड़ रहे हैं.एक दौर था, जब उत्तराखंड से बाहर पहाड़ के जिन गिने-चुने नेताओं को जाना जाता था, उनमें अहम नाम काशी सिंह ऐरी का था. ऐरी ने यूपी के दौर में डीडीहाट विधानसभा से यूकेडी के बैनर तले 1985 में पहली बार विधायक का चुनाव जीता. फिर 1989 और 1993 में भी वह विधायक बने. तब ऐरी की लोकप्रियता ये थी कि अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ लोकसभा से सांसद का चुनाव वह सिर्फ 9000 वोटों से हारे थे जबकि इसी चुनाव में बीजेपी के कद्दावर नेता को सिर्फ 36,000 वोट मिले थे. अब हालात ये हैं कि ऐरी ने खुद को चुनावी राजनीति से दूर कर लिया है. वर्तमान राजनीतिक हालात उन जैसे नेताओं के लिए मुफ़ीद नही रह गए. वह कहते हैं, ‘अब चुनावों में पैसों का बोलबाला है और हम पैसों के पीछे कभी नहीं भागे.’ ऐरी के मुताबिक उन जैसे नेताओं ने संघर्ष ज़रूर किया, लेकिन अब नतीजा ये है कि बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में वह खुद को फिट नहीं पा रहे हैं. अलग राज्य की लड़ाई इस उद्देश्य से लड़ी गई थी कि युवाओं को रोजगार मिले वे पलायन के लिए मजबूर न हो। राज्य के जल, जंगल और जमीन स्थानीय लोगों के काम आए, लेकिन राष्ट्रीय दलों ने इस पूरी मंशा पर पानी फेर दिया। उत्तराखंड में पूरी तरह यूपी की राजनीति हावी कर दी।चुनाव अब केवल धनबल और बाहुबल पर लड़े जा रहे हैं। स्वच्छ छवि और राज्य के हितों के प्रति संवेदनशील लोगों के लिए राजनीति में अब कोई जगह नहीं है। राज्य के युवाओं को अब इस पर सोचना होगा। राजनीति की गंदगी युवा वर्ग ही साफ कर सकता है। रोजगार के लिए लडऩे वाले युवाओं को चुनाव के वक्त इस बात को ध्यान में रखना चाहिए। 68 वर्षीय काशी सिंह एरी में अब जुझारूपन नहीं रहा है, उनका कहना है – मैं चुनाव नहीं लड़ रहा हूं क्योंकि उक्रांद के पास न तो पैसा है और न ही शक्ति। मेरी एकमात्र जिम्मेदारी पार्टी उम्मीदवारों की सहायता करना है पार्टी के अथक प्रयासों के बाद राज्य की स्थापना हुई, लेकिन आंदोलनकारियों ने जिस राज्य की परिकल्पना की थी वह 21 साल बाद भी पूरी नही हुई