होली के गीतों का समृद्ध भंडार और विविधताएँ
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत में होली गीत गायन की समृद्ध परंपरा रही है। मीरा बाई, पद्माकर से लेकर रसखान और आधुनिक हिंदी कवियों में भारतेंदु से लेकर निराला तक, सभी ने होलियाँ लिखी हैं। गीत हमारी संस्कृति के लोक-व्यवहार और आचार-विचार से इस प्रकार गूँथे हुए हैं कि वे जीवन का एक अनिवार्य अंग बन गए हैं।वास्तव में यह भावाभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम भी हैं जो पीढ़ियों के अनुभवजन्य विचारों का शब्दांतरण स्वरूप हैं। इनमें धरती की महक है। पर्वतों से उतरते झरनों की चंचलता है। सागर की उत्ताल तरंगों का उल्लास है। प्रकृति की सुंदरता का सम्मोहन है।प्रत्येक ग्रामीण अंचलों में होली समूह में गाई जाती है और लोगों को कंठस्थ है। वह जिस शास्त्रीय राग में है उसी में या उसके आसपास रहते हुए गाई जाती है और उसी के रस रंग की सृष्टि करते हैं। यह लोक तथा शास्त्रीय के बीच एक अदृश्य पुल का काम करती है। उसमें भक्ति भी है और संगीत भी, रस भी है और रंग भी, वियोग भी है और संयोग भी उल्लास भी है और उमंग भी।ज्यों-ज्यों होली का पर्व समीप आता है इन संगीत गोष्ठियों का रंग तथा उल्लास और गहरा होता चला जाता है। मृदंग, झांझ, ढफ की थापों पर सब थिरक रहे हैं। रंग-गुलाल उड़ रहा है, सब हिल-मिलकर फाग खेल रहे है। अबीर और गुलाल की खुमारी लिए गायकों की टोली दोपहर बाद गम्मत के लिए जमती है, बिना रंग झरे ही रस की वर्षा से सारा वातावरण सराबोर हो जाता है।मधुमास के नीलगगन की उज्जवलता कब सिंदूरी होकर सुरमई हो जाती है इसका भान किसी को भी नहीं होता। होली के गीत अपने दामन में इन्हीं सारी खूबियों को समेटे होते हैं। भाव तथा बंदिश की दृष्टि से यह संगीत अपनी विविधता में अनूठा है।होली की गम्मतों की अपनी अलग और अनूठी शब्दों और भावों की सुंदर कसीदेकारी होती है, शैली होती है। गायन का एक क्रम होता है। प्रारंभ में गंभीर तथा विलंबित तालों पर गाए जाने वाले काफी, पीलू आदि रागों का गायन होता है।गंभीर रागों के साथ हल्की-फुल्की रचनाओं का दौर भी चलता है जो गम्मत को गति प्रदान करती हैं। इन होली गीतों में उत्सव है, शिकायतें हैं, हास-परिहास है, भक्तिभाव है। इन गीतों की भाषा, इनमें बैठा रस, इनकी गहरी उदासी और कविता में उत्सर्ग की भावना अचानक हमको बहुत गहरे तक छू सकती है और हमको भीतर से उजला और पवित्र बना सकती हैं।संगीत, सौंदर्य का साकार और सजीव चित्र होता है और गीत, शास्त्रीय संगीत की जीवन धारा। फाग इन गीतों में अपनी सभी कलाओं के साथ उपस्थित है और बिखरा है चारों ओर होली का उल्लास। रस, भाव, छंद की विविधता तथा भाषा का सौष्ठव इनमें देखते ही बनता है।अपनी विविधता तथा समृद्धि के कारण यह भंडार अमूल्य तथा दुर्लभ है। शब्द स्वर तथा भावों के सुंदर समन्वय ने इसमें अद्भुत सम्मोहन भर दिया है। इसलिए कला मर्मज्ञ इसके प्रति सदा से ही आकर्षित होते रहे हैं। एक-एक पद सुंदरता का नमूना है जैसे किसी मूर्तिकार ने मिट्टी में प्राण फूँक दिए हों।