जंगल में क्या बेकाबू हो रही है आग, बिगड़ रहा है ईको सिस्टम

0
229

जंगल में क्या बेकाबू हो रही है आग, बिगड़ रहा है ईको सिस्टम

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड के जंगलों में इस बार आग बेकाबू होती जा रही है। पहाड़ के जंगलों में दावानल की घटनाएं बढ़ गई हैं। इससे लाखों-करोड़ों की वन संपदा को जहां नुकसन पहुंच रहा है वहीं वन्यजीवों के लिए भी खतरा बढ़ रहा है। जंगल में आग लगने के कारण वन्यजीव आबादी का रुख कर रहे हैं। उत्तराखंड के जंगलों में आग क्यों बेकाबू हो रही है ? 15 फरवरी से 31 मार्च तक वन विभाग को जंगलों की आग पर काबू पाने में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी थी। डेढ़ महीने की इस अवधि में 138 बार जंगलों में आग लगी। अप्रैल का महीना पहले दिन से ही वन विभाग को भारी पडऩे लगा। जिस वजह से आग का कुल आंकड़ा 401 पहुंच गया। पिछले 11 दिन में 263 बार प्रदेश के जंगल जल चुके हैं। जंगल में दावानल की बड़ी वजह मानव जनित होती है। कई बार लोग जमीन पर गिरी पत्तियों या सूखी घास के ढेर में आग लगा देते हैं। जिसके चलते कई बार आग विकराल हो जाती है। वन कर्मियों की संख्या सीमित होने के कारण भी समय से आग पर काबू न हो पाने से दावानल की घटनाएं बढ़ रही हैं।कई बार लोग बीड़ी, सिगरेट पीकर बिना बुझाए जमीन पर फेंक देते हैं। जिससे धूप से कड़क हुई पत्तियों में तेजी से आग पकड़ लेती है। चिंनगारी सुलगते-सुलगते विकराल रूप ले लेती है। जिससे वन संपदा को नुकसान पहुंचता है।चीड़ के पत्ते भी जंगल में आग लगने का बड़ा कारण बनते हैं। चीड़ की पत्तियां जिसे पिरुल भी कहते हैं और छाल से निकलने वाला रसायन, बहुत ही ज्वलनशील होता है। जिसमें जरा सी चिंगारी लगते ही आग भड़क कर विकराल रूप ले लेती है।कम बारिश होना भी जंगलों में आग लगने का एक बड़ा कारण माना जाता है। बारिश न होने या कम होने से जमीन की नमी कम होने से दावानल की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। ऐसे में तीखी धूप होने से जरा सी निकलने वाली चिंगारी बड़ा रूप ले लेली है।जंगल के पास से गुजरने वाली बिजली लाइनों में होने वाले शॉट सर्किट के कारण भी आग की घटनाएं विकराल हो जाती हैं। फायर सीजन में जरा सी चिंगारी लाखों की वन संपदा जलाकर खाक कर देती है। उत्तराखंड में जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए सरकार सतर्क हो गई है। आग पर नियंत्रण के लिए वायु सेना के हेलीकाप्टरों की भी मदद ली जा सकती है। इसके साथ ही एनडीआरएफ, एसडीआरएफ व पुलिस को भी अलर्ट मोड पर रहने के शासन ने निर्देश दिए हैं। सचिव आपदा प्रबंधन के अनुसार यदि आग नियंत्रण से बाहर होती है तो इसके लिए वायु सेना की मदद लेने समेत सभी विकल्प खुले रखे गए हैं। तापमान में उछाल के साथ ही प्रदेश में जंगलों में आग की घटनाएं भी निरंतर बढ़ रही है। पिछले 12 घंटों के दौरान विभिन्न स्थानों पर 88 घटनाएं हुई, जिनमें 142 हेक्टेयर वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा है। यदि लगता है कि आग नियंत्रण से बाहर हो रही है तो राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (एनडीआरएफ) की प्रदेश में तैनात टुकडिय़ों को तैयार रहने को कहा गया है। आवश्यकता पडऩे पर वायु सेना के हेलीकाप्टरों की मदद के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय से आग्रह किया जाएगा। गौरतलब है कि पिछले वर्ष भी जंगलों की आग बुझाने में सेना और वायुसेना के हेलीकाप्टरों की मदद ली गई थी।  झांपा है तो ठीक, अन्यथा बिन झांपा सब सून। यही तो है झांपे की विशेषता, जो अब से नहीं, सदियों से अपनी श्रेष्ठता बनाए हुए है। झांपा, यानी हरी पत्तीयुक्त टहनियों को तोड़कर बना विशेष प्रकार का झाड़ू। यही वह कारगर हथियार है, जो आधुनिक उपकरणों को मात देते हुए जंगलों को आग से बचाने में आज भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। असल में उत्तराखंड में भौगोलिक जटिलताएं अधिक हैं। मैदानी क्षेत्र के जंगलों में तो लीफ ब्लोअर जैसे आधुनिक उपकरण उपयोग में जरूर लाए जाते हैं, लेकिन पहाडिय़ों पर इन्हें ले जाना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। पहाड़ का भूगोल ऐसा है कि जंगलों में आग बुझाने में जुटे कर्मियों के सामने स्वयं के लिए पानी से भरी बोतल तक ले जाना भी मुश्किल होता है। ऐसे में झांपा ही आग बुझाने में सबसे उपयुक्त होता है और इसका उपयोग वनकर्मी लगातार करते आ रहे हैं। तापमान निरंतर उछाल भर रहा है। उस पर जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं ने अलग से मुश्किल खड़ी कर दी है। ऐसे में बेजबानों को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। एक तो गला तर करने के लिए इधर से उधर भटकते बेजबान और दूसरा आग में झुलसने का खतरा। इस परिदृश्य के बीच बेजबानों के पानी की तलाश व स्वयं को बचाने के लिए निचले क्षेत्रों में आने पर मनुष्य से सामना। राज्यभर में जंगल लगातार धधक रहे हैं। 15 फरवरी से अब तक आग की 242 घटनाएं हो चुकी हैं और ये कम होने का नाम नहीं ले रहीं। इसके साथ ही आसन्न स्थानांतरण भी चिंता बढ़ा रहे हैं। अब जंगल की चुनौतीपूर्ण सेवा में आए हैं तो हर तरह की परिस्थिति के लिए तैयार तो रहना होगा। फिर प्रश्न सुगम, दुर्गम का नहीं, वन बचाने का है। इस पर ध्यान देना चाहिए। उत्तरकाशी में इन दिनों जिला मुख्यालय के साथ ही आसपास के जंगल सुलग रहे हैं। चिन्यालीसौड़ हवाई पट्टी के प्रोजेक्ट मैनेजर घनश्याम सिंह ने बताया कि आसपास के इलाके में फैले धुएं के कारण दृश्यता प्रभावित होने से वायुसेना ने अंतिम दिन अभ्यास न करने का निर्णय लिया। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि अब वायुसेना कब अभ्यास करेगी।इससे पहले रविवार रात को वायुसेना के एमआइ-17 हेलीकाप्टर से करीब डेढ़ घंटे तक लैडिंग और टेकआफ का अभ्यास किया गया। उन्होंने बताया कि वायुसेना की टीम बरेली से आई थी।