केदारनाथ आपदा की 9 बरसी पर सबसे बड़ा प्रश्न– क्या हमने कोई सबक लिया?
2013 में केदारनाथ धाम में आई विनाशकारी आपदा में लापता हुए लोगों का दर्द आज भी उनके परिजनों के चेहरों पर साफ दिखाई पड़ता है। हालांकि आपदा के नौ वर्ष गुजर गए हैं किंतु इस प्रलयकारी आपदा के जख्म आपदा की बरसी पर फिर से ताजे होते चले जाते हैं।केदारनाथ त्रासदी में अभी तक 3,183 तीर्थ यात्रियों का कुछ भी पता नहीं है। सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद भी लोगों कोई सुराग नहीं है। 16 जून की रात को आपदा में कई तीर्थ यात्री की जान गई थी।उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बारिश का पानी कहर के रूप में बरसा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस हिमालयी सुनामी में केदारनाथ समेत पूरे प्रदेश में करीब साढ़े पांच हजार लोगों को असमय काल के मुंह में समाना पड़ा। बड़ी संख्या में लोगों को बेघर होना पड़ा। 11,759 भवनों को आंशिक क्षति पहुंची। लगभग 11,091 मवेशी मारे गए। 4200 गांवों का संपर्क पूरी तरह से टूट गया था। 172 छोटे-बड़े पुल बह गए और कई कई सौ किलोमीटर सड़क लापता हो गई। 1308 हेक्टेयर कृषि भूमि आपदा लील गई। 9 साल पहले (16-17 जून 2013) के दिन कुदरत ने केदारनाथ समेत राज्य के पर्वतीय जिलों में जो तांडव मचाया था, उसे याद करते हुए आत्मा कांप जाती है। केदारनाथ की जलप्रलय चार हजार से अधिक लोगों को निगल गई। इतने वर्षों में भी पुनर्निर्माण के मरहम से आपदा के जख्म पूरे नहीं भर पाए हैं। अलबत्ता आपदा में तबाह हुई केदारपुरी को संवारने की कोशिशें जारी हैं। 2013 में केदारनाथ के भयानक मंज़र की बानगी यह थी कि सेना और पुलिस ने मिलकर एक लाख से ज़्यादा लोगों को रेस्क्यू किया था, उसके बाद भी कई जानें गई थीं. देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर में सुर्खियों और चिंता में रही इस आपदा के नौ साल पूरे होने पर यहां कितना कायाकल्प हो चुका है? 16-17 जून 2013 की आपदा से केदारपुरी धीरे-धीरे उबर रही है. भीषण आपदा में बड़ी संख्या में यात्री और स्थानीय लोग इस आपदा की गिरफ्त में आ गए। आज तक इन लोगों का पता नहीं लग पाया है। केदारघाटी के अनेक गांवों के साथ ही देश-विदेश से आए तीर्थयात्रियों ने आपदा में जान गंवाई। सरकारी आंकड़ों को देखें तो पुलिस के पास आपदा के बाद कुल 1840 एफआईआर आई। इसमें कई दो-दो बाद दर्ज हुई।तब, पुलिस की अलग से रुद्रप्रयाग में विवेचना सेल गठित की गई। इसमें 584 एफआईआर मर्ज की गई जो, दो-दो जगहों पर दर्ज थी। बाद में पुलिस ने सही तफ्तीश करते हुए 1256 एफआईआर को वैध मानते हुए कार्रवाई की। पुलिस के पास 3,886 गुमशुदगी दर्ज हुई जिसमें से विभिन्न सर्च अभियानों में 703 कंकाल बरामद किए गए।9 साल पहले जो आपदा आई थी, उसमें यह तीर्थनगरी बुरी तरह बर्बाद हो गई थी. मकान और गाड़ियां सैलाब में पत्तों की तरह ढह और बह गए थे. पूरे देश को हिला देने वाली इस भीषण आपदा के बाद शायद ही किसी ने सोचा हो कि दोबारा केदारनाथ धाम यात्रा शुरू होगी और रिकॉर्ड रफ्तार पकड़ सकेगी. आपदा के बाद से केदारनाथ आने वाले यात्रियों को बेहतर सुविधाएं देने के प्रयास किए गए. अब यहां के लोग आपदा के ज़ख्मों को भुलाकर आगे बढ़ रहे हैं. 16-17 जून 2013 की आपदा को नौ साल पूरे तब हो रहे हैं, जब चार धाम यात्रा चरम पर है. 