ब्रज के अधिकतर होली गीत भगवान कृष्ण की लीलाओं पर केंद्रित होते हैं। वहाँ भगवान कृष्ण के विविध रूप हैं, राधा और गोपियाँ हैं, संयोग और वियोग है, प्रेम और विरह है और हैं प्रकृति की अनुपम छटाएँ। मर्यादा पुरुषोत्तम राम इन होलियों में कम ही दिखाई देते हैं लेकिन समय के साथ-साथ लोक चेतना ने उन्हें भी होली के उत्सव में शामिल कर लिया है।शास्त्रीय संगीत की जड़ें लोक संगीत में है। यही वजह है कि लोक संगीत में कई बार शास्त्रीय राग रागिनियों का पुट मिल जाता है। लोक गीतों में संगीत के अलावा भाषा का भी अपना ही एक अलग रस होता है। रस और माधुर्य से सराबोर यह भाषा शताब्दियों से कविता और छंद की भाषा कही जाती है। ठुमरी, दादरा, चैती जैसी उप शास्त्रीय गायन शैलियों को इसने अद्भुत सुंदरता प्रदान की है।भाषाओं की इस विविधता और सौंदर्य को बचाना भी हमारा काम होना चाहिए। थोथी आधुनिकता के शोर-शराबे के बीच अब इन लोक गीतों का माधुर्य लुप्त होने लगा है। कला में रचनात्मक स्फूर्ति के लिए, नवीनता के लिए और सौंदर्य के लिए हमें अपने लोक कलाओं के पास जाना ही चाहिए। उनके सतत पुनः अवलोकन और उनसे आत्मीय संवाद की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। कुमाऊंनी होली एक ऐसी परंपरा है जो आज प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश में भी काफी लोकप्रिय हो चुकी है। पौष का महीना आते ही कुमाऊंनी परिवारों के आंगन में बैठकी होली से इस पर्व की शुरुआत होती है। हर घर में महिलाओं का उल्लास, उमंग और पारंपरिक गीतों की मधुर ध्वनि मन को सुकून देती है। यही वजह है कि इस पर्व को उत्तराखंड के बाहर भी पसंद किया जा रहा है। होली एक ऐसा त्योहार है, जिसने बदलते दौर में अपना स्वरूप भी बदला है और उसका विस्तार भी हुआ है। हिंदी पट्टी में यह सैकड़ों वर्षों से रंग-गुलाल, मस्ती और पकवानों का त्योहार रहा है, लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में होली का वह ग्रामीण-गंवई रूप अब कमोबेश लुप्त हो रहा है। यहां के ठेठ ग्रामीण इलाकों में जोगीड़ा सारा रारा और द्विअर्थी संवादों वाले गीत के साथ मांसाहार और छककर शराब पीने का भी रिवाज है। यह आकस्मिक नहीं है कि देसी शराब पीने से होने वाली मौतें ज्यादातर इसी समय सामने आती हैं। लेकिन इसी इलाके के शहरी क्षेत्र में होली धीरे-धीरे बदल रही है। पूड़ी और पुआ (आटे-मैदे को पानी में धोलकर घी या तेल में तलकर बनाया जानेवाला पकवान) की जगह गुझिया लेने लगी है। टेलीविजन, इंटरनेट और सोशल मीडिया के प्रसार के इस दौर में हिंदी पट्टी के शहरी इलाके में रंग बदलती होली बहुत कुछ कहती है। होली का एक दूसरा वैष्णव स्वरूप ‘दोल’ के रूप में पूर्वी भारत-खासकर पश्चिम बंगाल, असम और मणिपुर में है। हिंदी पट्टी में होली के दिन मांसाहार की