कुमाऊंनी होली के अंग्रेज भी थे दीवाने
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत की सांस्कृतिक विरासत कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक विविधता में एकता की छटा बिखेरता है। रंगों का त्यौहार होली भी इस विविधता से बचा नहीं रह पाता। कहने को तो होली रंग–गुलाल का त्यौहार है, लेकिन इस भारत में कुंमाऊ होली, मथुरा की होली, ब्रज की होली– सब अपनी अपनी विविधता में भारतीय संस्क़ति की एकता को प्रदर्शित करते हैं।कुमाऊंनी होली, भारतीय पौराणिक कथाओं को गीत के माध्यम से कहना और पीढ़ी दर पीढ़ी इस विरासत को आगे बढ़ाने का नाम है। कुमाँऊनी होली,. उत्तराखंड में होली की पहचान है। बसंत पंचमी से होली के गीत उत्तरांचल के कुमाऊं मंडल के वातावरण में गूंजने लगते हैं। घर-घर, बारी-बारी होली की बैठकों का दौर सा चल पड़ता है और समाप्त होता है होलिका दहन के साथ।एकादशी से खड़ी होली प्रारम्भ होती है। अपने इष्ट देव के प्रांगण में पहली होली गायी जाती हैं। उत्तराखंड में होली रंगों से ज्यादा रागों से खेली जाती है। शास्त्रीय संगीत की विधाओं और भिन्न-भिन्न रागों के रंगों में सजी उत्तराखली होली अपने आप में एक सफल प्रयास है अनमोल सांस्कृतिक विरासत को पोषित करने के लिए। सामान्यतया कुमाउनी होली को भी कुमाउनी रामलीला की तरह ही करीब 150-200 वर्ष पुराना बताया जाता है, लेकिन जहां कई विद्वान इसे चंद शासन काल की परंपरा की संवाहक बताते हैं, वहीं प्रख्यात होली गायक और बॉलीवुड में भी प्रदेश के लोक संगीत को पहचान दिलाने वाले प्रभात साह गंगोला सहित अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि इसका इतिहास प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी अल्मोड़ा की स्थापना से भी पूर्व से चार शताब्दियों से भी अधिक समय पुराना है। इनके अनुसार कुमाउनी होली का मूल स्वरूप काली कुमाऊं से खड़ी होली के स्वरूप में आया होगा, लेकिन चंद वंशीय शासकों की राजधानी अल्मोड़ा में उस दौर के प्रख्यात शास्त्रीय गायक अमानत अली खां और गम्मन खां की शागिर्द ठुमरी गायिका राम प्यारी जैसी गायिकाएं यर्हां आइं, और स्थानीय शास्त्रीय संगीत के अच्छे जानकार शिव लाल वर्मा आदि उनसे संगीत सीखने लगे। वह 14 मात्रा में पूरी राग–रागिनियों के साथ होली गाते थे। ऐसे ही अन्य बाहरी लोगों के साथ कुमाउनी होली में ब्रज, अवध व मगध के अष्टछाप कवियों के ईश्वर के प्रेम में लिखे गीत आए। कालांतर में होलियों का मूल शास्त्रीय स्वरूप वाचक परंपरा में एक से दूसरी पीढ़ी में आते हुए और शास्त्रीय संगीत की अधिक गहरी समझ न होने के साथ लोक यानी स्थानीय पुट से भी जुड़ता चला गया, और कुमाउनी होली कमोबेश शास्त्र व लोक की कड़ी सी बन गई। कुमाउनी होली की एक और खासियत यह भी है कि यह पौष माह के पहले रविवार से ही शुरू होकर फाल्गुन माह की पूर्णिमा तक सर्वाधिक लंबे अंतराल तक चलती है। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि (प्राचीन काल में) शीतकाल में पहाड़ों में कृषि व अन्य कार्य सीमित होते थे। ऐसे में लंबी रातों में मनोरंजन के साधन के तौर पर भी होली गायकी के रात–रात लंबे दौर चलते थे। यह परंपरा आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में देखी जाती है। कुमाउनी होली में विभिन्न प्रहरों में अलग अलग शास्त्रीय रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं। शुरुआत बहुधा धमार राग से होती है, और फिर सर्वाधिक काफी व पीलू राग में तथा जंगला काफी, सहाना, बिहाग, जैजैवन्ती, जोगिया, झिंझोटी, भीम पलासी, खमाज व बागेश्वरी सहित अनेक रागों में भी बैठकी होलियां विभिन्न पारंपरिक वाद्य यंत्रो के साथ गाई जाती हैं।