विश्व जल दिवस उत्तराखंड में आखिर क्यों सूख रहे जलस्रोत?

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विश्व जल दिवस उत्तराखंड में आखिर क्यों सूख रहे जलस्रोत?

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

कुमाऊं,गढ़वाल के अलावा हिमाचल प्रदेश और नेपाल में भी जल आपूर्ति के परंपरागत प्रमुख साधन नौले ही रहे हैं। आज भी ये नौले हमारी प्राचीन संस्कृति को दर्शाते हैं हलांकि संरक्षण और संवर्धन करने के नाम पर सरकार द्वारा किए गए कार्य नाकाफी ही सिद्ध हुए।हिमालयवासियों की समृद्ध-प्रबंध परंपरा और लोकसंस्कृति के प्रतीक नौलों को कौन नहीं जानता था। अल्मोड़ा नगर,जिसे चंद राजाओं ने 1563 में राजधानी के रूप में बसाया था, वहां परंपरागत जल प्रबंधन के मुख्य वहां के 360 नौले ही थे। इन नौलों में चम्पानौला, घासनौला, मल्ला नौला, कपीना नौला, सुनारी नौला, उमापति का नौला, बालेश्वर नौला,बाड़ी नौला, नयाल खोला नौला, खजांची नौला, हाथी नौला, डोबा नौला,दुगालखोला नौला आदि प्रमुख हैं. लेकिन अपनी स्थापना के लगभग पांच शताब्दियों के बाद अल्मोड़ा के अधिकांश नौले लुप्त हो कर इतिहास की धरोहर बन चुके हैं और इनमें से कुछ नौले भूमिगत जलस्रोत के क्षीण होने के कारण आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।नौलों का निर्माण भूमिगत पानी के रास्ते पर गड्डा बनाकर उसके चारों ओर से सीढ़ीदार चिनाई करके किया जाता था। इन नौलों का आकार वर्गाकार होता है और इनमें छत होती है तथा कई नौलों में दरवाजे भी बने होते हैं। जिन्हें बेहद कलात्मक ढंग से बनाया जाता था। इन नौलों की बाहरी दीवारों में देवी-देवताओं के सुंदर चित्र भी बने रहते हैं। ये नौले आज भी स्थापत्य एवं वास्तुशिल्प का बेजोड़ नमूना हैं। नौलों का भूमिगत जलस्रोत अत्यन्त संवेदनशील जल नाड़ियों से संचालित रहता है। इसलिए विकासपरक गतिविधियों तथा समय-समय पर होने वाले भूकम्पीय झटकों से इन नौलों के जलप्रवाह जब बाधित हो जाते हैं तब ये नौले भी सूखने लगते हैं। उत्तराखण्ड हिमालय में अन्धाधुन्ध विकास एवं कंकरीट की सड़कें बनने के कारण भी अधिकांश नौले जलविहीन होने से सूख गए हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार नौलों के लिए प्रसिद्ध कुमाऊं के द्वाराहाट स्थित अधिकांश नौले इसी प्राकृतिक प्रकोप के कारण सूख गए। वराहमिहिर के जल विज्ञान से प्रेरणा लेकर उत्तराखण्ड में नौलों की स्थापना भूमिगत जल नाड़ियों और महानाड़ी के सम्मिलन स्थल पर की जाती थी, पहाड़ों में आज भी ‘सीर फूटना’ का व्यवहार होता है,जिसका तात्पर्य जल की शिराओं या जल नाड़ियों से है। नौले या जलाशय के चारों ओर विभिन्न प्रकार के वृक्षों को लगाया जाने का उल्लेख भी वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में आया है, जिनमें आंवला, बड़, खड़िक, शिलिंग, पीपल, बरगद, तिमिल, दुधिला, पदम, आमला, शहतूत आदि के वृक्ष विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. इन वृक्षों की सहायता से नौलों में भूमिगत जल नाड़ियां सक्रिय होकर द्रुतगति से जल को रिचार्ज करती रहती हैं। उत्तराखंड में ज्यादातर नौलों का निर्माण कत्यूर व चंद राजाओं के समय में किया गया था। नौलों के इतिहास की दृष्टि से बागेश्वर स्थित बद्रीनाथ का नौला उत्तराखण्ड का सर्वाधिक प्राचीन नौला माना जाता है जिसकी स्थापना सातवीं शताब्दी ई.में हुई थी।चंपावत के बालेश्वर मंदिर का नौला उत्तराखंड का सर्वोत्कृष्ट सांस्कृतिक वैभव सम्पन्न नौला है। इस नौले की स्थापना 1272 ई. में चंदवंश के राजा थोरचंद ने की थी। इस पर उत्कीर्ण शिलालेख बताते हैं कि राजा कूर्मचंद ने1442 ई. में इसका जीर्णोद्धार किया, चम्पावत की सांस्कृतिक पहचान बना यह नौला उत्तराखंड की वास्तुकला और स्थापत्य कला का भी एक अद्भुत नमूना प्रस्तुत करता है.बड़ी बड़ी प्रस्तर शिलाओं पर सुंदर नक्काशियां उकेरी गई हैं. यहां अनेक देवमूर्तियाँ के ध्वंशावशेष हैं जिसमें एक मूर्ति भगवान बुद्ध से बहुत मिलती जुलती है। चम्पावत-मायावती पैदल मार्ग पर ढकन्ना गांव में स्थित ‘एकहथिया नौला’ भी एक सांस्कृतिक महत्त्व का नौला है. इस नौले की दीवारों में ऊपर से नीचे तक अनेक देव आकृतियां अंकित हैं.