भारतीय संस्कृति में पर्यावरण का संरक्षण
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
वनों के लगातार नाश और प्राकृति पर मानवी हस्तक्षेप से पर्यावरण को काफी क्षति पहुंच रहीं हैं। लगातार जंगलों का ह्रास होने से पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है। वहीं इसका सीधा प्रभाव जलवायु में हो रहे परिवर्तन, मृदा से नदारद होती नमी आदि हैं। अब भी पर्यावरण संरक्षित नहीं हो सका तो 2030 में पृथ्वी का तापमान 2.7 डिग्री तक बढ़ने की भी आशंका है।जंगलों की आग और प्रकृति पर मानवी हस्तक्षेप से पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है। जंगलों के बड़े पैमाने पर जलना और मिट्टी में नमी कम होना चिंता का विषय है। इससे भविष्य में काफी समस्या हो सकती है।मानव संस्कृति का संबंध ज्ञान, कर्म तथा रचना से है और इसका संवर्धन निरंतर बना रहे इसलिए किसी भी संस्कृति का संस्कार सम्पन्न होना अति आवश्यक होता है. विश्व की प्राचीनतम् संस्कृति भारतीय सनातन हिन्दू संस्कृति में पर्यावरण को देवतुल्य स्थान दिया गया है. यही कारण है कि पर्यावरण के सभी अंगों जैसे जल, वायु, भूमि को देवताओं से जोड़ा गया हैं . मनुष्य पांच तत्वों जल, अग्नि, आकाश, पृथ्वी और वायु से मिलकर बना है और वैदिक काल से इन तत्वों के देवता मान कर इनकी रक्षा का करने का निर्देश मिलता है. भारतीय संस्कृति पर्यावरण-संरक्षण में महत्त्वपूर्ण तथा सकारात्मक भूमिका रखती है. मानव तथा प्रकृति के बीच अटूट रिश्ता कायम किया गया है जो पूर्णतः वैज्ञानिक तथा संतुलित है. हमारे शास्त्रों में पेड़, पौधों, पुष्पों, पहाड़, झरने, पशु-पक्षियों, जंगली-जानवरों, नदियाँ, सरोवन, वन, मिट्टी, घाटियों यहाँ तक कि पत्थर भी पूज्य हैं और उनके प्रति स्नेह तथा सम्मान की बात बतलायी गयी है. बुद्धिजीवियों का यह चिन्तन पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये सार्थक तथा संरक्षण के लिये बहुमूल्य हैं.मनुष्य नास्तिक हो या आस्तिक, धार्मिक हो या अधार्मिक क्या फरक पड़ता है? लेकिन पर्यावरण हमारे चारों ओर है. हवा, भोजन, पेड़-पौधे, पानी, जीव-जन्तु का महत्व जितना आस्तिक के लिये है, उतना ही नास्तिक के लिये भी है. प्राकृतिक विपदायें आने से पहले यह नहीं पूछती हैं कि कौन आस्तिक है और कौन नास्तिक. जब प्रदूषण की आँधी आती है, वह सब अपने में समेटकर ले जाती है. कहने का अभिप्राय है कि पर्यावरण का संरक्षण करना हमारा नैतिक दायित्व है क्योंकि संरक्षण करना अपने आपको जीवन देना है. पर्यावरण की कोई भौगोलिक तथा राजनैतिक सीमा नहीं होती है. यह विश्व-व्यापी है इसके साथ किया गया प्रतिशोध इस पृथ्वी को हमेशा-हमेशा के लिये काल के गाल में धकेल देगा.