इष्ट देव के प्रांगण से निकल होली 5-6 दिनों तक गांव के हर घर से होती हुई समापन को जाती है। गणेश वंदना के होली गीत ‘होली खेलें गिरिजापतिनन्दन’ प्रमुखतया सभी कुमाऊं अंचल में गाया जाने वाला प्रारंभिक गीत है। इसके बाद फिर देवर भाभी की चुहलबाजी और नोंक–झोंक से सजी इस होली गीत का अपना अलग ही रस है– ‘मेरो रंगीलो देवर घर आ रे छो’ शाम ढलती रहती है गांवों में होली के साथ–साथ झोड़ा–चांचरी, लोक नृत्य शैली का चयन भी है। कुमाऊं की होली के काव्य स्वरूप को देखने से पता चलता है कि कितनी विस्तृत भावना इन रचनाओं में भरे हैं।इसका संगीत पक्ष भी शास्त्रीय और गहरा है। पहाड़ का प्रत्येक कृषक आशु कवि है। गीत के ताजा बोल गाना और फिर उसे विस्मृत कर देना सामान्य बात थी।विद्वानों के बारे में पता चलता है कि इनमें सबसे प्रथम पंडित लोकरत्न पंत गुमानी हैं। उनकी रचना जो राग श्याम कल्याण के नाम से अधिकांश सुनाई देती है। मुरली नागिन सों, बंशी नागिन सों, कह विधि फाग रचायो, मोहन मन लीना है। आयोजक कहती हैं कि आलू के गुटकों के बिना कुमाऊंनी होली की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. होली में आलू के गुटकों पर चार चांद लगाती हैं भांग की चटनी. पहाड़ी लाल मिर्च से बनने वाली भांग की चटनी भी खासे जतन से तैयार की जाती है. भूनी भांग में नींबू, लाल मिर्च, जीरा और हरा धनिया मिला हो तो कहना ही क्या. बस होली के गीत गाते रहिए और भांग की चटनी के साथ आलू के गुटके खाते रहिए. कुमाऊंनी होली में आलू के गुटकों का ये तडक़ा हफ्ते भर जारी रहता है. महिला होत्यार रेखा कहती हैं कि आलू के गुटकों को खास बनाने की लिए खास तैयारी भी जाती है. भांग को कुछ इस तरह भूना जाता है कि उसका स्वाद कम न हो, साथ ही लाल मिर्च जीरा उसको और लजीज बनाता है.बदलते वक्त के साथ कुमाऊंनी होली में काफी कुछ बदला है, लेकिन नहीं बदला तो आलू के गुटके और भांग की चटनी का स्वाद. जिसका मजा होल्यार सदियों से बदस्तूर लिए जा रहे हैं. आने वाले दौर में भी यही उम्मीद है कि कुमाऊंनी होली के प्रतीक पकवानों का स्वाद होल्यार यूं ही लेते रहेंगे. वैसे तो कुमाऊं के गांव-गांव में ही होली का त्यौहार बढ़-चढ़कर परम्परागत रूप से मनाया जाता है। लेकिन मुख्य रूप से अल्मोड़ा, द्वाराहाट, बागेश्वर, पाटी , चंपावत, गंगोलीहाट, पिथौरागढ़ और नैनीताल कुमाऊं की संस्कृति के केंद्र रहे हैं। जहां के सामाजिक ताने-बाने में वह तत्व मौजूद हैं, जो संस्कृति और उसके महत्व को समझता और जानता है कि संस्कृति ही समाज को स्थाई रूप से समृद्ध करती है।कुमाऊं में होली की विशिष्ट को जिंदा रखने में अल्मोड़ा के बेहद चर्चित हुक्का क्लब, हिमालय संगीत शोध संस्थान, नैनीताल समाचार होली और युगमंच होली महोत्सव नैनीताल का अहम योगदान है। समाज को स्थाई और नई दिशा देने का काम हमेशा ही संस्कृति ने किया है। इस दिशा में पिछले कुछ सालों से कुमाऊं अंचल में होली का अभूतपूर्व योगदान है। जिसकी दस्तक अब देहरादून में भी सुनाई देने लगी है । जानकार ये बताते हैं कि बैठकी होली की शुरुआत अमीर खुसरो के वक्त हुई थी, जो आज भी अपनी पहचान बनाये हुये है. हांलाकि वक्त के साथ इनमें बदलाव आने के साथ लोगों का कुमाऊंनी बैठकी होली से उत्साह कम होता जा रहा है.