‘एकहथिया नौला’ कुमाऊं की प्राचीन स्थापत्य कला का एक अनुपम उदाहरण है. लोगों का विश्वास है कि इस नौले का निर्माण एक हाथ वाले शिल्पी ने किया था। इसके अलावा अल्मोड़े का पंथ्यूरा नौला, रानीधारा नौला,तुलारामेश्वर नौला,द्वाराहाट का जोशी नौला, गंगोलीहाट का जाह्नवी नौला, डीडीहाट का छनपाटी नौला आदि अनेक प्राचीन नौले भी अपनी अद्भुत कलाकारी के बेजोड़ नमूना हैं।अल्मोड़ा के निकट 14-15वीं शताब्दी के लगभग निर्मित स्यूनारकोट का नौला आज भी मौजूद है. बावड़ी के चारों ओर बरामदा है, जिसमें प्रस्तर प्रतिमाएं लगी हुई हैं. मुख्य द्वार के सामने दो नक्काशीदार स्तम्भ बने हुए हैं.बावड़ी की छत कलात्मक रूप से विचित्र है। इसकी दीवारों में देवताओं और उनके उपासकों के चित्र अंकित हैं. यह अल्मोड़ा जनपद का सबसे प्राचीन एवं कला की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ नौला माना जाता है। टिहरी नरेशों द्वारा नौलों, धारों और कुंडों का निर्माण किया गया था. गढ़वाल के प्रसिद्ध नौलों,धारों और कुंडों में रुद्रप्रयाग जिले में गुप्तकाशी स्थित ‘गंगा-यमुना धारा’ तथा नारायणकोटि स्थित ‘नवग्रह मंदिर धारा’ और ‘बहकुंड’ (ब्रह्मकुंड) स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना हैं। किन्तु विडम्बना यह है कि उत्तराखंड के परंपरागत सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर स्वरूप अधिकांश ये नौले समुचित रख-रखाव न होने के कारण जलविहीन हो गए हैं और इन नौलों के माध्यम से आविर्भूत पुरातात्त्विक और सांस्कृतिक वैभव भी हमारी लापरवाही के कारण नष्ट होने के कगार पर है. पुरातत्व विभाग की उदासीनता के कारण भी नौलों की पुरातन जल संस्कृति आज बदहाली की स्थिति में है.ऐतिहासिक धरोहर स्वरूप इन नौलों की रक्षा करना और इन्हें संरक्षण देना क्षेत्रीय जनता और उत्तराखंड सरकार दोनों का साझा दायित्व है।  नौलों और गधेरों के जलस्रोतों के साथ हमारे उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति और लोक साहित्य के गहरे सांस्कृतिक स्रोत भी जुड़े हुए हैं। वर्तमान हालात में नौलों और जलधारों के सूखने का मतलब है एक जीवंत पर्वतीय जल संस्कृति का लुप्त हो जाना हजारों वर्षों की अमूल्य धरोहर का विनाश हो जाना. इसलिए जल की समस्या महज एक उपभोक्तावादी समस्या नहीं बल्कि जल, जमीन और जंगलों के संरक्षण से जुड़ी एक पर्यावरणवादी समस्या भी है। यह लोक संस्कृति के संरक्षण की समस्या भी है। हम यदि अपनी देवभूमि को हरित क्रांति से जोड़ना चाहते हैं तो हमें अपने पुराने नौलों, धारों, खालों,तालों आदि जलसंचयन के संसाधनों को पुनर्जीवित करना होगा। कभी पहाड़ों की प्यास बुझाने वाले नौले आज बुरी हालत में हैं. उत्तराखंड में गांवों से होते पलायन, अंधाधुंध निर्माण और जलवायु परिवर्तन की मार ऐतिहासिक नौलों पर भी पड़ी हैं. प्रदेश में 2.6 लाख प्राकृतिक जल स्रोत हैं। जलवायु परिवर्तन और अन्य कारणों से करीब 12 हजार स्रोत सूख गए हैं। प्रदेश में 90 प्रतिशत जलापूर्ति भी इन्हीं के भरोसे हैं। प्रदेश में 16973 गांवों में से 594 गांव पेयजल के लिए प्राकृतिक जल स्रोतों पर ही निर्भर हैं। करीब 50 प्रतिशत शहरी क्षेत्र किसी न किसी रूप में जल संकट से जूझ रहा है। इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरण असन्तुलन, प्रत्यक्ष जनभागीदारी के अभाव तथा सरकारी पाइप लाइन, हैंडपम्प, व नलकूपों  के जरिये पेयजल आपूर्ति होने के कारण इस तरह के परम्परागत जल संचयन प्रणाली व प्राकृतिक जलस्रोत उपेक्षित और बदहाल स्थिति में पहुंच गये हैं। पर्यावरणीय व सांस्कृतिक धरोहर की दृष्टि से इन नौलों व धारों का खत्म होना हम सब के लिए एक बहुत बड़ा सवाल है।आवश्यकता इस बात की है कि इस जल संचयन परम्परा को पुनर्जीवित करने हेतु गांव समाज की पहल पर चौड़ी पत्ती के पौधों का रोपण व चाल-खाल निर्माण को प्राथमिकता दी जाय। साथ ही, सरकारी स्तर पर समुचित नीति निर्धारिण के साथ समाजोन्मुखी विकास को केन्द्र में रखकर जल-संरक्षण की ऐसी दीर्घकालिक योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाए, जिसमें ग्रामीण व स्थानीय आम लोगों की प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित हो। इस तरह पर्यावरण का सतत विकास तो होगा ही साथ ही सांस्कृतिक विरासत के तौर पर हिमालय की यह पुरातन परम्परा पुनः समृद्धता की ओर कदम बढ़ा सकेगी।