हिमालयी ग्लेशियर बदल रहे हैं रास्ते टेक्टोनिक प्लेट भी एक वजह

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हिमालयी ग्लेशियर बदल रहे हैं रास्ते टेक्टोनिक प्लेट भी एक वजह

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला 

 

जलवायु परिवर्तनके कारण पूरी दुनिया में ऐसा बदलाव देखने को मिल रहे हैं जिनका अंदेशा आज से 50 साल पहले बिलकुल नहीं था. वायुमंडल से लेकर महासागरों में हर जगह जलवायु परिवर्तन ने असर दिखाया है. इसमें धरती की कई भूआकृतियों तक में बदलाव देखने को मिलने रहे हैं. जंगल, रेगिस्तान, बर्फ की चादरों के साथ अब हिमलय पर्वत जैसे इलाके भी इसकी जद में आ गए हैं.  अब भारतीय वैज्ञानिकों ने पहली  बार हिमालय ग्लोशियरों में भी एक बदलाव देखा है. ये ग्लेशियर अपने बहाव का रास्ता बदल रहे हैं, जिसके पीछे टेक्टोनिक गतिविधि भी एक कारण है. उत्तराखंड के पिथौरगढ़ जिले के उच्च काली गंगा के ग्लेशियर का अध्ययन किया और पाया कि ग्लेशियर ने असामान्य रूप से अपने बहाव का रास्ता बदल दिया. इसमें भी हैरानी की बात यह रही कि शोधकर्ताओं ने पाया कि इसकी वजह जलवायु परिवर्तन और टेक्टोनिक्स दोनों ही थे.एक ग्लेशियर पर भारी चट्टान बैठी थी जो उसकी दरारों में गुसे पानी, जमाव, बर्फ बारी, अधिक भार और धीमी गति से काम कर रही टेक्टोनिक प्लेट्स के कारण हुए अपरदन की वजह से बहुत नाजुक हो गई थी. इससे से इसकी तबाही इतनी भयावह हो गई थी. नई पड़ताल सुझाती है कि हिमालय बहुत ही सक्रिय पर्वतमाला है और बहुत ही नाजुक है जहां टेक्टोनिक्स और जलवायु बहुत नाजुक भूमिका निभाते हैं. हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों की टीम ने किया था जो जियोसाइंस जर्नल में प्रकाशित हुआ है. वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में  बताया है कि इस पांच किलोमीटर लंबे ग्लेशियर, जो युति युक्ति घाटी के चार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है, ने अचानक अपना प्रमुख रास्ता बदल दिया, टेक्टोनिक गतिविधि के कारण उत्तरपूर्व की ओर बहने वाला ग्लेशियर छोटा हो गया था. वह दक्षिण पूर्व की ओर बहने लगा और अंततः अपने पास के सुजुर्कचंकी ग्लेशियर से मिल गया. यह अध्ययन ग्लेशियर-टेक्टोनिक अंतरक्रिया को समझने में मददगार होगा और सही भविष्य में होने वाले अध्ययनों के लिए महत्वपूर्ण जानकारी भी प्रदान करेगा. शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में सैटेलाइट की तस्वीरों, टॉपशीट और गूगल अर्थ की तस्वीरों का उपयोग किया. उन्हें पता चला कि ग्लेशियर पर सक्रिय फॉल्ट का प्रभाव है और जलवायु परिवर्तन के कारण एक सक्रिय फॉल्ट भी बना जो 250 मीटर की ऊंचाई के साथ 6.2 किलोमीटर तक उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व तक लंबाई थी. “यह ग्लेशियर का बहुत विशिष्ट बर्ताव होता है और ग्लेशियर गतिकी में अभी तक इससे पहले ऐसा कोई भी अवलोकन नहीं पाया गया है. अध्ययन में बताया गया है कि जलवायु ही एक ऐसा कारक नहीं है जिससे हिमालय में ऐसे हादसे हो रहे हैं. लेकिन टेक्टोनिक्स भी ग्लेशियर के इलाको में अहम भूमिका निभा रहे हैं. भारत, चीन, नेपाल, भूटान जैसे देशों के करोड़ों लोग सिंचाई, पीने के पानी,बिजली के लिए ग्लेशियरों पर निर्भर हैं। ये पिघले तो क्षेत्र का जल-तंत्र व आबादी प्रभावित होगी।  