9 साल पहले भी यहां यात्रियों का हुजूम था, जब तबाही हुई थी. पूरी केदानगरी के साथ ही रुद्रप्रयाग तक तबाही का मंजर दिखा था. हज़ारों लोगों का रोज़गार छिन गया था, कई लोगों के आशियाने बर्बाद हो गए थे और कई परिवारों ने कमाने वालों को आपदा में खो दिया था. कुछ लोग तो अब तक लापता हैं. आपदा इतनी भयानक थी कि उसे याद करके अब भी कइयों की रूह कांप जाती है. लेकिन यादें धुंधलाती हैं, वक्त बदलता हैआपदा के बाद अब केदारनाथ सहित यात्रा पड़ावों की तस्वीर बदलने लगी है. आपदा के बाद केदारनाथ में कई नवनिर्माण हो चुके हैं तो कई पर काम चल रहा है. धाम की बात करे तो यहां मंदाकिनी और सरस्वती नदी किनारे सुरक्षा दीवारों के साथ ही तीर्थ पुरोहितों के लिए घर बनाए गए हैं. केदारनाथ में मंदिर के आगे से हेलीपैड तक के रास्ते के दोनों छोरों पर स्थित घरों को तोड़ा गया है, जिससे बाबा केदार का मंदिर दूर से ही यात्रियों को दिखाई दे. यानी अगले साल केदारपुरी और बदली नज़र आएगी. केदारनाथ धाम की यात्रा पर आने वाले भक्तों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है. इस साल केदारनाथ में रिकॉर्ड 7 लाख से ज़्यादा श्रद्धालु पहुंच चुके हैं, वह भी जबकि केदारनाथ यात्रा को शुरू हुए अभी डेढ़ महीना भी नहीं हुआ है. डीएम समेत कई लोग इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा केदारनाथ की ब्रांडिंग का परिणाम भी बताते हैं. असल में, केदारनाथ से विशेष लगाव रखने वाले पीएम मोदी आपदा के बाद से लगातार केदारनाथ आते रहे हैं. प्रधानमंत्री के तौर पर पिछले 8 सालों में मोदी पांच बार केदारनाथ आ चुके हैं. इस बार चार धाम यात्रा से कुछ पहले यहां शंकराचार्य के स्मारक के उद्घाटन अवसर पर आकर उन्होंने केदारपुरी के कायाकल्प को लेकर यात्रियों में एक उत्साह भी जगाया था. केदारनाथ क्षेत्र में आइ जलप्रलय चार हजार से अधिक लोगों को निगल गई। वहीं इतने सालो बाद भी केदारपुरी क्षेत्र में पुनर्निर्माण के मरहम से आपदा के जख्म पूरे नहीं भर पाए हैं। दरअसल, उत्तराखंड व प्राकृतिक आपदाओं का संबंध पुराना है। भूस्खलन, बादल फटना, आसमानी बिजली गिरना, बाढ़, भूकंप की घटनाएं पहाड़ों में निरंतर होती रहती हैं। यह भी कह सकते हैं कि आपदा पहाड़ के लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। ज्ञात इतिहास में वर्ष 1803 में गढ़वाल में आए भूकंप का उल्लेख मिलता है। गढ़वाल अर्थक्वेक के नाम से जाने जाने वाले इस भूकंप ने पूरे उत्तर भारत को हिला दिया था। भूकंप से गढ़वाल में भारी तबाही मची। कहा जाता है कि भूकंप से अस्त-व्यस्त हो चुके गढ़वाल की राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाकर गोरखाओं ने इस पर आक्रमण किया था और वर्ष 1804 में गढ़वाल क्षेत्र गोरखाओं के कब्जे में आ गया। इसके अलावा उत्तराखंड के इतिहास में दर्ज प्रमुख आपदाओं में वर्ष 1868 में बिरही की बाढ़, 1880 में नैनीताल के पास भू-स्खलन, 1893 में बिरही में बनी झील, 1951 में सतपुली में नयार नदी की बाढ़, 1979 में रुद्रप्रयाग के कौंथा में बादल फटने की घटनाएं शामिल हैं। वर्ष 1991 में उत्तरकाशी में भूकंप, 1998 में रूद्रप्रयाग व मालपा में भू-स्खलन, 1999 में चमोली व रूद्रप्रयाग में भूकंप, 2010 में बागेश्वर के सुमगढ़ में भू-स्खलन, 2012 में उत्तरकाशी व रूद्रप्रयाग में बादल फटने व भू-स्खलन जैसी ये कुछ ऐसी घटनाएं हैं, जिनमें अब तक हजारों लोगों की जानें चली गई हैं।प्राकृतिक आपदाएं रोकी नहीं जा सकती हैं। मगर ठोस प्रबंधन व तकनीकी प्रयोगों से आपदा न्यूनीकरण के प्रयास किए जा सकते हैं। केदारनाथ आपदा में कई लोगों की जान बचाई जा सकती थी, यदि आपदा प्रबंधन तंत्र मजबूत और प्रभावी होता और समय पर राहत और बचाव अभियान चलता है। किसी भी आपदा के बाद सरकारी तंत्र बड़ी-बड़ी घोषणाएं करता है। बैठकों के दौर चलते हैं। लेकिन जब अगली आपदा आती है तो पता चलता है कि पिछली आपदा के बाद की गई तमाम का कवायदें सिफर साबित हुई हैं।