हमारी संस्कृति पर्यावरण संरक्षण प्रधान रही है, जो प्रदूषण पर उपराम लगाती है और आध्यात्मिक मनोविज्ञान को स्वीकार करती है और यह स्पष्ट करती है कि मानव के प्राणों की सुरक्षा तथा पवित्रता की सुरक्षा प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा पर निर्भर करती है. भारतीय संस्कृति के अनुसार जिस मनुष्य को आध्यात्मिक अनुभूति हो जाती है तो वह अल्प साधनों से अपने हितों की पूर्ति कर सकता है, वह हर तरह से सामाजिक तथा आर्थिक बंधनों से मुक्त हो जाता है. आज जरूरत इस बात की है कि मानव अपनी शक्ति को देशहित में सुदृढ़ बनाए और नैतिक मूल्यों को समझे तथा नैतिक अनुशासन से नियमबद्ध हो, तभी उसकी भौतिकतावादी प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकता है. हमारे प्राचीन शास्त्रों में इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि इस तरह के कार्य को सम्पन्न करने के लिये किसी विशेष अध्ययन तथा चिन्तन की आवश्यकता नहीं होती है. कालिदास, सूरदास, रसखान, तुलसीदास, कबीरदास ने किसी संस्था से शिक्षा प्राप्त नहीं की, लेकिन अपनी रचनाओं में प्रकृति को इस तरह चित्रित किया कि इसके विनाश की बात सोची भी नहीं जा सकती. कालिदास ने पर्यावरण संरक्षण के विचार को मेघदूत तथा अभिज्ञान शाकुन्तलम में दर्शाया. रामायण तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों, उपनिषदों में वन, नदी, जीव-जन्तु, पशु-पक्षियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी. ये कृतियाँ जितनी तत्कालीन समाज में लोकप्रिय रही होंगी, ठीक कहीं उससे भी अधिक आज की व्यवस्था के अनुरूप और न्यायसंगत हैं. अन्तर विरोध इस बात का है तब भारतीय नैतिक अनुशासन अन्तर्मुखी तथा आत्मसंयम और त्याग पर बल देता था और दूसरों को समाज (पेड़-पौधे, जीव-जन्तु) तथा उन पर शासन एवं अधिकार करने का समर्थन नहीं करता था. इस बात पर ध्यान केन्द्रित करने की आत्म प्रेरणा दी जाती थी कि चिन्तन तथा मनन के द्वारा नैतिक उत्साह और अन्तर्दृष्टि प्राप्त की जाय जिससे बाह्य शक्तियों (साधनों की खोज में ये भाग-दौड़, जोखिम और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति रोष) पर अत्यधिक दबाव न डाला जा सके तथा अपने ऊपर विजय पायी जाय. खेद की बात है, आज हम अपने अनन्त स्वार्थों की पूर्ति के लिये किसी अन्य सभ्यता तथा संस्कृति से प्रभावित होकर पूँजी और विकास को केन्द्र बिन्दु या जीवन का प्रमुख आधार मान बैठे हैं और अपने प्राणों के रक्षक पर्यावरण को खत्म कर रहे हैं उसे प्रदूषित कर रहे हैं. पेड़ पौधों से अनेक रोगों का इलाज कर दिया जाता है और वन्य जीव-जन्तुओं का भी हमारे शास्त्रों में बहुत अच्छी तरह से वर्णन प्रस्तुत किया गया है. ज्ञान तथा नैतिक शिक्षा पर आधारित पंचतंत्र की कथायें, जातक कथायें अनेक ग्रन्थ जीव-जन्तुओं की उपमा से भरे पड़े हैं. इनमें से कई को देवी-देवताओं के वाहन के रूप में प्रस्तुत किया गया है. वन्य प्राणियों के प्रति प्रेम तथा आदर की भावना के बाद भी आज अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं, जो जीव-जन्तु बचे हैं सरकार इनके संरक्षण के लिये अत्यधिक चिन्तित है. मानव जीवन के अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिये औषधि, उदर पूर्ति के लिये कन्दमूल फल, शरीर ढकने के लिये वस्त्र, कारखाने चलाने हेतु कच्चामाल, भूमि को उपजाऊ तथा भू-स्खलन से बचाने में पेड़ पौधों की भूमिका को कदापि नकारा नहीं जा सकता. कार्बनडाइऑक्साइड