उत्‍तराखंड के लोकगायक हीरा सिंह राणा की पुण्यतिथि

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उत्‍तराखंड के लोकगायक हीरा सिंह राणा की पुण्यतिथि

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

अल्मोड़ा जिले के मानिला डंढोली गांव में 16 सितंबर 1942 को नारंगी देवी व मोहन सिंह के घर जन्मे राणा की प्राथमिक शिक्षा गांव के ही स्कूल से हुई थी। 15 वर्ष की आयु में लोकगीतों की रचना करने लगे। रोजी-रोटी के दिल्ली गए। सेल्समैन की नौकरी की। बाद 1971 में ज्योली बुरुंश, 1974 में नवयुवक केंद्र ताड़ीखेत, 1985 में मानिला डांडी, 1992 हिमांगन कला संगम दिल्ली, 1987 में मनख्यू पड्याव जैसे लोक सांस्कृतिक समूहों का गठन कर लोक संगीत यात्रा को आगे बढ़ायात्यर पहाड़ म्यर पहाड़, हय दुखों क ड्यर पहाड़। बुजुर्गोंल ज्वड पहाड़, राजनीतिल् त्वड़ पहाड़। ठ्यकदारोंल फोड़ पहाड़, नान्तिनोंन छोड़ पहाड़।” इन पंक्तियों में पहाड़ की वेदना है। बुजुर्गों का संघर्ष है। खोखले होते पहाड़ों की पीड़ा और समाज को बांटती राजनीति की व्यथा भी है। दो पंक्तियों में इतना कुछ कह जाने का हुनर रखने वाले सुप्रसिद्ध लोक गायक व गीतकार स्व. हीरा सिंह राणा की आज दूसरी पुण्यतिथि है। उनके दौर की पीढ़ी राणा को हिरदा कुमाउंनी नाम से संबोधित करती थी।पहाड़ व पहाड़वासियों की अस्मिता से जुड़े मुद्दों पर राणा हमेशा सक्रिय रहे। उनकी कलम ने लोगों का दुख-दर्द लिखा और जुबान हौसला व साहस रूपी आवाज बनी। ””लस्का कमर बांधा, हिम्मत का साथा, फिर भुला उजालि होलि कां ले रोलि राता..”” गीत में यह साफ झलकता है। राणा को अपनी मातृ भूमि से कितना लगाव था, उनकी बानगी उन्हीं के गीत ””मेरी मानिला डांडी तेरी बलाई ल्योंला, तू भगवती छै तू ई भवानी, हम तेरी बलाई ल्योंला”” से झलकती है।उत्तराखंड के लोगों का जंगल व जानवरों से गहरा जुड़ाव रहा है। राणा ने इस जुड़ाव को ””आ ली ली बाकरी ली ली छु छु”” गीत से बयां किया। संस्कृति कर्मी व लेखक चारु तिवारी ने हिरदा की समग्र रचनाओं को ””लस्का कमर बांदा”” किताब में समाहित किया है। अभिव्यक्ति कार्यशाला की ओर से 12 जून को दिल्ली के हिंदी भवन में हुए श्रद्धांजलि कार्यक्रम में पुस्तक का विमोचन हुआ।दिल्ली सरकार की ओर से गठित गढ़वाली-कुमाऊंनी, जौनसारी भाषा अकादमी के उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालने के बाद पिछले साल अक्टूबर में हीरा सिंह राणा हल्द्वानी आए थे। अभिव्यक्ति कार्यशाला संस्था की ओर से आयोजित लोक उत्सव में शामिल हीरा सिंह ने बताया था कि उन्होंने 1960 में पहली बार गायन किया। इतनी लंबी संगीत यात्रा के बावजूद दो साल पहले प्रदेश सरकार ने पेंशन मंजूर की। वह कहते कलाकार को प्रोत्साहित करना जरूरी है। उसे सम्मान के साथ बुनियादी सुविधाएं और कुछ धन भी चाहिए। हमें अपनी बोली-भाषा से नई पीढ़ी को परिचित करना होगा। संस्कृति के विकास के बिना लोक की जड़ें मजबूत नहीं हो सकती। हीरा सिंह राणा उत्तराखंडी लोक संगीत के चमकते सितारे का नाम था। अपने नाम के अनुरूप वह काम के भी हीरा थे। वह खुद मिजात (फैशन) पसंद नहीं थे, लेकिन उनके गीतों में मिजात की बात खूब होती। ‘आय हाय रे मिजाता ओ होय होय रे मिजाता’ गीत जब भी बजता बड़े-बूढ़े भी ठुमके लगाने लगते। मन यौवन से भर उठता। आज जब खुद को खूबसूरत दिखाने के लिए भारी भरकम मेकअप होता है, पार्लर व सैलून में मोटी धनराशि खर्च होती है। इसके बाद भी रंग-बिरंगी बिंदी, काली घाघरी और लाल किनारे वाली धोती में जो सौंदर्य निखरता है उसकी बात ही अलग होती है। तभी राणा ने गीत रचा ‘रंगीली बिंदी घाघरी काई, धोती लाल किनार वाली..।’ यह गीत आज की पीढ़ी को भी खूब पसंद है। राणाजी जहां भी जाते श्रोता इस गीत को सुनने की फरमाइश जरूरत करते। राणा कविताएं भी रचते थे। पहाड़ की महिला के संघर्ष को महसूस किया तो रचना फूटी ‘पहाड़ाक महिलाओंक तप और त्याग, आफी बड़ा जैले आपड़ भाग, राजुली सैक्याणी मालू घस्यारी, रामी बैराणा पहाड़ की नारी..।’ वह राज्य आंदोलन में भी सक्रिय रहे। नवोदित उत्तरांचल राज्य बनने की खुशी में गीत रचते हुए लिखा ‘उत्तरांचल राज्य हैगो गीत गाओ, फूंको हो रणसिंह नगाड़ ढोल बजाओ..।’ मगर राज्य बनने के बाद भी हालात नहीं बदले। पलायन, बेरोजगारी की पीड़ा को महसूस करते हुए उन्होंने मार्मिक कविता रची। ‘त्यर पहाड़ म्यर पहाड़, रयो दुखों को ड्यर पहाड़, बुजुर्गों लै जोड़ पहाड़, राजनीति लै तोड़ पहाड़, ठेकदारों लै फोड़ पहाड़, नानतिनू लै छोड़ पहाड़..। इसके बाद भी हीरा राणा हौसला और उम्मीद भरते हुए लिखते हैं ‘लस्का कमर बांधा हिम्मत का साथ, फिर भोल उज्याल होली कां लै रोली रात..।’ हीरा सिंह राणा भले हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनके कालजयी गीत हमें सदा आनंदित करते रहेंगे।दिल्ली सरकार की ओर से गठित गढ़वाली-कुमाऊंनी, जौनसारी भाषा अकादमी के उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालने के बाद पिछले साल अक्टूबर में हीरा सिंह राणा हल्द्वानी आए थे। अभिव्यक्ति कार्यशाला संस्था की ओर से आयोजित लोक उत्सव में शामिल हीरा सिंह ने बताया था कि उन्होंने 1960 में पहली बार गायन किया। इतनी लंबी संगीत यात्रा के बावजूद दो साल पहले प्रदेश सरकार ने पेंशन मंजूर की। वह कहते कलाकार को प्रोत्साहित करना जरूरी है। उसे सम्मान के साथ बुनियादी सुविधाएं और कुछ धन भी चाहिए। हमें अपनी बोली-भाषा से नई पीढ़ी को परिचित करना होगा। संस्कृति के विकास के बिना लोक की जड़ें मजबूत नहीं हो सकती।अक्टूबर 2019 में दिल्ली सरकार ने उन्हें उत्तराखंडी लोकभाषा व संस्कृति को प्रोत्साहित करने के लिए कुमांउनी, गढ़वाली व जौनसारी भाषा अकादमी का पहला उपाध्यक्ष बनाया था.राणा जी को कुमांउनी, गढ़वाली व जौनसारी भाषा अकादमी का उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद उत्तराखंड के सांस्कृतिक, साहित्यिक व अन्य लोक कलाओं के   संवर्धन व संरक्षण की संभावना बढ़ गई थी. अकादमी द्वारा उनके मार्गदर्शन में दिल्ली कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क में पर्वतीय कला संस्कृति का एक भव्य सांस्कृतिक आयोजन किया भी गया था.हीरासिंह राणा को देश भर मे स्थापित प्रवासी सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न अनगिनत सम्मानों से नवाजा गया था. विभिन्न अवसरों पर उनके सम्मान मे भव्य समारोह भी आयोजित किए जाते रहे थे. वर्ष 2003 मे उत्तराखंड क्लब दिल्ली द्वारा उन्हे ‘उत्तराखंड गौरव’ सम्मान से. 6 जून 2004 को अल्मोड़ा मे ‘मोहन उप्रेती लोक संस्कृति पुरुस्कार से. 16 सितम्बर 2018 को दिल्ली के आईटीओ स्थित हिंदी भवन में  उत्तराखंड की शीर्ष संस्था ‘पहाड़’ व अन्य संस्थाओं द्वारा हीरासिंह राणा की हीरक जयंती पर भव्य समारोह आयोजित कर उन्हे ‘गीत व संगीत के 75 साल’ प्रशस्ति पत्र प्रदान किया गया था. 29 जनवरी 2020 को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्वतीय कला केंद्र द्वारा उन्हें स्वर्ण जयंती समारोह मे सम्मानित किया गया था. 16 सितम्बर को पश्चिमी विनोदनगर दिल्ली में हीरासिंह राणा का 77वां जयंती समारोह ‘लोक संस्कृति सम्मान दिवस’ के रूप मे बड़े धूमधाम से मनाया गया था.फरवरी 2020 में भारत सरकार द्वारा उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सलाहकार नियुक्त किया गया था. परन्तु विधि का विधान कुछ और ही था. 13 जून 2020 को 78 वर्ष की अवस्था में हीरा सिंह राणा ने अपनी कर्मभूमि दिल्ली में ही अंतिम सांस ली और अपने हजारों लाखों प्रेमियों को निराश कर के अनन्त की यात्रा पर निकल पड़े.महानगरीय संस्कृति के प्रभाव से आज कुमाउँनी भाषा और संस्कृति अपनी पहचान खोने के दौर से गुजर रही है. ऐसे कठिन दौर में हमारे बीच से हीरा सिंह राणा जैसे लोककवि और दुदबोलि भाषा के उन्नायक लोक गायक का अचानक ही चला जाना बहुत ही दुःखद था. उनके साहित्यिक और लोकगायिकी से कुमाउँनी भाषा और संस्कृति को लोकप्रियता के नए आयाम मिले हैं,इसलिए यह पर्वतीय लोकसंस्कृति के लिए भी अपूरणीय क्षति थी. आज उत्तराखंड के लोकगायक श्री हीरा सिंह राणा को शत शत नमन! अभिवंदन!

लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।