आपदाओं का एक स्याह पक्ष और भी है। आपदा में जानमाल की जो क्षति होती है, उसका दंश उनके परिजनों को जीवन भर सालता रहता है। मगर आपदा का असली पहाड़ उन पर टूटता है जिनकी जान तो बच जाती है, किंतु वो अपने घर, खेती और पशुओं को गंवा देते हैं। आपदा पीड़ितों की स्थिति शरणार्थियों-सी हो जाती है और वह दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर होते हैं। सरकारी मानकों के हिसाब से पीड़ितों को जितना मुआवजा मिलता है, उसमें अधिकतम एक परिवार का साल भर का गुजारा चल सकता है। पीड़ित इस मुआवजे को सरकार की कृपा मान कर संतुष्ट हो जाते हैं।केदारनाथ त्रासदी के बाद गठित पीड़ितों के संगठन “केदारघाटी आपदा पीड़ित विस्थापन और पुनर्वास संघर्ष समिति” के आंदोलन के फलस्वरुप उस वर्ष प्रदेश सरकार ने मानकों में कुछ फेरबदल किया। सरकार ने बेघर हुए लोगों को प्रति वयस्क को परिवार मानते हुए सात लाख रुपये भवन निर्माण हेतु दिए। कल्पना की जा सकती है कि सात लाख में कोई व्यक्ति कैसे भूमि खरीदेगा और कैसे मकान बनाएगा ? हालांकि सरकार का यह मानक एक ही वर्ष चला। अगले वर्ष आई आपदा के पीड़ितों को फिर से पुराने मानकों के अनुसार 2 या 3 लाख रुपये का मुआवजा वितरित किया जाने लगा।यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आपदा आने पर सरकारी मशीनरी का पूरा ध्यान निर्माण/ पुनर्निर्माण कार्यों को संपन्न करने अथवा इसके लिए केंद्रीय सहायता हासिल करने में रहता है। प्रकृति की मार के पीड़ितों के फोटो कुछ समय के लिए राजनेताओं व स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ राशन, खाद्य सामग्री आदि लेते हुए अखबारों में दिख जाते हैं। मगर इसके बाद पीड़ितों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। पहाड़ में प्रतिवर्ष ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। लोक कल्याणकारी राज्य में सरकार से अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह पीड़ितों के विस्थापन, पुनर्वास व जीवन-यापन के लिए प्रयास करे। इन पंक्तियों के एक जनहित याचिका पर वर्ष 2016 में नैनीताल हाईकोर्ट ने अजेंद्र अजय व अन्य बनाम उत्तराखंड सरकार के मामले में फैसला दिया था कि आपदा पीड़ित एक “विशेष श्रेणी” में आते हैं। कोर्ट ने कहा कि अपने नागरिकों के जीवन व स्वतंत्रता की सुरक्षा करना राज्य सरकार की संवैधानिक बाध्यता है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उन्हें पुनर्वास का अधिकार है। कोर्ट ने प्रदेश सरकार को यह भी निर्देश दिए कि इस विशेष वर्ग को पर्याप्त मुआवजा दिया जाना चाहिए, ताकि वे नए सिरे से अपने को व्यवस्थित कर सकें।एक बड़ी समस्या और भी है, जिस पर समय रहते गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से बात करें तो आज उत्तराखंड में आपदा की दृष्टि से संवेदनशील और अति संवेदनशील गांवों की संख्या 400 पहुंच गई है। ये गांव वर्षों से अपने विस्थापन व पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं। पूर्व की सरकारों द्वारा इस ओर अपेक्षित ध्यान ना दिए जाने के कारण इन गांवों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यह सुखद है कि वर्तमान की सरकार ने पुनर्वास की प्रक्रिया को शुरू किया है। लेकिन राज्य सरकार के पास संसाधन सीमित हैं। राज्य के अपने संसाधनों के बूते इतने गांवों का विस्थापन संभव नहीं है। इनमें से कई गांव ऐसे हैं जो आपदा के मुहाने पर हैं। खासकर बरसात के समय ग्रामीणों की पूरी रात आंखों में गुजर जाती है। बरसात के समय कई बार उन्हें भरोसा नहीं होता कि वह अगली सुबह का उजाला देख भी पाएंगे कि नहीं ?