को अमृत (ऑक्सीजन) में परिवर्तित पेड़-पौधे ही करते हैं. गीता में स्वयं भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैं पेड़ों में स्वयं पीपल का वृक्ष हूँ, तुलसी का पौधा स्वयं विष्णुप्रिया के रूप में पूज्यनीय है. सन्तान प्राप्ति के लिये बरगद की पूजा की जाती है. चन्दन की लकड़ी चिता से लेकर माथे की शोभा तक बढ़ाता है और अपनी शीतलता के लिये अतुलनीय है. शास्त्रों में ही यह बतलाया गया है कि सौ पुत्रों से उतना सुख नहीं मिलता, जितना एक वृक्ष लगाने से होता है. हमारी संस्कृति में नीम को पूर्ण चिकित्सक, आंवले को पूर्ण भोजन, पीपल को शुद्ध वायुदात्री, पाकड़ और वट के युग्म वृक्षों को जल संग्राहक एवं वट को पूर्ण घर माना गया है. अपनी प्राचीन एवं पारंपरिक संस्कृति को जानने के साथ-साथ विभिन्न त्योहारों में वट, पीपल, नीम, आम के पेड़ों, केला एवं तुलसी के पौधे की पूजा तथा गाय, कुत्ता, चिड़ियों यहां तक कि कौवों आदि को भोजन खिलाना हमारी संस्कृति का अंग है. यह हमारी प्रकृति एवं मनुष्य के विभिन्न सहभागियों के प्रति जागरूकता का द्योतक है. नदियों एवं पहाड़ों का मानवीयकरण करके हमने उसमें जीवंतता ही नहीं पैदा की वरन् उन्हें अपना हिस्सा बनाया. प्रकृति से सामंजस्य स्थापित कर जीवनयापन करने के लिए आध्यात्मिकता को अपने जीवन का अंग बनाकर प्रकृति से केवल आवश्यकता भर प्राप्त करने का मूल-मंत्र हमने सीखा है. इस कारण विभिन्न धर्मों-सनातन, जैन एवं बौद्ध धर्म में अन्न को बर्बाद होने से रोकना, अधिक अन्न का संग्रह न करना, अपने शरीर को प्रकृति के अनुरूप ढालना, स्वस्थ शरीर के लिए शुद्ध जल एवं वायु पर निर्भर रहना, पशु-पक्षियों के साथ रहना एवं उनवके प्रति करुणा का भाव रखना आदि पर विशेष जोर दिया गया. सामान्य मानता है कि विज्ञान जहां समाप्त होता है, अध्यात्म वहां से प्रारंभ होता है, किंतु ऐसा नहीं है. यदि हम ध्यान में देखें तो विज्ञान और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. हां, यह सही है कि दोनों के दृष्टिकोण एक-दूसरे के विपरीत हैं.इस कारण विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे से दूर दिखाई देते हैं. विज्ञान भौतिक सुख-सुविधाएं आप तक उपलब्ध कराता है और आपके शरीर के अनुकूल वातावरण तैयार करता है, जैसे शरीर को सुखद लगने वाले ताप के लिए एयरकंडीशन का उपयोग, हवा के लिए पंखा, सुखद यात्रा के लिए वाहन का प्रयोग आदि. अध्यात्म द्वारा आप अपने शरीर को वातावरण के अनुकूल बनाते हैं, ताकि ताप के अंतर से आपको कष्ट का अनुभव न हो और अधिक ऊर्जा प्राप्त कर आप कठिन मार्ग पर चल सकें. अध्यात्म की यौगिक क्रिया द्वारा शरीर को हल्का करके उड़ना, यहां तक कि किसी भी स्थान पर ताप में बदलाव लाना, अध्यात्म के एक विशिष्ट अंग की तकनीक है. इस प्रकार कहा जा सकता है कि विज्ञान और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. बल्कि विश्व को यह भी सन्देश देता कि हम भारतीय सदैव वसुधैवकुटुम्बकम की भावना रखते हैं. यही हमारी संस्कृति की अपनी थाती है जो विश्व के अन्य संस्कृतियों से हमें भिन्न बनाती हैं.