परंपरा के विपरीत यह वैष्णव होली, जो मणिपुर के गोविंदजी मंदिर में कई दिनों तक मनाई जाती है, भारत की विविधता का ही उदाहरण है। लेकिन यह आश्चर्य से कम नहीं है कि जिस उत्तराखंड में होली की परंपरा बहुत प्राचीन नहीं है और टिहरी के राजदरबार में भी मैदान से ही आई, वहां उसकी शास्त्रीयता न केवल अक्षुण्ण है,बल्कि पहाड़ ने इसमें नए आयाम जोड़े हैं। उत्तराखंड का संस्कृति सचेतन इलाका कुमाऊं और गढ़वाल-दोनों जगह पवित्र पौधे की डाल लाकर लगाने, पूजने, चीर बांधने-बांटने,बैठी-खड़ी होले का फर्क निभाने और महिलाओं का स्वांग निभाने आदि अनेक ऐसी चीजें हैं, जो मैदानी होली में नहीं दिखाई देतीं। शास्त्रीयता और गीतों की विविधता उत्तराखंड की होली को विशिष्ट बनाती है। यहां होली गायन की अवधि सबसे लंबी होती है और पिथौरागढ़ में तो रामनवमी तक गाई जाती है। ये होली गीत निर्वाण, भक्ति, शृंगार और वियोग प्रधान होते हैं। उत्तराखंड के सामाजिक-समसामयिक आंदोलनों में होली गीतों ने बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिसमें गुमानी, गोर्दा, चारुचंद्र पांडेय, गिर्दा आदि का उल्लेखनीय योगदान रहा है। दरअसल उत्तराखंड के होली गीतों ने धीरे-धीरे यहां के स्थानीय तत्वों का समावेश किया। होली गीतों में भी कुमाऊं में शास्त्रीयता पर ज्यादा जोर रहा। अल्मोड़ा से न केवल इसकी शुरुआत हुई, बल्कि यहां के हुक्का क्लब जैसे संगठनों की इसमें ऐतिहासिक भूमिका प्रमाणित है। जबकि गढ़वाल के नृत्यगीतों में ब्रजमंडल के गीतों का गढ़वालीकरण ज्यादा हुआ है। उत्तराखंड के होली गीतों की और कई विशेषताएं ध्यान देने लायक है। जैसे,यहां के होली गीतों में शिव का आवाहन है, जो मैदानी होली में नहीं है, कामदेव को भस्म कर देने वाले प्रसंग में शुरुआती दौर में भले रहा हो। वह तो आश्चर्य का विषय है। महिलाओं द्वारा यहां होली गायन की अलग से जो स्वांग परंपरा है, वह पुरुषों के सामूहिक पलायन के कारण कदाचित अधिक मजबूत हुई है, जिसमें विरह,रोमांस और पीड़ा है। ऐसे ही पहाड़ की होली में सर्वधर्मसमभाव के चित्र भी मिलते हैं। अल्मोड़ा में होली गायन की जिस शास्त्रीय परंपरा ने जड़ पकड़ी, उसमें मुस्लिम गायकों का योगदान था। पौड़ी में होली गायन कभी बड़े याकूब के नेतृत्व में होता था, तो 1935 में श्रीनगर की होली बैठकों में ईसाइयों के भाग लेने का जिक्र है। कहते हैं, कभी तवायफें भी होली गायन में सम्मिलित होती थीं। इसमें कोई शक नहीं कि समय के अंतराल में पर्व-त्योहार और उसे मनाए जाने के तरीके बदल जाते हैं। होली की शुरुआत जिस मदनोत्सव से मानी जाती है, आज की होली उसकी परंपराओं को भी भला कहां बरकरार रख पाई है!यह मानने का भी कोई कारण नहीं कि मैदान में होली का मौजूदा रूप अशिष्ट ही है। बल्कि कोई त्योहार आज अगर ग्रामीण जीवन की सबसे ईमानदार प्रतिच्छवि है, तो वह होली ही है। लेकिन उत्तराखंड में होली की संस्कृति को जिस तरह बचाए रखा गया है