लेकिन वह परिस्थितियों के सामने विवश हैं। उनके सम्मुख आपदा से जूझने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। यदि देखा जाए तो इन ग्रामीणों से निरीह प्राणी शायद ही दुनिया में कोई और होगा, जो अपने घर-बार, खेती-बाड़ी व पशुओं को छोड़कर जाए तो कहां जाए ? एक तरफ काल का भय है तो दूसरी तरफ जीवन यापन की मजबूरी। काल के भय के सामने जीवन यापन की मज़बूरी भारी पड़ती दिखती है आपदा में कितने लोगों की जान गई इसका भी सटीक आंकड़ा किसी के पास नहीं है, लेकिन हजारों लोगों की मरने की सूचना पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज है। इस आपदा में भारत के ही नहीं बल्कि विदेश के लोगों ने भी अपनी जान गंवाई थी। केदारनाथ की प्रलयकारी आपदाके चश्मदीद आज भी उस पल को सोचकर डर जाते हैं। केदारनाथ से आए भूचाल ने ऐसा तांडव मचाया कि लोगों के आशियाने तिनके की तरह उझड़ने लगे और हजारों लोग इस आपदा का शिकार हो गए। केदारनाथ आपदा में केदारघाटी के देवली-भणिग्राम, त्रियुगीनारायण, लमगौंडी के लोगों ने अपनो को खोया। इन गांवों में हर परिवार से एक से दो लोगों की जान इस आपदा के कारण गई थी। आपदा के बाद सरकार ने मदद तो की, लेकिन रोजगार को लेकर सरकार ने कोई कदम नहीं उठाए। प्राइवेट संस्थाओं की ओर से पीड़ितों के आंसू पोछने का काम किया गया, जो नाकाफी ही रहा। केदारनाथ आपदा के दौरान भी रेस्क्यू करते हुए वायु सेना के एमआइ-17 हेलीकॉप्टर समेत तीन हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हुए थे। इन दुर्घटनाओं में कुल 23 लोगों की मौत हुई। वहीं, केदारनाथ में हुई भारी तबाही के बाद 19 जून को केंद्र सरकार ने वायु सेना को वहां रेस्क्यू की जिम्मेदारी सौंपी। इसके बाद नौ दिनों तक वायु सेना ने केदारनाथ धाम की पहाड़ियों पर रेस्क्यू कर हजारों लोगों की जान बचाई। इस दौरान वायु सेना को भारी नुकसान भी झेलना पड़ा था। जिसमें वायु सेना के जवानों से लेकर यात्रियों ने अपनी जान गंवाई। 2013 की वो तारीख, जिसने उत्तराखंड को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. आसमानी आफत ने केदार घाटी समेत पूरे उत्तराखंड में बर्बादी के वो निशान छोड़े, जिन्हें अब तक नहीं मिटाया जा सका. लगातार 9 सालों के प्रयासों के बाद से केदारनाथ धाम की यात्रा फिर से सुचारू रूप से शुरू हो गई है. प्रलय से प्रभावित क्षेत्रों के पुनर्निर्माण पर 2700 करोड़ रुपये खर्च हुए. साल 2013 में केदारनाथ धाम में आई विनाशकारी आपदा में लापता हुए लोगों का दर्द आज भी उनके परिजनों के चेहरों पर साफ दिखाई देता है. हालांकि आपदा के नौ साल बीत गए हैं लेकिन इस आपदा के जख्म, आपदा की बरसी पर फिर से ताजे होते चले जाते हैं. इस भीषण आपदा में अब भी 3,183 लोगों का कोई पता नहीं चल सका है. केदारनाथ आपदा में कितने लोगों की जान गई इसका भी सटीक आंकड़ा किसी के पास नहीं है, लेकिन हजारों लोगों की मरने की सूचना पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज है. भारत के ही नहीं बल्कि विदेश के लोगों ने भी अपनी जान गंवाई थी. आपदा को नौ साल बीत चुके हैं, लेकिन आज भी कुछ सवाल जिंदा हैं
.लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।