वैज्ञानिकों ने लद्दाख में ग्लेशियरों में आ रहे बदलावों के ये साक्ष्य जुटाए हैं। उनका शोध रीजनल इनवायरमेंटल चेंज पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। शोध बताता है कि हिमालय के सभी ग्लेशियरों में बर्फ पड़ने और पिघलने का संतुलन निगेटिव पाया गया।मतलब, सर्दियों में हिमालय में बर्फ कम गिर रही है और गर्मियों में पिघलने की दर ज्यादा है। शोध के अनुसार, वर्ष 2009 में ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार 15 मीटर प्रति वर्ष तक थी, इसके बाद यह बढ़कर 21 से 51 मीटर प्रतिवर्ष तक जा पहुंची है। इससे चार दशक में कुछ ग्लेशियरों ने चौथाई हिस्सा खो दिया। बर्फबारी के बाद भी 10 सालों में तेजी से पिघले ग्लेशियर है। 1571 से पहले भोजबासा ग्लेशियर या ग्लेशियर से मुक्त था। उस समय ग्लेशियर से यह पेड़ 1.4 किमी दूर था। अब यह 3.26 किमी दूर है। इसका अर्थ है कि ग्लेशियर 1.86 किमी चले गए हैं। स्टडी में कहा गया है कि 1571-1934 के दौरान ग्लेशियर के पिघलने की दर केवल 63 मीटर थी। तब से यह एक और 1.8 किमी पीछे हट गया है। ग्लेशियर 1957 से 1.57 किमी के बाद से तेजी से पीछे हटा, जो कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते था।  जिस तेजी से ग्लेशियर पिघल रहे हैं उससे गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी में जल संकट पैदा हो सकता है। इन नदियों पर निर्भर करोड़ों लोगों की समस्याएं पहले के मुकाबले बढ़ जाएंगी।नेपाल के शोधकर्ताओं ने तो यहाँ तक चेतावनी दे दी है कि हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर स्थित सबसे ऊँचा ग्लेशियर इस शदी के मध्य तक विलुप्त हो सकता है, क्योंकि करीब दो हजार वर्ष पुरानी बर्फ की पट्टियां खतरनाक गति से पिघल रही हैं। नेपाल की राजधानी काठमांडू में स्थित इंटरनेशनल सेंटर फार इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसी मोड) ने कहा है कि एवरेस्ट की बर्फ-पट्टियों के पिघलने की दर 1990 के दशक से काफी तेज हो गई है। बर्फ पिघलने की यह दर दो हजार साल पहले बर्फ जमने की दर से 80 गुना अधिक आंकी गई है। एवरेस्ट के दक्षिणी ढाल पर 7945 और 8430 मीटर की ऊंचाई पर स्थित विश्व के सबसे ऊंचे मौसम केन्द्रों से इसका पर्यवेक्षण किया जा रहा है।यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के शोधकर्ता ने बताया कि पिछली शताब्दियों की तुलना में हिमालयी ग्लेशियर औसतन 10 गुना ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं। नुकसान की यह दर पिछले कुछ दशकों में काफी बढ़ गई है, इसके लिए इंसानों की हरकत की वजह से जलवायु में आ रहा बदलाव जिम्मेवार है। हाल के दशकों में हिमालय के ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल रहे हैं उसकी रफ्तार 400-700 साल पहले हुई ग्लेशियर विस्तार की घटना जिसे हिमयुग कहा जाता है के मुकाबले दस गुना ज्यादा है।